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“Accessibility” व्यवहार में आए तो बात बने! “Acceptance” सोच में आए तो बात बने!

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नूपुर शर्मा
नूपुर शर्मा | 12 अप्रैल 2024 (Last update: 12 अप्रैल 2024)

हरियाणा के पानीपत जिले की रहने वाली नूपुर शर्मा एक लेखिका हैं। वे पोलियो से प्रभावित हैं और व्हीलचेयर प्रयोग करती हैं।

“Accessibility” और “Acceptance” ये दोनों ऐसे शब्द हैं जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में गाहे-ब-गाहे सुनने को मिल ही जाते हैं; लेकिन जब ये शब्द सुनने की बजाय देखने और महसूस करने को मिलते हैं… तब कहने ही क्या! “अक्सर” तो नहीं कह सकती, लेकिन “कभी-कभी” इन शब्दों से मुलाक़ात हो जाती है। कभी ये राह चलते मिल जाते हैं तो कभी किसी इमारत में बाहें फैलाए गले लगा लेते हैं। कई-बार तो बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों और बैंकों आदि इमारतों में इनसे मिलने को मन तड़प उठता है। जहाँ भी इन शब्दों की उपस्थिति का अहसास होता है, ऐसा लगता है मानो किसी ने पिंजरे में क़ैद पंछी को आज़ाद कर दिया हो; लेकिन अफसोस पिंजरे में क़ैद पंछी को यह आज़ादी ब-मुश्किल ही मिल पाती है।

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हम सभी जानते हैं-अभिगम्यता, सुगमता, पहुँच में होना आदि ये सब “Accessibility” के ही पर्याय हैं; लेकिन यह एक-सी न होकर कई तरह की होती है, कभी भौतिक तो कभी व्यावहारिक। वहीं Acceptance का अर्थ होता है किसी स्थिति-परिस्थिति, वस्तु, विचार या किसी व्यक्ति विशेष को स्वीकार कर लेना मतलब उनके प्रति स्वीकृति का भाव रखना। इन दोनों शब्दों का आपस में नाता भी बड़ा गहरा है। यह कहना थोड़ा कठिन होगा कि किस शब्द को अधिक महत्व दिया जाएँ।

वैसे तो इस दुनिया में हर किसी व्यक्ति को “Accessibility” और “Acceptance” चाहिए; लेकिन किसी-किसी व्यक्ति की ज़िंदगी का तो ये शब्द अहम हिस्सा बन जाते हैं। इनके बिना उनकी ज़िंदगी मानो पिंजरे में क़ैद पंछी-सी होती है। जो चाह कर भी उड़ान नहीं भर सकते। मैं बात कर रही हूँ विकलांगजन की, जो इन दोनों शब्दों (वास्तव में विशेष स्थिति) के अभाव में अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा जी पाने से ही चूक जाते हैं। जी हाँ! इन दोनों शब्दों/स्थितियों के अभाव में विकलांगजन की ज़िंदगी “पिंजरे में क़ैद पंछी” जैसी ही होती है, जो उड़ना तो जानता हैं; पर उड़ नहीं सकता। मैं यह हरगिज़ नहीं कहूँगी कि विकलांगजनों को हमेशा ही Accessibility और Acceptance के लिए जूझना पड़ता है। कई जगह न सिर्फ़ इमारतों में बल्कि लोगों के व्यवहार और सोच में भी Accessibility और Acceptance मिल जाते हैं। सच मानिए! इनके मिलने पर हर विकलांगजन ख़ुद को स्वतंत्र महसूस करता है; लेकिन यह एक कड़वा सच है कि विकलांगजन को अधिकतर ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जहाँ  Accessibility और Acceptance दोनों या किसी एक की कमी होती ही है। जो विकलांगजन के लिए परेशानियों का शबब बन जाती है। यह किसका दोष है-सरकार का.., समाज का…,या फिर हमारा…?

यह कहना थोड़ा मुश्किल होगा कि विकलांगजन के जीवन में दोनों (शब्दों/स्थितियों) में से किसका अधिक महत्त्व होता है।  “Accessibility” का या “Acceptance” का!

मुझे लगता है कि Acceptance का महत्व अधिक है। क्योंकि जब तक लोग विकलांगजन को उनकी स्थिति विशेष के साथ स्वीकार ही नहीं करेंगे तब तक वे विकलांगजन के लिए “Accessibility” के बारे में कैसे विचार कर पाएँगे।

कई बार यह भी लगता है कि “Accessibility” की प्राथमिकता है। “व्यवहार की Accessibility!” मतलब जब तक लोग व्यवहारिक तौर पर विकलांगजन से कोई संबंध नहीं बनाएँगे, उनके नज़दीक नहीं आएँगे, उन्हें समझने की पहल नहीं करेंगे; तब तक वे विकलांगजन की वास्तविक स्थिति, योग्यता, क्षमता-अक्षमता, ज़रूरतों आदि को कैसे समझ पाएँगे। ऐसी स्थिति में लोग विकलांगजन के प्रति सच्ची Acceptance (स्वीकार्यता) की भावना को भी विकसित नहीं कर पाएँगे।

जहाँ तक मैं सोच-समझ पाती हूँ, मुझे लगता हैं कि ये दोनों शब्द/स्थितियाँ एक-दूसरे की पूरक है। एक के अभाव में दूसरे का महत्व नहीं रह जाता।

