जो सह सकते हैं उन्हें ही तकलीफ मिलती है और शायद इसलिए उस नीति निर्धारक द्वारा हमें हमारी विकलांगता के साथ उन्हें सौंपा जाता है जो हमारी विकलांगता के बावजूद हमें बड़े ही प्यार और स्नेह के साथ अपना व संभाल सकें। बात परिवार की है। सबकी आर्थिक और मानसिक स्थिति का अंदाज़ा लगाना तो शायद उस सर्वशक्तिमान के लिए भी संभव नहीं। तभी कुछ परिवारों में हालात ऐसे भी बन जाते हैं कि जैसे ही उन्हें हमारी अक्षमता का पता चलता है वे हमें ख़ुद से अलग करने के तरीके खोजने लगते हैं। हमारी कॉलोनी के बिल्कुल बाहर एक ‘डेफ एँड डम स्कूल’ स्थित है जिस में हॉस्टल भी है। आम भाषा में इस स्कूल को गूँगे-बहरों का स्कूल कहा जाता है। यह स्कूल एक ऐसा ही उदाहरण है। वहाँ ऐसे बहुत से बच्चे हैं जिन्हें दाखिल कराने आए अभिभावक फिर कभी लौट कर नहीं आते। न फिर कभी अपने बच्चों की ख़बर लेते हैं। जब छुट्टियों में या त्योहारों पर अन्य बच्चों की तरह घर भेजने के लिए उनके अभिभावकों द्वारा दिए गए नम्बरों पर फ़ोन किया जाता है तो नम्बर ग़लत निकलते हैं। लिखवाने वाले ने नम्बर और पता ग़लत लिखाया होता है या बाद में बदल लिया होता है। मंशा ही छुटकारा पाने की हो तो नम्बर सही क्यों लिखा जाएगा? यह स्कूल पहले 9वीं तक ही था जिसे 2021 में सरकार द्वारा 12वीं तक कर दिया गया। उससे पहले और अब भी उन परिवार वाले अनाथों को आगे पढ़ने या इम्तिहान देने भेजने के लिए किसी स्कूल कर्मचारी को ही उनका अभिभावक बन कर उन्हें आगे भेजना पड़ता है। अब हर कोई तो इतना उदार नहीं बन सकता। शायद इसलिए उनमें से बहुत से लड़के-लड़कियाँ यहीं से और इतनी ही शिक्षा के साथ समाज में अपना स्थान खोजने चल पड़ते हैं। वे ऐसा कर पाते हैं कि नहीं पता नहीं। कर पाते हैं तो बहुत अच्छी बात है।
ऐसा केवल इस स्कूल के साथ नहीं बल्कि हर उस सरकारी और ग़ैर-सरकारी संस्था के साथ है जहाँ विकलांग लोगों की रहने-खाने की व्यवस्था है। वहाँ वे मजबूर परिवार बड़े इत्मीनान से अपना बोझ उतार कर चल देते हैं। राह तकती निगाहों में सदैव का इंतज़ार छोड़कर। ये संस्थाएँ उनकी भी शरण स्थली हैं जो विकलांगजन किसी ट्रेन या बस में लावारिस मिलते हैं। कोई मजबूरी ही इंसान से ऐसा काम कराती होगी वरना कौन अपने कलेजे के टुकड़ों को ख़ुद से अलग कर सकता है।
कुछ परिवारों में भी विकलांगों की दशा ठीक नहीं है। हमारे पुराने घर के पास एक घर में एक मानसिक बीमार और बोलने में अक्षम महिला को परिवार ने भैंसों के बाड़े में जगह दे रखी थी। भैंसों के बीच और बाड़े की कंटीली तारों रखे अपने लहूलुहान हाथों के बावजूद बच्चों को खेलते देख मुस्कुराती वह महिला उस घर के मुखिया की बहन थी। परिवार में माँ थी, भाभी थी और उनके तीन बच्चे – दो लड़कियाँ और एक लड़का थे। इस पर भी सब लोग अपना-अपना गुस्सा उसी पर उतारते थे। भाई, भाभी, भतीजियों और परिवार में सबसे छोटे भतीजे की मार से उसकी माँ उसे बचाती। मार के निशान बहुत दिन तक नहीं जाते। उसकी माँ जिसे सब बच्चे दादी कहते थे बीजी को बताया करती थी कि इसकी दो बार शादी हो चुकी हैं। एक जगह मारपीट और जानवरों-सा सलूक होता देखकर हम इसे ले आए थे। दूसरी जगह इससे बच्चा कर मारपीट कर घर से निकाल दिया। अब यह अपने बच्चे की याद आते ही चीखने चिल्लाने लगती है इसलिए मार खाती है। वह माँ-बेटी गाँव से पड़ोस वाले घर में आते-जाते रहते थे लेकिन जब भी आते ऐसा सब ही देखने को मिलता। आज न वह घर ही है और न ही वे माँ-बेटी। बात करीब