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विकलांगता: मन है परेशान, क्या है समाधान?

विकलांगता में व्यक्ति को अनेक प्रकार की चुनौतियों और समस्याओं का सामना करना पड़ता है, इस कारण से मन में निराशा, हताशा आदि के भाव आना स्वाभाविक होता है। आस-पास वालों का व्यवहार और सुविधाओं का अभाव आग में घी का काम करता है और व्यक्ति कई बार जैसे निराशा के सागर में ही डूब जाता है।

कोई भी ऐसा फ़ॉर्म्युला नहीं होता जो सब पर लागू हो जाए और सबकी निराशा, हताशा छूमंतर हो जाए। हमारे पास कोई ऐसी जादू की छड़ी भी नहीं है जिसे घुमाया जाए और हमारे आस-पास वालों का दिमाग बदल जाए, सुविधाएँ बढ़ जाएँ और जीवन सुगम हो जाए। तो क्या कोई समाधान है या हम ऐसे ही निराशा, हताशा के सागर में हिचकोले खाते रहें और जीवन को बस जैसे-तैसे जीते रहें?

यह सच है कि कोई फ़ॉर्म्युला नहीं है जो सब पर लागू हो, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि हर कोई अपने जीवन में ऐसा कुछ न कुछ अनूठा फ़ॉर्म्युला बना सकता है जो उसकी निराशा से बाहर आने में मदद करे। विश्वप्रसिद्ध मनोचिकित्सक विक्टर फ़्रेंकल अपनी विख्यात किताब ‘मैन्स सर्च फ़ॉर मीनिंग’ में बताते हैं कि किस तरह नाज़ी कैम्प में यातनाओं, कष्ट, बीमारी और मौत के बीच भी उन्होंने ऐसा तरीका खोज जिससे उनका मानसिक संतुलन बना रहे और वह अपनी मानवीयता न खो दें। यह बात हम सबको प्रेरित करती है कि हम अपने जीवन में वह तरीका खोजें जिससे हमारी मानसिक स्थिति संभले और हम निराशा के सागर से बाहर निकलें।

आइए, कुछ ऐसे व्यवहारिक तरीकों पर चर्चा करते हैं जिससे हमें अपने मन में सकारात्मकता लाने में मदद मिलती है और हम हम अपना वह यूनिक फ़ॉर्म्युला भी खोज सकते हैं जो हमारे जीवन और उसके हालात पर लागू होता हो और हमको आगे बढ़ने, निराशा से उबरने और जीवन में रचनात्मकता लाने में मदद भी करे।

जीवन को समग्रता में या होलिस्टिक तरीके से देखना शुरू करें

हम न हर समय खुश रह सकते, न हर समय दुखी, जीवन में अनेक भाव हैं और सभी मिलकर हमारे जीवन को संपूर्णता प्रदान करते हैं। खुशी, उत्साह, उमंग जिस तरह से हमारे जीवन को पूर्णता देते वैसे ही निराशा, हताशा, दुख, चिंता भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हमारे मस्तिष्क ने हजारों साल के विकास के दौरान ये सभी भाव विकसित किए हैं और एक भरपूर जीवन जीने के लिए सभी भाव जरूरी हैं। यदि हम हमेशा यह सोचते रहें कि खास किस्म के भाव अच्छे हैं और दूसरे किस्म के भाव बुरे और वे हमारे जीवन में कभी न आएं तो फिर जीवन को ठीक से जीना असंभव हो जाएगा। सारे भाव मिल-जुलकर कर हमारे जीवन को जीने लायक बनाते और सभी का बराबर महत्व है। समस्या तब आती जब हम किसी एक ही भाव में फँस कर रह जाते और उससे बाहर नहीं निकल पाते।

कुछ-न-कुछ रचनात्मक करें

हमारी कुछ भी परिस्थिति हो हमें कुछ-न-कुछ रचनात्मक ज़रूर करना चाहिए। हमारी जिस भी चीज में दिलचस्पी हो उसी के अनुरूप हम कुछ भी सृजनात्मक कर सकते हैं फिर चाहे कविता लिखना हो या डायरी लिखना, इकेबाना सीखना हो या ओरिगेमी, गीत गुनगुनाना हो या कोई वाद्य यंत्र बजाना। जो कुछ भी हमारे लिए संभव हो वही करें, पता लगाएँ कि ऐसा क्या रचनात्मक काम है जो मैं कर सकता हूँ और फिर उसमें जुट जाएँ। लोग पसंद करेंगे, नहीं करेंगे, वाहवाही मिलेगी या आलोचना, वह सब भूल जाएँ, बस उस काम का आनंद लें। जब हम कुछ रचनात्मक कर रहे होते हैं तो मन धीरे-धीरे अपने-आप ही निराशा से बाहर आने लगता है।

