मेरे मन ये बता दे तू किस ओर चला है तू…? क्या पाया नहीं तूने क्या ढूँढ रहा है तू…?
आपको पता चल ही गया होगा कि इस आलेख का शीर्षक फ़िल्म ‘कभी अलविदा न कहना’ के एक गीत के कुछ बोलों पर आधारित है। आप सभी को यह गीत याद ही होगा और पसंद भी होगा। मुझे भी है, विशेषकर गीत की प्रारम्भिक पंक्तियाँ “मेरे मन ये बता दे तू, किस ओर चला है तू…? क्या पाया नहीं तूने, क्या ढूँढ रहा है तू…? जो है अनकही, जो है अनसुनी वो बात क्या है… बता? मितवा–कहे धड़कने तुझसे क्या…? ख़ुद से तो न तू छुपा” इन पंक्तियों से मुझे कुछ विशेष जुड़ाव महसूस होता है। ऐसा लगता है कि मानों ये पंक्तियाँ हमें अपने-आप से संवाद करने, अपने मन में झाँकने और मन को खँगालने के लिए प्रेरित करती हैं।
हम सभी बाहरी तौर पर बहुत शांत और व्यवस्थित दिखाई देते हैं। हैं न? लेकिन अधिकांश लोग भीतर से बहुत अशांत और अव्यवस्थित हैं। इन लोगों के अंदर भावनाओं, इच्छाओं, विचारों आदि का एक तूफ़ान-सा उठता रहता है और इस तूफ़ान में ये तिनके के समान दिशाहीन-से यहाँ से वहाँ बहते रहते हैं। मन बहुत बेचैन होता है लेकिन बेचैनी का कारण नहीं जान पाते। इन अधिकांश लोगों में ‘मैं’ भी हो सकती हूँ और ‘आप’ भी। क्यों, मैं सच बोल रही हूँ न…? ऐसा क्यों होता है…? यह भटकाव क्यों है…? मन में असंख्य विचार होते हुए भी एक खालीपन क्यों है…? मुझे लगता है कि गीत की उपरोक्त पंक्तियाँ हमें इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने, ख़ुद से ख़ुद का साक्षात्कार करने और वास्तविकता में हम क्या हैं और क्या बनना चाहते हैं – इस विषय में जानने, समझने का अवसर देती हैं। जहाँ तक मैं समझ पाती हूँ जीवन में किसी लक्ष्य के होने या न होने पर उस तक जाने वाली सही दिशा का चुनाव न कर पाने और एक अर्थविहीन जीवन, व्यक्ति के लिए भटकाव और खालीपन जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का अहम कारण हो सकता है।
विकलांग और गैर-विकलांग दोनों ही ऐसी परिस्थितियों से जूझते हैं; लेकिन विकलांगजन के लिए ये परिस्थितियाँ अधिक गंभीर रूप ले लेती हैं। क्योंकि अधिकांश विकलांगजन ऐसे परिवेश में पले-बढ़े होते हैं जहाँ पर उन्हें ज़िन्दगी जीने के बुनियादी संसाधन (रोटी, कपड़ा, मकान और हाँ! प्रारम्भिक शिक्षा) तो उपलब्ध हो जाते हैं; लेकिन “ज़िन्दगी को सही मायने” अर्थात “जीवन-लक्ष्य” और “सार्थकता” देने वाले संसाधन (विभिन्न प्रकार के कौशल सीखने और अपनी प्रतिभा को निखारने के अवसर तथा समय रहते उचित मार्गदर्शन आदि) नहीं मिल पाते। इसी कारण अधिकांश विकलांगजन अपने व्यक्तित्व को नहीं निखार पाते और अपने जीवन में एक खालीपन का अनुभव करते हैं। नतीजतन ऐसी परिस्थितियाँ इनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव ही डालती हैं।
कुछ विकलांगजन ऐसे भी होते हैं जो प्रतिभावान होते हुए भी ख़ुद को बुनियादी ज़रूरतों की प्राप्ति तक ही सीमित कर लेते हैं। ये न तो स्वयं और न ही अन्य लोग इनकी प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारने का प्रयास करते हैं। इनकी जीवन से कुछ विशेष आशाएँ-अभिलाषाएँ भी नहीं रह जाती। ऐसे विकलांगजन पूरी दुनिया को एक कूप के मेंढक की भाँति अपने परिवेश तक ही सीमित कर लेते हैं; लेकिन हाँ! इनके मन में एक असंतोष जरूर रह जाता है जिसके मूल कारण को ये समझ नहीं पाते।
