equal rights for persons with disabilities

हमें अपने अधिकारों के लिये आवाज़ बुलन्द करनी चाहिये

आजकल मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों की उथल-पुथल कुछ ज़्यादा ही हो रही है। वैसे तो विचार एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर किसी के मन-मस्तिष्क में निरंतर चलती ही रहती है; पर कुछ लोग अपने विचारों को नियंत्रित करने और सही दिशा दे पाने की कला में निपुण होते हैं। मैं भी इस कला को सीखने की कोशिश कर रही हूँ। हालाँकि अभी अपनी इस कोशिश में कई बार विफल भी हो जाती हूँ; पर जब प्रयास जारी है तो सफलता भी मिल ही जाएगी।

मैं आपके साथ अपने ऐसे ही कुछ विचार साझा कर रही हूँ। जो मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों के महासागर में उठती कुछ लहरें मात्र हैं। इन विचारों का सम्बन्ध कुछ दिन पहले की एक घटना से है; जब मैं किसी वजह से एक अस्पताल में गयी थी। चूँकि अपनी विकलांगता के कारण मैं पहले कहीं ज़्यादा आती-जाती नहीं थी; लेकिन अब घर से बाहर आना-जाना और जितना संभव हो सके ख़ुद को आत्म-निर्भर बनाना सीख रही हूँ। साथ ही मैं हमेशा से अपने व्यक्तित्व-निर्माण और इसके निखार के प्रति सजग रही हूँ। इसीलिए अक्सर अपने व्यक्तित्व को अपने विचारों की कसौटी पर परखती रहती हूँ ताकि उसमें निखार ला सकूँ।

मुझे जब भी कही जाना होता है तो घर से निकलने और अपनी मंज़िल पर पहुँचने और वहाँ से वापस घर आने के दौरान असंख्य विचार मेरे मन-मस्तिष्क में उभरते रहते हैं। जैसे कि जहाँ मुझे जाना है, क्या वहाँ जाना ज़रूरी है? यदि हाँ तो कितना… क्या मैं वहाँ अकेले जा पाऊँगी? लोग मुझे घूरेंगे तो नही? अगर किसी ने घूरा तो… मैं असहज तो नहीं हो जाऊँगी? अगर मुझे किसी की मदद की ज़रूरत पड़ी तो… क्या मैं मदद माँग पाऊँगी? क्या कोई मेरी मदद कर ही देगा? अगर नहीं की तो… मदद करके एहसान तो नही जता देगा? इन सभी विचारों की मैराथन में मुझे एक विचार यह भी सताता है कि यदि मुझे ऐसी किसी भी परिस्थिति का सामना करना पड़ा तो मेरा ख़ुद का व्यवहार कैसा रहेगा? अपने व्यवहार को लेकर मैं कुछ ज़्यादा ही सतर्कता बरतती हूँ। हम दूसरों के व्यवहार को तो नहीं बदल सकते; लेकिन ख़ुद के व्यवहार को बेहतर बना कर अपने व्यक्तित्व में निखार ज़रूर ला सकते हैं। इसलिए जो विचार मेरे व्यवहार और सोच से जुड़े होते हैं मैं उन विचारों का मंथन गहराई से करती हूँ।

ऐसा ही उस दिन भी हुआ जब मैं अस्पताल गई। अस्पताल जाने से पहले कितनी ही बार सोचा कि क्या मुझे वहाँ अकेले जाना चाहिए या फिर किसी को अपने साथ ले जाऊँ। क्या अकेले वहाँ सब कुछ संभाल पाऊँगी या नहीं? ख़ैर, विचारों की इसी आवाजाही में मैंने अस्पताल अकेले जाने का निर्णय लिया। सोचा कि जब तक अकेले जाऊँगी नहीं तब तक विभिन्न स्थितियों का सामना करना सीख भी नहीं पाऊँगी।

