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नूपुर शर्मा

हरियाणा के पानीपत जिले की रहने वाली नूपुर शर्मा एक लेखिका हैं। वे पोलियो से प्रभावित हैं और व्हीलचेयर प्रयोग करती हैं।
Photograph of नूपुर शर्मा

Articles by नूपुर शर्मा

“Accessibility” व्यवहार में आए तो बात बने! “Acceptance” सोच में आए तो बात बने!

मेरी विकलांगता को लेकर मैंने कभी भी रैना को असहज होते नहीं देखा। उसने हमेशा मेरी विकलांगता और मेरे वास्तविक व्यक्तित्व को जानने-समझने का प्रयास किया। इसके लिए उसने अपने व्यवहार को मेरे लिए सुगम “Accessible” बनाया।

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किसकी “क्षमता का आकलन”? मेरी या ख़ुद की?

एक विकलांग व्यक्ति को ही क्यों जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित करने के लिए जद्द-ओ-ज़हद करनी पड़ती है? क्या सिर्फ़ इसलिए कि उनकी विकलांगता दिखाई दे रही है?

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मेरे मन ये बता दे तू किस ओर चला है तू?

जीवन में कुछ न कर पाने और असफल रह जाने की शंकाओं पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय अच्छा होगा कि हम अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित करें।

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एक ख़ामोशी… कुछ सवालों की वजह

बिट्टू ख़ामोश होकर सिर झुका लेती है। कहीं-न-कहीं उसकी ख़ामोशी इस बात का समर्थन कर गई कि वह भी किसी को उसकी विकलांगता या अन्य किसी कमी के कारण स्वीकार नहीं करती।

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पंख लगा लो…जहाँ मन करे उड़ जाना

नूपुर शर्मा अपने कॉलम “खुलते पिंजरे” के इस अंक में व्हीलचेयर पर तय की गई अपनी अभी तक की सबसे लम्बी दूरी के बारे में बता रही हैं।

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हमें अपने अधिकारों के लिये आवाज़ बुलन्द करनी चाहिये

जो लोग किसी की भी मदद करते हैं, मदद करना उनका निजी फ़ैसला होता है। मदद करने के लिए कोई किसी से आग्रह ज़रूर कर सकता है; लेकिन बाध्य नहीं कर सकता। लोग स्वेच्छा से ही किसी की मदद करते हैं। इसलिए किसी की मदद करने पर किसी को असुविधा होने का सवाल ही नहीं उठता।

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आयरन लंग मशीन: प्रकार, प्रयोग, आविष्कार और पोलियो के संदर्भ में महत्त्व

आयरन लंग मशीन की परिभाषा, इसके प्रयोग व प्रकार, आविष्कार और पोलियो से जीवन बचाने में इस मशीन के महत्त्व इत्यादि के बारे में जानकारी

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पॉल अलेक्ज़ेंडर: आयरन लंग मशीन को सबसे लम्बे समय तक प्रयोग करने वाले व्यक्ति

पॉल अलेक्ज़ेंडर की कहानी जो पोलियो के कारण 70 वर्ष से आयरन लंग मशीन में रह रहे हैं। पॉल आयरन लंग को सबसे लम्बे समय तक प्रयोग करने वाले व्यक्ति हैं।

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अब मैंने पर खोल लिए हैं

नुपुर शर्मा विकलांगता डॉट कॉम पर “खुलते पिंजरे” शीर्षक से अपना कॉलम आरम्भ कर रही हैं। कॉलम के अपने पहले लेख में वे सम्यक ललित द्वारा रचित “अब मैंने पर खोल लिये हैं” कविता पर चर्चा कर रही हैं।

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जाने कहाँ गए वो दिन — कहाँ गया वह अपनापन?

मैंने अधिकांश केसों में यही पाया कि जो विकलांग और सामान्य भाई-बहनों के बीच का जो रिश्ता बचपन में बहुत मज़बूत होता था; वह समय के साथ-साथ अचानक कमज़ोर होने लगता है। बड़े होने पर अधिकतर सामान्य भाई-बहन, विकलांग भाई-बहनों को बोझ मानने लगते हैं। वे उनकी देखभाल प्यार से समर्पित होकर नहीं बल्कि सिर पर पड़ी एक अनचाही जिम्मेदारी मानकर करते हैं।

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