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एक ख़ामोशी… कुछ सवालों की वजह

कुछ दिन पहले मैं यूट्यूब पर कोई लघु हास्य फ़िल्म ख़ोज रही थी। बहुत सारी फ़िल्मों में से एक फ़िल्म के शीर्षक ने मुझे आकर्षित किया। यह शीर्षक था ‘बिट्टू’। बीस मिनट सात सेकेंड की यह एक नायिका प्रधान फ़िल्म थी। शुरुआत में मैं इसी भ्रम के साथ फ़िल्म देख रही थी कि यह एक हास्य फ़िल्म है; लेकिन जैसे ही फ़िल्म के कुछ मिनट गुज़रे मुझे यह हास्य फ़िल्म की बजाय विकलांगता केन्द्रित फ़िल्म लगी।

फ़िल्म की शुरुआत होती है ‘बिट्टू’ (जो कि फ़िल्म की नायिका है) के परिचय व उसकी ख़ूबियों के साथ। इन ख़ूबियों को वह अपने मुँह मियाँ मिट्ठू  की तर्ज़ पर ख़ुद को और दर्शकों को बता रही है। वह अपनी होशियारी और परिवार में अपनी अहमियत के बारे में बताते हुए कहती है कि यह उसी की सूझ-बूझ थी जिसने उसके पिता की दुकान को रिश्तेदारों का कब्जा होने से बचा लिया। बिट्टू कहती है कि इकलौती संतान होने की वजह से ही वह अपने घर पर रुकी हुई है, वरना अब तक तो कहीं दूर उड़ान भर चुकी होती। सोशल-मीडिया, फेसबुक और इन्स्टाग्राम के दौर में बिट्टू अपने माता-पिता से चोरी-छुपे फ़ोटो-शूट और रील्स बनाने के अपने शौक को बख़ूबी पूरा करती है और आज के दौर में इन सब में एक्टिव रहना कितना ज़रूरी है यह भी बताती है। उसे ऋतिक रोशन जैसे लड़के पसंद है। जो लड़के कहते हैं कि ऋतिक के एब्स जैसे एब्स नहीं बन पाते उन्हें बिट्टू बहानेबाज बताती है। उसका मानना है कि आप कुछ चाहो तो क्या नहीं होता! मतलब अगर कोई कुछ करना चाहे तो सब संभव है। बिट्टू से हुई इस पहली मुलाक़ात ने मुझे बता दिया कि वह एक हँसमुख और ज़िंदादिल लड़की है।

फ़िल्म के दूसरे सीन में बिट्टू के घर उसके रिश्ते के लिए एक लड़का व उसके माता-पिता आते हैं। बिट्टू व लड़के को अकेले में बातें करने के लिए बैठा दिया जाता है। लड़का बिट्टू के साथ बात शुरू करने के उद्देश्य से उसके कमरे में सजे ढेरों ईनामों (जो बिट्टू ने शिक्षा के क्षेत्र में जीते थे) को देखकर उसकी तारीफ़ करता है। वह कहता है कि हमारे पूरे परिवार ने मिल कर भी इतनी पढ़ाई नहीं की होगी जितनी अकेली आपने की हुई है। बिट्टू कुछ नहीं बोलती केवल मुस्कुरा देती है। लड़का बिट्टू से कम पढ़ा-लिखा है — वह केवल दसवीं पास है, इसको भी उसने कई बार फ़ेल होने के बाद पास किया है। वहीं बिट्टू उच्च शिक्षित लड़की है। लड़के को बिट्टू पसंद है। वह बिट्टू से भी कुछ बातें करने के लिए कहता है।

जब बिट्टू कुछ बोलने की कोशिश करती है तो लड़के के साथ मैं भी उसी समय पर यह जान पाती हूँ कि बिट्टू “वाक/वाचन  विकलांगता” से प्रभावित है। वह बोलते हुए हकलाती है। पहले सीन में बिट्टू – जो इतनी बेबाकी से इतनी बातें किए जा रही थी, असल में वे सब उसके मन की बातें थीं। जिन्हें वह मन-ही-मन साझा कर रही थी और मन को तो कभी कोई विकलांगता होती नहीं है न।