मैं अपनी ट्राईसाईकिल पर बैठी और अस्पताल के मेन-गेट पर पहुँच गई। अब समस्या आई मेन गेट से अंदर और फिर वहाँ से अस्पताल के अंदर जाने की। अस्पताल के बाहर रैम्प न होकर रैम्प जैसा चढ़ान बनाया गया था; लेकिन अस्पताल के अंदर जाने के लिए विकलांगजन के लिए रैम्प की व्यवस्था थी। इन दोनों ही तरह के रैम्प पर मैं बिना किसी की मदद के अपनी ट्राईसाईकिल नहीं चढ़ा सकती थी। मुझे किसी की मदद की ज़रूरत थी। मैं सोच ही रही थी कि किससे और कैसे मदद माँगू? मैं, यह तो जानती थी कि कोई-न-कोई मदद कर ही देगा; लेकिन कोई मेरी मदद करके मेरे बारे में क्या सोचेगा? क्या वह मेरी एक बेचारी, मज़बूर लड़की की छवि तो नहीं बना लेगा? यह मुझे बिल्कुल भी मंज़ूर नहीं था। ये सब विचार मन में चल ही रहे थे कि अचानक कोई पीछे से मेरी ट्राईसाईकिल को धक्का लगाकर अंदर कराने लगा। मैंने देखा कि एक दुकानदार मेरी ट्राईसाईकिल के पीछे वाले व्यक्ति को निर्देश दे रहा था कि वह दोनों रैम्प पर ट्राईसाईकिल चढ़ाने में मेरी मदद कर दे। अंतत: उस व्यक्ति ने भी ऐसा ही किया, इसके बाद मैंने उस व्यक्ति से अस्पताल के अंदर का एक अन्य दरवाजा खोल देने के लिए भी निवेदन किया ताकि मैं ट्राइसाईकिल अंदर लेकर जा सकूँ। उस व्यक्ति ने बिना कुछ बोले मेरी मदद की और चला गया। मैंने भी मदद करने के लिए उन्हें धन्यवाद किया और आगे बढ़ गयी।

मैंने यही विचार किया कि ज़रूरत पड़ने पर हमें नि:संकोच भाव से किसी की मदद ले लेनी चाहिए। मदद को लेकर ज़्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए क्यूंकि हर व्यक्ति (विकलांग या ग़ैर-विकलांग) को कभी-न-कभी मदद की ज़रूरत पड़ती ही है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि सिर्फ़ विकलांग लोगो को ही मदद की ज़रूरत होती है।

इसी विचार के साथ मैं आगे बढ़ी, मैंने अस्पताल में चारों तरफ नज़र दौड़ा कर देखा कि क्या यहाँ कोई व्हीलचेयर है; लेकिन मुझे कहीं भी कोई व्हीलचेयर नहीं दिखाई दी। वहाँ व्हीलचेयर न दिखने के कारण में थोड़ी चिंतित हो गयी। सोचा कि यदि यहाँ व्हीलचेयर नहीं मिली तो मैं कैसे मैनेज करूँगी? तभी इस विचार को झटकते हुए सोचा कि अस्पताल में व्हीलचेयर न हो, ऐसा थोड़ी न हो सकता है। अत: मैं रिसेप्शन पर गयी और उनसे पूछा कि क्या वे मेरे लिए व्हीलचेयर मंगा देंगी? उन्होने हामी भरते हुए एक स्टाफ मैम्बर से मेरे लिए व्हीलचेयर लाने के लिए बोला। इसी बीच मैंने देखा कि जिस काउंटर पर डॉक्टर से मिलने के लिए पर्ची बनवानी थी, वहाँ एक लम्बी लाइन लगी हुई थी और काउंटर-विंडो भी मेरी हाइट से काफ़ी ऊँची थी, जहाँ तक पहुँच पाना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए मैंने रिसेप्शनिस्ट से दोबारा पूछा कि क्या वह डॉक्टर से मिलने की पर्ची भी बनवा देंगी? जैसे ही उन्होने हाँ बोला, मैंने सुकून की एक गहरी साँस ली और मन-ही-मन विचार किया कि अपनी ज़रूरत और समस्या को किसी के साथ साझा कर लेने से कई बार कितनी आसानी से समाधान मिल जाते हैं।

मैं सोच ही रही थी कि तभी एक स्टाफ-मैम्बर व्हीलचेयर लेकर आ गई। अब मुझे ट्राईसाईकिल से व्हीलचेयर पर शिफ्ट होना था। हालाँकि, मैं घर पर अपनी व्हीलचेयर का हैंड-रेस्ट हटाकर आसानी से व्हीलचेयर से ट्राईसाईकिल पर और ट्राईसाईकिल से व्हीलचेयर पर शिफ्ट हो जाती हूँ; लेकिन यहाँ एक सामान्य व्हीलचेयर थी, जिसका हैंड-रेस्ट नहीं हटता था और यह मेरे लिए साइज़ में बड़ी भी बहुत थी। इसलिए इस पर ख़ुद को शिफ्ट कर पाना थोड़ा मुश्किल था। यह बात रिसेप्शनिस्ट और वह स्टाफ-मैम्बर भी समझ रही थीं। इसलिए उन्होने मुझे मदद का प्रस्ताव दिया; लेकिन मैंने पहले ख़ुद प्रयास करने का सोचा। इसलिए धन्यवाद के साथ उनके (मुझे शिफ्ट कराने के) प्रस्ताव को मना करते हुए ख़ुद से व्हीलचेयर पर शिफ्ट होने की कोशिश की और सफल भी रही। इसी बीच रिसेप्शनिसट ने डॉक्टर से मिलने की पर्ची भी बनवा दी थी।

