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पटाखों का शोर और सेरेब्रल पाल्सी से प्रभावित लोग

प्रकाश का पर्व दीपावली नजदीक है। बहुत चमक-दमक होती है इस त्योहार पर। समय और पैसे ने इसकी रौनक और भी बढ़ा दी है। मज़ाक में कहा भी जाता है – अमीरों की दिवाली, गरीबों का दिवाला। मज़ाक की बात अलग है लेकिन हर कोई इस त्योहार को अपने अंदाज और अपनी जेब के हिसाब से मनाता है। खुद की बात करूँ तो मैंने यह त्योहार कभी भी मजे से नहीं मनाया। कारण पटाखों की आवाज़। धमाके की आवाज़ परेशानी का सबब रही है बचपन से। आम दिनों में भी अचानक हुई कोई आवाज़ चौंका जाती है तो दीवाली के दिनों में होने वाली पटाख़ों की आवाज़ों से क्या हाल होता है मेरा कोई नहीं समझ सकता। इन धमाकों और अचानक होती आवाज़ों से डर या चौंकने का सम्बंध सेरेब्रल पॉलसी से है। बहुत से नॉर्मल लोग भी धमाकों की आवाज़ से घबराते या चौंकते हैं। मगर वे स्वयं को संयत कर लेते हैं। मेरे साथ ऐसा नहीं होता। हर बार जब पटाख़ा बजता है हिल जाता हूँ। संयत हो पाऊँ कि उससे पहले अगला पटाख़ा बज जाता है। डर का तो इसे नाम दिया गया है वैसे हर तेज़ और अचानक हुई आवाज़ से शरीर में जोरदार झटका लगता है। इससे बदन अकड़ सा जाता है। नसें खिंच-सी जाती हैं। ऐसा दीपावली पर पटाख़े बजने पर ज्यादा होता है। जैसे पटाखों के धमाके या अचानक हुई तेज़ आवाज़ शरीर को झटका लगने का ट्रिगर हो। अब हर किसी को तो पटाख़े बजाने से मना किया नहीं जाता। त्योहार है साल बाद आता है।

विरोध नहीं; बस एक सवाल है कि दीपावली प्रकाशोत्सव है या शोरोत्सव?

थोड़ा और समझने का प्रयास करें तो हम देखते हैं कि दीपावली पर्व भगवान राम के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाते हैं। जब वे चौदह वर्ष का वनवास पूरा कर और रावण का वध कर सीता माता और भाई लक्ष्मण जी सहित अयोध्या लौटे थे। तब दीपमालाएं की गई। तरह तरह के पकवान, मिठाई आदि बनाए गए। प्रजा ने नाच-गा कर अपने राजा, अपने भगवान राम का भव्य स्वागत किया। पटाखे बजा कर किसी कमजोर दिल को परेशान करते हुए और प्राण वायु को प्रदूषित करते हुए अपना स्वागत तो शायद श्री राम को भी पसंद नहीं आता। वैसे भी बारूद तो बाबर लाया था। उसी बारूद के बल पर उसने इब्राहिम लोदी को परास्त कर हिंदुस्तान फतह किया था। उससे पहले तो हम हिंदुस्तानी युद्ध तीरों, भालों और तलवारों से लड़ते थे। बारूद हमारे लिए नया था तो हमारा हारना तय था।

पिछले 14-15 सालों में खुद में इतना बदलाव तो ला सका हूँ कि दिवाली पर कानों में रुई डालकर घर में दुबके रहने वाला मैं अब जब पटाखों की आवाज़ चरम पर होती है उस समय भी खुद को जज़्ब कर बाहर बैठ जाया करता हूँ। दिवाली देखना मैंने इन सालों में ही शुरू किया। अपनों के साथ समय भी जल्दी निकल जाता है। जो मुझे बचपन से जानते हैं वे हैरत से देखते हैं कि कैसे पटाखों की इतनी आवाज़ों में मैं हँसते हुए बैठा हूँ। वरना कोई दिवाली ऐसी नहीं बीतती थी जब मैं डर के कारण रोता नहीं था। दीपावली के 15-20 दिन बहुत कठिन होते हैं मेरे लिए अब भी। कोविड के बाद से तो प्रदूषण भी परेशान करने लगा है। धुँए से एलर्जी हो गई है।

पिछले कुछ सालों में जिसने भी पटाख़ों के विरोध में कुछ भी कहा है सोशल-मीडिया पर उसे बुरी तरह ट्रोल किया गया है। इतना समझ नहीं आता कि पटाख़ों से हिंदू धर्म या संस्कृति से क्या लेना-देना जबकि देश में बारूद बाबर लेकर आया था हिंदुस्तान में। चीन का अविष्कार बारूद मुगलों के साथ भारत आया उससे बने पटाखे हिंदू संस्कृति का हिस्सा कैसे हो गए? कितना हास्यास्पद है कि हम चीन में बनी चीजों का बहिष्कार करने की बात करते हैं और उसके आविष्कार को हमारी संस्कृति का हिस्सा समझते हैं।

सभी परेशानियों और जलते सवालों को एक तरफ रखते हुए सभी को ‘दिवाली की अनेकानेक शुभकामनाएं’।

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Amrit kaur
Amrit kaur
6 months ago

Bahut acha aur Sacha lekh likha hai

Prof.D.S.Hernwal
Prof.D.S.Hernwal
6 months ago

I agree with your words.We must think upon this, it’s not only make every one to face environmental issues and health hazard but also create a big discrimination among rich and poor.

Manjit singh
Manjit singh
6 months ago

Wonderful thought beautiful

Prashant Rao
Prashant Rao
6 months ago

आपके विचार बिलकुल सही और तार्किक हैं। शोर और प्रदूषण की बात तो है ही इसके साथ ही साथ कितने लोग आग जनित दुर्घटनाओं का शिकार होते है। न जाने कितने पशु पक्षियों को हानि होती है और तो और पटाखों के उद्योग में हर साल कितने लोग मर जाते है।

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