दूसरों की मदद करें

यह बात सुनने में अजीब लग सकती है कि जो ख़ुद दूसरों पर निर्भर हो वह किसी की क्या मदद करेगा, लेकिन अधिकांश मामलों में भले ही हम ख़ुद चुनौतियों का सामना कर रहे हों, दूसरों पर निर्भर हों फिर भी कुछ-न-कुछ दूसरों के लिए कर सकते हैं। बिना किसी दिखावे, अहंकार या लालच के दूसरों की मदद करना एक बेहतरीन एंटी-डेप्रेसेंट है, मन की हीलिंग के लिए एक कारगर उपचार। बस यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह काम समझ के साथ किया जाए और दूसरों की मदद के नाम पर अपने लिए मुसीबत न बुलायी जाए।

संतुलित भोजन करें

संतुलित भोजन हमारे स्वास्थ्य के लिए तो ज़रूरी है ही, हमारे मन को ठीक रखने में भी मदद करता है। सही भोजन हमारे मस्तिष्क को पोषण देता है और वह ठीक से काम कर पाता है। प्री-बायोटिक से भरपूर भोजन हमारे पेट में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवियों (जिसे माइक्रोबायोटा भी कहते हैं) की संख्या को संतुलित करता है और शोधों से यह बात सामने आ रही हैं कि उससे भी हमें अपने मन को ठीक रखने में मदद मिलती है। यदि शरीर में किसी विटामिन या मिनरल की कमी हो जाए तो उसका भी मन पर प्रभाव पड़ता है, जैसे विटामिन डी, विटामिन बी12 या आयरन आदि की कमी। इसलिए इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि आपके शरीर में किसी चीज की कमी न हो। यदि किसी भी चीज की कमी हो जाए तो विशेषज्ञ की सलाह से सप्लिमेंट का सेवन करें, इससे भी हमें निराशा, हताशा आदि से बचने में मदद मिलती है।

प्रकृति से जुड़ें

हम हज़ारों साल से प्रकृति में ही रहते आए हैं। लेकिन महानगरीय जीवन और विकलांगता की समस्याओं के कारण प्रकृति से जुड़ना कठिन हो जाता है। इसलिए जितना भी संभव हो हम प्रकृति से जुड़ने की कोशिश करें। हवा का अच्छा आवागमन, प्राकृतिक रोशनी, धूप, पेड़-पौधे, प्राकृतिक रूप से रहते जीव-जंतु, जितना संभव हो इनसे जुड़ने की कोशिश करें। यदि रोज किसी पार्क जाना न हो सके तो कुछ गमले लगा लीजिए, उनमें पौधों की देखभाल कीजिए। ताजी हवा आने दें, रोज थोड़ी देर धूप लें, आसमान को निहारें, परिंदों को देखें, इस तरह के उपाय छोटे होते लेकिन उनका सकारात्मक प्रभाव बहुत होता।

भावनाओं को समझें, उनसे भागें नहीं

हम दिन भर अनेक तरह के भावों से गुजरते हैं। यदि भाव सुखद होता है तो हम उसमें ज्यादा से ज्यादा समय रहना चाहते हैं और यदि भाव दुखद होता है तो जल्दी से जल्दी उससे भागना चाहते हैं। इस हड़बड़ाहट में हमारा अपने भावों के साथ एक रिश्ता कायम नहीं हो पाता है, हम उनको ठीक से समझ नहीं पाते। इसके लिए हमको खुद के साथ रेपो बनाना होगा, अपने भीतर उतरना होगा और अपने भावों को गहराई से महसूस करते हुए उन्हें समझना होगा। निराशा हो, खीझ हो, चिढ़ हो या उदासी, उसके साथ ठहरें, उसका पूरी तरह से अहसास करें, उसके भीतर उतरें। धीरे-धीरे हमारा अपने भीतरी जगत से परिचय बढ़ता जाएगा, और जैसे-जैसे यह परिचय बढ़ेगा हम अपने भावों के साथ सहज होते जाएंगे।

लोगों से जुड़ें

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और संवाद करना, अपने को किसी के सामने अभिव्यक्त करना उसकी मूल आवश्यकता है। इसलिए लोगों से जुड़ना कभी न छोड़ें। हो सकता है शुरू में कुछ ही लोग हों जिनसे आप संपर्क कर पाएँ, लेकिन जैसे-जैसे आपकी सोशल स्किल बढ़ती जाएँगी, आप अच्छे वक्ता के साथ-साथ अच्छे श्रोता भी होते जाएँगे, लोग आपके संपर्क में आते जाएँगे और हो सकता है कुछ समय बाद आपको लगे कि अपने जीवन में निराशा को दूर करने के साथ आप दूसरों के जीवन से निराशा दूर करने में भी मदद कर सकते हैं।

यदि इस तरह के प्रयासों से भी सफलता नहीं मिले और नकारात्मक विचार आप पर हावी हो जाएँ तो किसी प्रशिक्षित सलाहकार से मदद लेने में न हिचकिचाएँ।

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Vijendra
Vijendra
11 months ago

बहुत सुंदर।शुक्रिया दादा।

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