उनसे पर्ची लेकर जैसे ही आगे जाने के लिए मैंने व्हीलचेयर चलाई तो मैं समझ गयी कि बड़ी व्हीलचेयर होने के कारण मेरे हाथ इसके व्हील्स तक आसानी से नहीं पहुँच रहे थे जिस वजह से मैं व्हीलचेयर को ख़ुद आसानी से नहीं चला सकती थी। मुझे स्टाफ-मैम्बर की मदद की ज़रूरत थी। स्टाफ-मैम्बर अभी वहीं थी और वह व्हीलचेयर पर मुझे आगे ले जाने लगी। वह मुझे लिफ्ट के द्वारा फ़र्स्ट-फ्लोर पर ले गयी और वहाँ मुझे डॉक्टर के रूम के बाहर छोड़कर चली गई।

जब वे जाने लगी तो अचानक एक विचार आया कि यदि अब ज़्यादा दूरी तक व्हीलचेयर चलानी पड़ी तो मैं कैसे चलाऊँगी? तभी तुरंत दूसरा विचार आया कि यदि वे मेरी मदद के लिए यही रुक जाएंगी तो अन्य लोगों की मदद कैसे कर पाएँगी? फ़िलहाल, अभी उनका चले जाना ही बेहतर है। जब मुझे मदद की ज़रूरत होगी तो कोई दूसरा स्टाफ-मैम्बर आ ही जायेगा। इसी विश्वास के साथ मैंने वहाँ अपनी पर्ची जमा कराई और और अपनी बारी आने का इंतज़ार करने लगी। मैं नहीं जानती थी कि मेरा यह विश्वास टूटने वाला है। वहाँ बहुत भीड़ थी, सब अपनी-अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।

अस्पताल जैसी जगह अकेले जाने का यह मेरा पहला अनुभव था। इसलिए मेरे मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह भी कुछ ज़्यादा ही हो रहा था। मैं वहाँ बैठी हुई सबकी नज़रों से नज़र बचाते हुए सबकी नज़रों पर इस विचार के साथ नज़र रख रही थी कि क्या कोई मेरी विकलांगता के कारण मुझे घूर तो नहीं रहा है; लेकिन मुझे यह देखकर बहुत सुकून मिला कि वहाँ कोई भी व्यक्ति मुझे घूर नहीं रहा था। सामान्य तौर पर जिस तरह कुछ पल के लिए लोगों की नज़रें एक-दूसरे पर टिक जाती हैं, ठीक उसी तरह कुछ-एक पल के लिए लोगों की नज़रें मुझ पर भी टिक रही थी जिसको मैं घूरना बिल्कुल भी नहीं कहूँगी।

थोड़ी-थोड़ी देर पर डॉक्टर का केबिन खुलता और उनकी असिस्टेंट पर्ची के अनुसार लोगों का नाम पुकारती। यह सिलसिला लगातार चल रहा था। जैसे ही अब की बार दरवाजा खुला तो मैंने असिस्टेंट से कहा कि व्हीलचेयर बड़ी होने के कारण मैं इसको मूव नहीं कर पा रही हूँ। क्या मेरी मदद के लिए आप किसी स्टाफ-मैम्बर को बुला देंगी? इस पर उन्होने अप्रत्याशित उत्तर देते हुए मना कर दिया और कहा कि अब कोई भी स्टाफ-मैम्बर उपलब्ध नहीं हैं। आप (मैं) यहाँ बैठे लोगों में से किसी से मदद लें लें। उनकी यह बात सुन कर मैं इस विचार से भी चुप हो गयी कि कही वे मुझको यह न कह दें कि मुझे अपनी मदद के लिए अपने साथ किसी परिचित को लाना चाहिए था। क्या सच में मुझे किसी को साथ ले जाना चाहिए था!?