बिट्टू की विकलांगता का पता पड़ते ही लड़के के हाव-भाव बदल जाते हैं और वह बिना कुछ कहे ही वहाँ से चला जाता है।  उसको कुछ देर पहले तक बिट्टू पसंद थी; लेकिन अब…? बिट्टू को वह पसंद था या नहीं? यह मायने नहीं रखता; क्योंकि हमारे समाज में लड़कियों को अपनी पसंद-नापसंद बताने का अधिकार कम ही दिया जाता है और बिट्टू तो एक लड़की होने के साथ-साथ विकलांग भी थी। उसको उसके परिवार ने यह अधिकार दिया था या नहीं, पता नहीं।

बिट्टू के रिश्ते के लिए लड़कों के आने और उसकी विकलांगता के बारे में जानने के बाद इंकार करके चले जाने का सिलसिला लगातार चलता रहा। इन सभी के बीच बिट्टू अपनी पढ़ाई और रील्स बनाने में ख़ुद को व्यस्त रखे थी। अपनी विकलांगता के कारण लोगों द्वारा बार-बार अस्वीकार किए जाने पर वह बिल्कुल भी मायूस नहीं है। उसने ख़ुद को अपनी विकलांगता के साथ स्वीकार करके ख़ुद से प्यार करना सीख लिया है। यह बहुत ज़रूरी है कि हम ख़ुद को अपनी कमियोंकमजोरियों, अपनी विकलांगताओं के साथ स्वीकार करें

जहाँ एक ओर बिट्टू अपने जीवन के प्रति आशावादी है, वहीं दूसरी ओर उसकी माँ, लड़कों द्वारा बार-बार बिट्टू की विकलांगता के कारण उसे अस्वीकार किए जाने से निराश हो चुकी है। वह हर हाल में बिट्टू की विकलांगता को दूर करना चाहती है। इसके लिए कभी वह बिट्टू को अज़ीब-अज़ीब काढ़े पिलाती है तो कभी पूजा-अर्चना करती है।

एक सीन में बिट्टू अपनी माँ से कहती है कि “ईश्वर की इतनी पूजा करती हो तो विश्वास करना भी सीखो। उसके ऐसे कहने का आशय यह बिल्कुल नहीं था कि एक दिन वह हकलाना बंद कर देगी बल्कि यह था कि उसे एक दिन ज़रूर कोई ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो उसकी विकलांगता को नहीं बल्कि उसकी ख़ूबियों को महत्त्व देगा।   

(यह कैसी विडम्बना है न कि लोग किसी की ख़ूबियों की अपेक्षा उसकी विकलांगता/कमियों को अधिक महत्त्व देते हैं और उन्हीं कमियों के आधार पर किसी के सम्पूर्णा व्यक्तित्व का आकलन कर उन्हें अस्वीकार कर देते हैं)।

फ़िल्म के आख़िरी और सबसे महत्त्वपूर्ण सीन में बिट्टू को उसके घर के बाहर वही लड़का मिलता है जिसको बिट्टू (कुछ  बोलने से पहले तक) पसंद थी। वह बिट्टू को कोई जवाब दिये बगैर चले जाने के अपने ग़लत बर्ताव के लिए शर्मिंदा है। वह बिट्टू से माफी माँगता है और उससे रिश्ते के लिए हामी भर देता है। लड़का बिट्टू की विकलांगता को महत्त्व न देकर उसकी ख़ूबियों की तारीफ़ करता है। वह बिट्टू से कहता है कि ‘आपने भी तो उसके कम पढ़े-लिखे होने की कमी को नज़रअंदाज़ किया है तो वह भी आपकी विकलांगता को नज़रअंदाज़ कर सकता हूँ’।