वहीं दूसरी ओर बहुत-से विकलांगजन बुनियादी ज़रूरतों से ऊपर उठकर जीवन में एक मुक़ाम पाना चाहते हैं और समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहते हैं। जिसके लिए ये अपने स्तर पर प्रयास भी करते हैं; लेकिन उचित संसाधनों के अभाव और समय रहते उचित मार्गदर्शन न मिल पाने के कारण ऐसे विकलांगजन दिशाहीन भटकते रहते हैं और इन्हें अपने दिशाहीन प्रयासों के कोई उचित परिणाम नहीं मिल पाते। इस वर्ग के विकलांगजन भी जीवन में कुछ विशेष अर्जित करने से चूक जाते हैं। जबकि अपने जीवन से इनकी विशेष अपेक्षाएँ होती हैं। अपनी अपेक्षाओं को पूरा न कर पाने के कारण ये विकलांगजन धीरे-धीरे हताशा-निराशा और अवसाद आदि का शिकार हो जाते हैं और ख़ुद को पूर्णरूपेण अयोग्य मान बैठते हैं।
इस प्रकार की परिस्थितियाँ या मनःस्थिति किसी भी व्यक्ति (विकलांग/गैर-विकलांग) के लिए नुकसानदेह हैं। ये न सिर्फ़ व्यक्ति के शारीरिक/मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं बल्कि उनके विकास के मार्ग में भी अवरोध उत्पन्न करती हैं। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि विकलांग या गैर-विकलांग व्यक्ति शांत और निष्पक्ष चित्त से अपनी क्षमताओं/योग्यताओं, कमज़ोरियों/रुकावटों, अवसरों, सफलता के मार्ग की बाधाओं को पहचान कर उन्हीं के अनुरूप अपने लिए उचित लक्ष्य निर्धारित करें। अंग्रेजी में इसे “SWOT Analysis” कहते है। इसके बाद बिना किसी जल्दबाज़ी के धीरे-धीरे ही सही लेकिन निरंतरता के साथ अपने लक्ष्य प्राप्ति लिए प्रयास करना चाहिए। क्योंकि चाहे बात कोई कौशल सीखने की हो या कोई लक्ष्य अर्जित करने की हर क्षेत्र में एक निश्चित समय लगता ही है। ज़रूरी है तो बस निरंतर प्रयास करते रहने की। किसी भी क्षेत्र में जल्दबाज़ी करने से उचित परिणाम नहीं मिल पाते।
अधिकांश विकलांगजन में इस तरह की जल्दबाज़ी या अधीरता देखने को मिल जाती है। इसका अहम कारण यह हो सकता है कि जब तक विकलांगजन को कोई कौशल विशेष सीखने,अपनी प्रतिभा निखारने और आगे बढ़ने के सही अवसर मिल पाते हैं तब तक उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा बीत चुका होता है। साथ ही बढ़ती उम्र में विकलांगता के कारण उत्पन्न अन्य शारीरिक समस्याएँ उन्हें निरंतर कमज़ोर कर उनके लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में बाधा बन रही होती हैं। इसीलिए विकलांगजन में किसी क्षेत्र विशेष में सफलता को लेकर जल्दबाज़ी देखने को मिल जाती है।
मैं यहाँ ख़ुद से और अन्य विकलांगजन से बस इतना ही कहूँगी कि जीवन में कुछ न कर पाने और असफल रह जाने की शंकाओं पर ध्यान केन्द्रित करने की बजाय अच्छा होगा कि हम अपनी क्षमताओं और योग्यताओं को बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित करें। धैर्य के साथ निरंतर प्रयास करते हुए आगे बढ़ते रहें। आज नहीं तो कल सफलता मिल ही जाएगी।
हमारे सामने सुधा चन्द्रन, अरुणिमा सिन्हा, ‘सम्यक ललित’ ललित कुमार, अभिषेक बच्चन, इरा सिंघल, निक विजुकिक, रवीन्द्र जैन, हेलेन केलर, स्टीवन हाकिन्स आदि अनेक ऐसी शख्सियतें हैं जिन्होने विकलांगता और इससे जुड़ी तमाम बाधाओं से जूझते हुए अपने–अपने क्षेत्र में विलक्षण सफलताएँ अर्जित की हैं। यक़ीनन इन सभी का मूल मंत्र- पूर्ण सकारात्मकता,ध्यान-केंद्रियता और निरंतर प्रयास करते रहना ही रहा होगा। चलिए तो फिर हम भी इसी मूल-मंत्र को आत्मसात कर नए कौशल सीखें और अपनी प्रतिभा को निखारें। फ़िल्म ‘थ्री ईडियट’ का एक मशहूर डायलॉग भी है न… ‘काबिल बनो.. कामयाबी झक मारकर पीछे आएगी।‘ हमें सफलता की चिंता नहीं करनी बल्कि अपनी क्षमता पहचान कर योग्य बनने की कोशिश करनी है।
धन्यवाद नूपुर जी आपने काफी अच्छा लिखा है