मैं इस विचार में फँस चुकी थी कि तभी मेरा नाम पुकारा गया और मैं इसी उलझन के साथ धीरे-धीरे व्हीलचेयर चलाते हुए डॉक्टर के केबिन में गयी और उन्हें अपनी समस्या बताई। डॉक्टर ने कुछ दवाइयाँ लिखीं और बाहर थोड़ी दूरी पर स्थित फ़ार्मेसी से ले लेने के लिये कह दिया। मैं मुश्किल से व्हीलचेयर चलाते हुए फ़ार्मेसी पर पहुँची और दवाइयाँ खरीद लीं। इसके बाद मैं वापस ग्राउंड-फ्लोर पर जाने के लिए लिफ़्ट खोजने लगी।

चूँकि, मैं लिफ़्ट का रास्ता भूल चुकी थी इसलिए मैंने एक व्यक्ति से लिफ़्ट के बारे में पूछा। वह व्यक्ति देख और समझ रहा था कि मुझे व्हीलचेयर चलाने में परेशानी हो रही है इसलिए उन्होने मेरी मदद करने के लिए पूछते हुए कहा कि क्या वे मुझे लिफ़्ट तक छोड़ दें? मेरे हाँ, कहने पर वे मुझे लिफ़्ट तक लेकर गए। वहाँ जाकर देखा कि लिफ़्ट के बटन मेरी हाइट से बहुत ऊँचे हैं और वहाँ लिफ़्ट को मैनेज करने के लिए कोई गार्ड भी नहीं है। जब पहले स्टाफ-मैम्बर के साथ लिफ्ट से आई तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि लिफ़्ट के पास कोई गार्ड नहीं है। अत: मुझे उन व्यक्ति से आग्रह करना पड़ा कि क्या वे लिफ़्ट से ग्राउंड-फ्लोर तक मेरे साथ चल सकते हैं? उन्होने मेरे आग्रह को मानते हुए मुझे ग्राउंड-फ्लोर पर पहुँचा दिया।

मैंने एक बार फिर नज़र दौड़ा कर देखा कि क्या यहाँ कोई स्टाफ-मैम्बर मौजूद है जो ट्राईसाईकिल तक जाने में और उस पर शिफ्ट होने में मेरी मदद कर सके; लेकिन मुझे कोई भी नहीं दिखा। मैं दोबारा उन व्यक्ति से मेरी मदद करने के लिए नहीं कह सकती थी। मैंने उनका धन्यवाद किया और धीरे-धीरे व्हीलचेयर चलाते हुए ट्राईसाईकिल के पास पहुँच गयी। अब मुझे ट्राईसाईकिल में शिफ्ट होना था। जो व्हीलचेयर में शिफ्ट होने की अपेक्षा अधिक मुश्किल था।

मैं डर रही थी कि अगर शिफ्ट होने के दौरान मैं गिर गई तो वहाँ मौज़ूद सभी लोगों के सामने दया या हँसी की पात्र बन जाऊँगी। ख़ैर यह डर सिर्फ़ मेरे मन तक ही सीमित रहा और मैं ट्राईसाईकिल में सुरक्षित शिफ्ट हो गई। अपनी ट्राइसाइकिल को अस्पताल से बाहर निकालते हुए मैंने एक बार फिर किसी से दोनों रैम्प उतरने में मेरी मदद करने के लिए पूछा और उनकी मदद के लिए धन्यवाद कर मैं वापिस घर की ओर चल पड़ी।

घर आने के बाद भी मैं काफ़ी देर तक इस पूरे घटना-क्रम के बारे में विचार करती रही कि जिन विचारों का चुनाव करके मैं ‘अनुभव के इस सफ़र’ में आगे बढ़ी थी, क्या वे चुनाव सही थे या नहीं? क्या सच में मुझे अपनी मदद के लिए अपने किसी परिचित को साथ ले जाना चाहिए था? इससे कि मुझे बार-बार किसी से भी मेरी मदद करने के लिए आग्रह नहीं करना पड़ता और दूसरों को भी मेरी वजह से कोई असुविधा नहीं होती। यदि हाँ! तो फिर मैं तो किसी-न-किसी परिचित को अपने साथ ले भी जाती ; लेकिन जो लोग बिल्कुल अकेले रहते हैं वे अपनी मदद के लिए अपने साथ किसको लेकर जाएँ? क्या फिर उन्हे अकेले कहीं जाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? मैं इस विचार में फँस चुकी थी और अपने विचारों को सही दिशा नहीं दे पा रही थी।