लड़के की सोच और हृदय में अचानक हुए इस परिवर्तन को देख, बिट्टू को समझने में तनिक देर न लगी कि ज़रूर लड़के के कम पढ़े-लिखे होने के कारण वह सामान्य लड़कियों द्वारा अस्वीकार किया गया है। तभी अब वह मुझे (मेरी विकलांगता के साथ) स्वीकार करने को तैयार है। सच तो यह है कि वह मेरे द्वारा ख़ुद को स्वीकार कराने के उद्देश्य से वापस आया है न कि मेरी ख़ूबियों से प्रभावित होकर। हालाँकि, बिट्टू इस रिश्ते के लिए तैयार हो जाती है; लेकिन वह लड़के पर कटाक्ष करते हुए उससे  यह सब बातें बोल देती है। लड़का सिर झुका कर जाने लगता है, अचानक वह पलट कर बिट्टू से सवाल करता है कि “यदि वह एक सामान्य लड़की होती तो क्या मुझ जैसे कम पढ़े-लिखे या कुछ अन्य कमी/विकलांगता वाले लड़के को सहज और सहर्ष अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार करती”? इस सवाल के जवाब में बिट्टू ख़ामोश होकर सिर झुका लेती है। कहीं-न-कहीं उसकी ख़ामोशी इस बात का समर्थन कर गई कि वह भी किसी को उसकी विकलांगता या अन्य किसी कमी के कारण स्वीकार नहीं करती।

उसकी ख़ामोशी मेरे मन में एक फ़ाँस की तरह चुभी। यह ख़ामोशी कुछ सवालों की वजह बन गई कि जब एक विकलांग व्यक्ति की ही सोच ऐसी हो कि सामान्यता की स्थिति में वह ख़ुद किसी विकलांग या अन्य कमी वाले व्यक्ति को स्वीकार नहीं करना चाहता, तो विकलांगता की स्थिति में वह अपने लिए किसी से स्वीकार्यता की माँग कैसे कर सकता है? विकलांगता तो कभी-भी किसी-को-भी हो सकती है। फिर बदली हुई परिस्थितियों में व्यक्ति कैसे किसी से कोई उम्मीद कर पाएगा?

क्या ग़ैर-विकलांगता की स्थिति में व्यक्ति की संवेदनाएँ इतनी कम हो जाती है कि वह किसी भी लिहाज में अपने से कमतर व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर पाता; लेकिन अपनी किसी कमी के लिए लोगों से स्वीकार्यता की उम्मीद ज़रूर रखता है। यह स्वीकार्यता/अस्वीकार्यता का कैसा चक्रव्यूह है, जिसमें कोई ख़ुद फँसे तो दूसरों से निकालने की उम्मीद करता है और कोई दूसरा फँसे तो वह नकार दिया जाता है।

यह बेहद ज़रूरी है कि हम सभी (विकलांग/ग़ैर विकलांग) को संवेदनशील बन कर अन्य विकलांगजन/ग़ैर-विकलांगजन को उनकी कमियों के साथ स्वीकार करना होगा। तभी समाज में एकरूपता आ सकती है और हम अपनी स्वीकार्यता के सच्चे अधिकारी बन सकते हैं।

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राशि
राशि
7 months ago

बहुत सरल शब्दों में गहरी बात रखी आपने, नुपुर जी🙏😇

Pardeep Singh
Pardeep Singh
7 months ago

एक शॉर्ट फिल्म के जरिए बहुत गहरा मुद्दा उठाया है।

नूपुर ma’am बहुत बहुत इस लेख के लिए

Rupanshi
Rupanshi
7 months ago

बहुत ही सही तरीके से दूसरों को समझने ओर जिंदगी की मुसीबत से लड़ने की प्रेरणा

Rupanshi
Rupanshi
7 months ago

इसके लिए 🙏 thanks

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