कॉलम

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पंख लगा लो…जहाँ मन करे उड़ जाना

नूपुर शर्मा अपने कॉलम “खुलते पिंजरे” के इस अंक में व्हीलचेयर पर तय की गई अपनी अभी तक की सबसे लम्बी दूरी के बारे में बता रही हैं।

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वन डे व्हीलचेयर चेलेंज

क्या ख़ुदकुशी करने की चाह करने वाला कोई नॉर्मल व्यक्ति ख़ुदकुशी करने से पहले मेरा ‘वन डे व्हीलचेयर चेलेंज’ लेगा? इस चेलेंज को हारकर ज़िंदगी की बेशकीमती सौगात जीती जा सकती है।

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समझिए नहीं; हमें स्वीकार कीजिए

प्रदीप सिंह अपने कॉलम “ख़ुद से बातें” में बता रहे हैं कि विकलांगजन को समझने की अपेक्षा समाज द्वारा उन्हें स्वीकार करने पर अधिक ज़ोर देना चाहिये।

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अब मैंने पर खोल लिए हैं

नुपुर शर्मा विकलांगता डॉट कॉम पर “खुलते पिंजरे” शीर्षक से अपना कॉलम आरम्भ कर रही हैं। कॉलम के अपने पहले लेख में वे सम्यक ललित द्वारा रचित “अब मैंने पर खोल लिये हैं” कविता पर चर्चा कर रही हैं।

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सोशल मीडिया पर विकलांगजन एकजुट नहीं हैं…

आज के सोशल मीडिया के दौर में यह स्पष्ट है कि यदि विकलांगजन इस माध्यम पर एकजुट नहीं होंगे तो हम अपने अधिकारों की लड़ाई कभी नहीं जीत पाएँगे। सम्यक ललित का राही मनवा कॉलम

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यदि हम कायदे में नहीं रहेंगे तो फ़ायदे में भी नहीं रहेंगे

सम्यक ललित अपने साप्ताहिक कॉलम “राही मनवा” में बता रहे अपनी हाल की हवाई यात्रा के दौरान हुए कुछ अनुभवों के बारे में।

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चलो कुछ ज़िम्मेदारियों की बात करते हैं

सामान्यजन यदि कुछ छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखें तो विकलांगजन के लिये जीवन आसान हो सकता है। आलोकिता इन्हीं में से कुछ महत्त्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाल रही हैं।

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क्या ओला / उबर के ड्राइवर विकलांगजन की विशेष आवश्यकताओं के लिये प्रशिक्षित हैं?

ओला और उबर टैक्सी ड्राइवरों का विकलांगजन के साथ व्यवहार कैसा है? क्या वे विकलांगजन की विशेष-आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये प्रशिक्षित है? सम्यक ललित का कॉलम राही मनवा…

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विकलांगता क्या है?

प्रदीप सिंह बता रहे हैं कि वास्तव में विकलांगता क्या है। प्रदीप कहते हैं कि “कहीं हम हमारे विकृत अंगों से उनके स्वीकृत लोक में खलबली न मचा दें। उनका यही डर इस विश्व में सबसे बड़ी विकलांगता है।”

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हमने सुना है… तुमने जीवन साथी चुना है!

आलोकिता बता रही हैं कि विकलांगजन को भी विवाह जैसे निजी मसले में अपना निर्णय स्वयं लेने की आज़ादी होनी चाहिये और अन्य लोगों को उनके निर्णय के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि नहीं रखनी चाहिये।

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समाज को फूल तो पसंद हैं लेकिन तभी जब कोई और खिला कर दे दे

राही मनवा 04: लोगों द्वारा ख़ुद तय की गई अपनी संकीर्ण-सीमाओं के कारण ही हम एक प्यासे समाज में रह रहे हैं — यहाँ हर कोई किसी-न-किसी रूप में प्यासा है क्योंकि हम अपनी संकीर्ण सीमा से बाहर निकल कर रेगिस्तान में कुएँ खोदने कोशिश नहीं करते…

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क्या चलने का नाम ही ज़िन्दगी है?

आलोकिता बता रही हैं कि चलना बेशक मानव जाति के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण क्रिया है लेकिन यह एक क्रिया आपकी पूरी ज़िन्दगी से बड़ी नहीं है। आगे बढ़ते रहना ज़रूरी है लेकिन चलना ही ज़िन्दगी नहीं है।

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किसी का उपहास न करें, किसी को कमतर न अनुभव कराएँ

राही मनवा 04: कल फ़ेसबुक पर मित्र संजय कुमार वैद्य ने मुझसे पूछा कि मैं ‘दिव्यांग’ शब्द को लेकर क्या सोचता हूँ। मुझसे यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है और मैंने विभिन्न मंचों से अपना जवाब बताया भी है। आज सोचा कि संजय भाई के प्रश्न का उत्तर फ़ेसबुक पर न देकर ‘राही मनवा’ के ज़रिये दिया जाए ताकि यह बात अधिक लोगों तक पहुँचे।