इसको मैं एक छोटे-से अनुभव के माध्यम से समझने और समझाने की कोशिश करती हूँ। करीब एक साल पहले कम्प्यूटर सीखने के दौरान मेरे जीवन में दो नई मित्रों का आगमन हुआ। पूजा और रैना (नाम काल्पनिक हैं), दोनों ही मुझे स्वभाव से खुशमिजाज़ और मिलनसार लगी। मेरी दोनों से मुलाक़ात कम्प्यूटर सेंटर पर ही हुई थी। एक दिन मुझे पता चला कि रैना मेरे घर के पास ही रहती है, मैंने बिना सोचे-समझे ही उसको मेरे साथ कम्प्यूटर सेंटर आने का प्रस्ताव दे दिया। फिर मुझे लगा कि शायद वह मेरे साथ नहीं आएगी। शायद एक विकलांग लड़की के साथ आने में वह सहज महसूस न करे! लेकिन अगले दिन रैना मेरे घर आ गई और मेरे साथ ही कम्प्यूटर सेंटर गई। उस दिन से रैना हर दिन मेरे साथ जाने लगी। हम दोनों न सिर्फ़ कम्प्यूटर सेंटर बल्कि बाज़ार व अन्य जगह भी साथ जाने लगे। बहुत ही जल्द हम दोनों एक-दूसरे की अच्छी दोस्त बन गई और आज भी है।

मेरी विकलांगता को लेकर मैंने कभी भी रैना को असहज होते नहीं देखा। उसने हमेशा मेरी विकलांगता और मेरे वास्तविक व्यक्तित्व को जानने-समझने का प्रयास किया। इसके लिए उसने अपने व्यवहार को मेरे लिए सुगम “Accessible” बनाया। रैना ने कभी भी मेरी विकलांगता को मेरी पहचान नहीं समझा। उसने हमेशा विकलांगता के पीछे की नूपुर को जाने-समझने का प्रयास किया। इसका परिणाम यह हुआ कि रैना मुझे मेरी विकलांगता के साथ एक मित्र के रूप में स्वीकार “Accept” करने के लिए ख़ुद तैयार कर पाई।

वहीं दूसरी ओर पूजा और मैं कभी भी एक-दूसरे के साथ सहज हो ही नहीं पाएँ। वह भी अक्सर मेरे घर आती थी; लेकिन हम दोनों के बीच हमेशा एक दूरी रही। उसने मेरी विकलांगता को हमेशा एक जटिल स्थिति समझा। वह कभी मेरी विकलांगता और मुझे ठीक से समझ ही न सकी। जब भी कभी हम तीनों एक-साथ कही बाहर जाने के बारे में सोचते, तो पूजा मुझसे पूछे बिना ही तय कर लेती कि फ़ला जगह जाने में मैं सक्षम नहीं पाऊँगी या अगर मैं साथ गई तो मेरी वजह से उन दोनों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ेगा। मेरे साथ जाने के नाम पर पूजा हमेशा आशंकित रहती। मैं कभी भी पूजा के साथ बाहर नहीं गई।

वहीं रैना को मेरे साथ कहीं भी जाने में कभी कोई दुविधा नहीं हुई। पूजा अक्सर रैना से पूछती थी कि तुम एक विकलांग के साथ कहीं जाने में सहज कैसे रहती हो? मुझे नहीं पता रैना ने पूजा के इस सवाल का क्या जवाब दिया होगा; लेकिन जहाँ तक मैं समझ पाती हूँ, रैना मेरे साथ सहज इसलिए थी क्योंकि उसने मुझे और मेरी विकलांगता को समझने के लिए अपने व्यवहार को Accessible बनाया था। उसने ख़ुद को और मुझे एक-दूसरे को जानने का अवसर दिया था। जबकि पूजा कभी ऐसा नहीं कर पाई। वह अपने व्यवहार में मेरे लिए Accessibility नहीं ला पाई। जिसके ज़रिये मैं पूजा को अपनी विकलांगता और अपने बारे में ठीक से समझा पाती। काश! पूजा अपने व्यवहार में Accessibility ला पाती तो वह मेरी विकलांगता के प्रति यूँ आशंकित न रहती।

मैंने यहाँ पूजा और रैना के माध्यम से सिर्फ़ अपनी बात समझाने का प्रयास किया है। विकलांगजन के जीवन में पूजा और रैना जैसे कितने ही लोग होते हैं। रैना जैसे लोगों के व्यवहार और सकारात्मक व खुली सोच का ही परिणाम है कि विकलांगजन भौतिक Accessibility के अभाव में भी ऐसे लोगों का साथ पाकर ख़ुद को स्वतंत्र महसूस कर पाते हैं। जो लोग विकलांगता और विकलांगजन को समझकर स्वीकार कर पाते हैं वास्तव में वे ही विकलांगजन के लिए भौतिक संसाधनों में सुगमता Accessibility ला सकते हैं।

कुछ साल पहले की अपेक्षा आज विकलांगजन के जीवन को आसान बनाने हेतु कुछ सकारात्मक परिवर्तन ज़रूर हुए हैं; लेकिन परिवर्तनों की यह रफ़्तार अभी बहुत धीमी है, इनमें तेज़ी लाने की आवश्यकता है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब जो लोग विकलांगता और विकलांगजन के प्रति विचार शून्य और आशंकित हैं, वे विकलांगता और विकलांगजन को समझने का प्रयास करने की पहल करें।

मेरा मानना है कि जब विकलांगता और विकलांगजन के प्रति लोगों के व्यवहार में Accessibility और सोच में Acceptance आ जाएगी तब भौतिक संसाधनों में तो आप ही Accessibility आ जाएगी।

इसीलिए तो-

“Accessibility” व्यवहार में आए तो बात बने!

“Acceptance” सोच में आए तो बात बने!

इस विषय में आपकी क्या राय है… बताइएगा ज़रूर।

© Viklangta.com   इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। इससे विकलांगता डॉट कॉम की सहमति आवश्यक नहीं है।
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