जब भी हम ऐसी किसी दुविधा में फँस जाते हैं जहाँ सही-गलत का फैसला नहीं कर पाते तो किसी ऐसे व्यक्ति की समझ का सहारा लेते हैं जो एक अलग दृष्टिकोण से बातों को समझें व समझा सकें। मैंने भी ऐसा ही किया और अपना यह अनुभव मेरे मार्गदर्शक ‘ललित सर’ से साझा किया। वे हमेशा बातों को इतने अच्छे से समझाते हैं कि हर उलझन आसानी से सुलझ जाती है।

सर ने इस उलझन को भी सुलझाते हुए समझाया कि किसी का अकेले रहना या किसी के साथ रहना, अकेले कही जाना या किसी को साथ लेकर जाना व्यक्ति विशेष का व्यक्तिगत निर्णय होता है। कोई भी व्यक्ति या संस्था किसी व्यक्ति को (विकलांग या ग़ैर-विकलांग) उसकी किसी स्थिति विशेष (विकलांगता) के कारण किसी अन्य व्यक्ति के साथ रहने या किसी अन्य व्यक्ति को अपने साथ रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।

जब हम किसी भी संस्था, विशेषकर किसी अस्पताल, में जाते हैं तो हमारी सुविधा का पूरा ख़याल रखना उस संस्था का दायित्त्व होता है और यदि वह संस्था अपने इस दायित्त्व के निर्वहन से चूक जाती है तो इस स्थिति में हमारा भी यह दायित्त्व है कि उन्हें याद दिलाए कि उनका हमारे प्रति क्या दायित्त्व है। हमें (विकलांगजन को) सिर्फ़ इस डर से चुप नहीं रह जाना चाहिए कि अन्य लोगों से हमारी स्थिति कुछ अलग है या हमें थोड़े अतिरिक्त सहयोग की ज़रूरत है। संस्था से अपने प्रति पूरी सुविधा पाना हमारा अधिकार है और हमें हमारा अधिकार देना उस संस्था का फ़र्ज़।

जहाँ तक इस अस्पताल की बात है तो यह अस्पताल स्टाफ-मैम्बर व आवश्यक कर्मचारियों (लिफ्ट- गार्ड) की उचित व्यवस्था न कर पाने के कारण अपने कर्तव्य-निर्वहन में ज़रूर चूक गया है और उन्हे उनके दायित्त्व के प्रति सजग करने के अपने फ़र्ज़ से मैं भी कहीं-न-कहीं चूक गयी। रही बात विकलांगजन की मदद करने वाले व्यक्तियों की असुविधा की; तो जो लोग किसी की भी मदद करते हैं, मदद करना उनका निजी फ़ैसला होता है। मदद करने के लिए कोई किसी से आग्रह ज़रूर कर सकता है; लेकिन बाध्य नहीं कर सकता। लोग स्वेच्छा से ही किसी की मदद करते हैं। इसलिए किसी की मदद करने पर किसी को असुविधा होने का सवाल ही नहीं उठता।

अब मैं जान चुकी थी कि विचारों के चुनाव में मुझसे कहाँ चूक हुई थी। जब असिस्टेंट ने मुझसे स्टाफ-मैम्बर्स की अनुपलब्धता में वहाँ मौज़ूद अन्य लोगों से मदद लेने को बोला, तो मुझे उन्हे समझाना चाहिए था कि वहाँ पर मेरी मदद करना अस्पताल के स्टाफ-मैम्बर की ड्यूटी है न कि वहाँ आए अन्य मरीज़ों व उनके सहायकजन की।

मैं समझ चुकी थी कि एक सशक्त व्यक्तित्व का निर्माण और उसमें निखार तभी संभव है जब हम विचारों की कसौटी पर न सिर्फ़ अपने व्यवहार, सोच और दायित्त्व को परखें बल्कि अन्य लोगों के व्यवहार व दायित्त्व का भी आकलन करें और जिस किसी (अपने या किसी अन्य) के भी व्यवहार और दायित्त्व-निर्वहन में कमी मिले उसकी इस कमी को दूर करने प्रयास ज़रूर करें।

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Rashi
Rashi
8 months ago

बहुत अच्छे से आपने अपने विचार व्यक्त करे 👌🙏

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