विकलांगता क्या है? किसी की शारीरिक अथवा मानसिक स्थिति? अगर किसी की मानसिक या शारीरिक अवस्था को विकलांगता कहा जाए तो आधा विश्व विकलांग नज़र आएगा। ख़ासकर इस तनावपूर्ण समय में जब ज़िन्दगी की दौड़-धूप में लगे व्यक्ति को कब कौन-सा अवसाद घेर लेता है यह स्वयं व्यक्ति भी नहीं समझ पाता। हम जिन छोटे शहरों में रहते हैं यहाँ तो शुगर (डायबिटीज) को भी विकलांगता कहा जाने लगा है क्योंकि ये कब मरीज के कौन से अंग को कितना प्रभावित कर जाएगी यह तो चिकित्सक भी नहीं बता सकते। उपरोक्त सभी बातें समझते हुए कहा जा सकता है कि विकलांगता केवल सोच या समझ का फर्क है। मगर फिर मैं ख़ुद को देखता हूँ ठीक वैसे ही जैसे मोर नाचते हुए अपने पैरों को देख लेता है। मैं भी तो पसीना पोंछने जैसे छोटे-से कार्य के लिए भी माँ पर निर्भर हूँ। मैं सही मायने में विकलांग शब्द पर खरा उतरता हूँ। मगर मैं ख्यालों में अपने लिए कभी किसी व्हीलचेयर या उस जैसे किसी साधन का उपयोग नहीं करता। मैं डांस करता हूँ गानों पर – हीरो की तरह! मेरे बोलने की कमी मेरे कॉन्सर्टस में बजती तालियाँ पूरा करती हैं। मैं बेहतरीन बाउंड्री फील्डर हूँ! मैं चौके ही नहीं बहुत बार छक्के के लिए जाती गेंद भी पकड़ लिया करता हूँ। मैं सभी खेल खेल सकता हूँ। मैं डिफेंडर से लेकर अटैकर भी हूँ और एक साधारण से शॉट पर बीट हुआ गोलकीपर भी। मैं हारता भी हूँ जीतता भी हूँ।
मैं ख़ुद को एक नॉर्मल व्यक्ति की तरह महसूस करता हूँ। जिसकी सीमाएँ कुछ ज्यादा संकीर्ण हैं। जानवरों के लिये जैसे बाड़ा बना कर उनकी हद निश्चित कर दी जाती है उसी तरह ईश्वर-रूपी चरवाहे ने मेरा बाड़ा निश्चित किया है बस। और मुझे अजीब तरह से घूरती नज़रें उन शरारती बच्चों-सी जान पड़ती हैं जो बाड़े में बंद निरीह पशु को भी परेशान करते हैं। बाड़े में बंद जानवर भी एक हद के बाद परेशान करने वाले बालकों की आवाज़ पर ध्यान नहीं देता। वैसे ही एक मुस्कुराहट को ढाल बना मैंने भी इन अजीबियत भरी नजरों को नजरअंदाज करने की कोशिश की है और मुझे यह कोशिश हर दिन करनी पड़ेगी जब-जब मैं बाहर निकलूँगा। मैं हार नहीं सकता बिल्कुल भी नहीं। उन अजीब ढंग से घूरती निगाहों को जब तक तहज़ीब न सिखा दूँ और अपनी मुस्कान का जवाब मुस्कान से न ले लूँ — मैं हार नहीं सकता। हम को और ज़्यादा कमजोर बनाने के लिए ही वे निगाहें हमें इस तरह घूरती हैं। शायद उन्हें डर लगता है कि कहीं हम हमारे विकृत अंगों से उनके स्वीकृत लोक में खलबली न मचा दें। उनका यही डर इस विश्व में सबसे बड़ी विकलांगता है।
कितना बड़ा सच लिखा प्रदीप जी ने। बिल्कुल ऐसा ही है।
एक बात और…मैं भी बहुत बार ऐसे स्टेज पर गाना गा चुकी हूँ/गाती हूँ। 🥰
Excellent views about special abled person, along with comments about the person who are mentally disabled
प्रदीप सिंह ने सटीक शब्दों में विकलांगता को अपने अनुभव से बताया है। एक साहित्यकार के रूप में प्रदीप सिंह ने स्वयं को ढाल कर परिवार का सम्मान बढ़ाया है। उनका उत्साह और ऊर्जा दोनो ही प्रेरणा दायक है। किस तरह प्रदीप ने अपनी संकीर्ण सीमाओं को अपने दिल और दिमाग से विस्तार दिया वो उनके परिस्थिति से लड़ने और कुछ साबित करने की दृढ़ संकल्प का परिचायक है।
समाज और सरकार दोनो के नज़रिए में
एक सकारात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है । जिसमें विकलांगता को कुदरत की एक रचना मात्र मान कर उस व्यक्ति के साथ एक नॉर्मल व्यवहार हो करना चाहिए। नज़रिए में परिवर्तन ही विकलांगता को नॉर्मल का दर्ज़ा देगी,
जिसकी पहली दहलीज़ परिवार है।
प्रदीप सिंह ने लेख में जो भी कहा है उसे वे स्वयं जीते हैं जो उनसे मिलकर मुझे स्पष्ट दिखा।
बहुत सुंदर आलेख
Truly an inspiration