बीस-बाईस साल पहले की है – तब अबोध था तो ये सब सुना न सुना एक बात थी। अब जब इसे लिख रहा हूँ तो जैसे वह सब ज़हन में चलती एक फ़िल्म-सा आँखों के सामने से गुज़रते हुए रौंगटे खड़े कर गया है। तब न तो इतनी जागरूकता थी और न समाज को इतनी समझ। मगर उस अक्षम महिला की और उस जैसे कईयों की हालत परिवार में रहते हुए आज भी अच्छी नहीं है। मुझ जैसे निहायत शहरियों को दूर-दराज (जहाँ समझ और जागरूकता दोनों का अभाव है) के इलाकों की क्या खबर; क्या पता वहाँ किस परिवार में कोई विकलांग किस दशा में है? जबकि पड़ोस में कौन रहता है हम नहीं जानते।
ऐसे में हमारे परिवार समाज में एक अपवाद जैसे हैं — जहाँ हमें उतना ही लाड़-प्यार मिलता है जितना कि किसी नॉर्मल बच्चे को। जहाँ हर संभव तरीक़ा अपनाया जाता है कि हमें कोई तकलीफ न हो। हमारे साथ बर्ताव के दौरान हमारी विकलांगता को नजरअंदाज किया जाता है। ग़लती पर डाँटा जाता है, नाराज़गी जताई जाती है। दो-चार छींक या थोड़ा-सा बुखार आ जाये तो सभी परिवारजन अपने-अपने आज़माए नुस्खे बताने लगते है। फ़ौरन डॉक्टर की सलाह लेकर दवा दी जाती है। हमारी संभव शिक्षा होती है। विकलांगता प्रतिशत के हिसाब से समाज में इज़्ज़त के साथ स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। बहुत बार यह प्रयास असफल भी रहते हैं लेकिन इससे हमारे अभिभावकों को फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम उन्हें हमारे नॉर्मल भाई बहनों जितने ही प्यारे होते हैं। उन्हें हमारी जिम्मेदारी रब की सेवा करने जैसी लगती है। हमारे साथ इतना अच्छा व्यवहार होते देख आस-पास के लोगों का विकलांग व विकलांगता के प्रति नज़रिया बदलता है। जैसे एक दोस्त ने बताया था कि वह अपने कॉलेज के एक विकलांग साथी की मदद इसलिए कर पाया क्योंकि हम दोस्त हैं और हमने बहुत-सा समय साथ बिताया है। जिससे उसमें यह समझ उत्पन्न हो गई कि थोड़ी बहुत बातचीत के बाद विकलांग लोग समस्या और उसका समाधान ख़ुद ही बता देते हैं। उसके बाद चीजें आसान हो जाती हैं। बस सोच बदलने और बात करने की ज़रूरत भर है।
यही सोच कर हमारे परिवार हमें समाज का हिस्सा बनाने में लगे रहते हैं। हमारा जीवन सँवारते हुए वे ख़ुद को भूल जाते हैं। अपने नाते-रिश्तेदारों से छूट से जाते हैं। इसलिए हमारी कोई सफलता हमारे अकेले की सफलता नहीं बल्कि परिवार की सफलता है। हमारा जो भी हासिल है चाहे वह उच्च शिक्षा है, खेलों में कोई पदक है, उच्च पद है, कोई पुरस्कार और सम्मान है या हमारे चेहरों पर खिली मुस्कान है। हमारे आत्मविश्वास के पीछे परिवार का हम पर अविश्वसनीय विश्वास है। हमारा सब कुछ हमारे परिवार की ही देन है। उनके बिना हम विकलांगजन कुछ नहीं कर पाते शायद मुस्कुरा भी नहीं पाते।
वे विकलांगजन बहुत खुशनसीब हैं जिन्हें परिवार में प्यार, स्नेह और सहयोग प्राप्त है। काश! सब को परिवार का स्नेह और सहयोग मिलता। सभी के चेहरे पर मुस्कान खिले।
डेफ एँड डम स्कूल और बोलने में अक्षम महिला कि स्थिति जान कर मन बहुत आहत हुआ है। और मन मानने को तैयार ही नहीं होता है, कि कोई परिवार अपने ही बच्चे को कैसे इस तरह छोड़ सकते हैं। पर जैसे हर सिक्के के दो पहलु होते हैं, वैसे ही ये आपका लेख सिक्के के दूसरे पहलु से रूबरू कराता हुआ है।
विकलांगता अभिशाप तभी बनती है जब परिवारजनों की सोच नकारात्मक हो जाती है। यदि सोच सकारात्मक है तो हर समस्या से लड़ा जा सकता है। वाकई आप के द्वारा उठाई गई बात बेहद महत्वपूर्ण है।