न देव न दैत्य

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किसी सामान्य मनुष्य से भिन्न होना विकलांगता नहीं है तो दिव्यता भी नहीं है। न विकृति – निम्नता है, न ही दिव्यता – न श्रेष्ठता। अलग होने या दिखने से श्रेष्ठता प्राप्त नहीं होती। कुदरत से जिसे जितना प्राप्त है उसे निखारने से ही फ़र्क पड़ेगा। स्वयं को श्रेष्ठ मानना भी एक प्रकार की विकलांगता है। इससे कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता। विकृति को साध कर सामान्य मनुष्य वाला कोई कार्य कर सकना श्रेष्ठता नहीं है। हाँ, अगर उसी विकृति के साथ कोई असाधारण कार्य कर सकना (जो सामान्य मनुष्य के लिए भी असाधारण हो) श्रेष्ठता कहा जा सकता है। दिव्यता ऐसी ही श्रेष्ठता को कहा जाता है। परंतु किसी के विकृत अंग को दिव्य कहा जाना समझ से परे है।

उदाहरणतः महाभारत के पात्र संजय को दिव्यांग कहा जा सकता है लेकिन धृतराष्ट्र को नहीं। संजय कोसों दूर कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र का सजीव विवरण हस्तिनापुर में महल में बैठे धृतराष्ट्र को सुनाते थे। दूर तक देख सकना संजय की श्रेष्ठता थी जो उन्हें समान्य मनुष्य से भिन्न व दिव्य बनाती थी। दृष्टिहीन धृतराष्ट्र भी महाबलशाली थे, इतने कि बाजुओं में भर कर मजबूत से मजबूत चट्टान के टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे लेकिन उस समय में इस तरह के महाबली बहुत से थे जैसे बलभद्र, भीम, घटोत्कच इत्यादि जिनके होने से धृतराष्ट्र की श्रेष्ठता सामान्य ही रही। ऐसे कई पात्र हैं हमारी पौराणिक कथाओं में, जो सामान्य मनुष्य से श्रेष्ठ व दिव्य थे; तभी उन्हें दिव्य पुरुष या दिव्य स्त्री कहा जाता है। वे देव हुए या दैत्य – मगर आज के युग में विकलांग न देव हैं न दैत्य। फिर यह दिव्यता या दिव्यांगता क्यों और कैसी?

इशारों से अपनी बात समझाने के लिए जूझते मूक की खामोशी दिव्यांगता नहीं, विकृति है, मजबूरी है। फिर भी उसने अपने जीवन को सुधारने के लिए कुछ प्रयास किए हैं तो उसमें भी क्या दिव्य हो गया! ऐसा तो प्रत्येक प्राणी कर रहा है। मूक जुबान दिव्यांग नहीं हो सकती, दिव्यता होती तो मूक अपनी बात सीधे सामने वाले के मष्तिष्क तक पहुँचा सकते। राह टटोल कर चलते नेत्रहीन के नेत्रों में दिव्यांग होने की गुंजाइश नहीं। वहाँ तो सदैव के लिए अंधकार बस गया है। व्हीलचेयर या बैसाखियों पर खुद को संभाले हुए चलते व्यक्ति के पैर, अपने ही काम करने में अक्षम, दिव्य नहीं, विकलांग हैं। हाँ, अगर कोई बधिर संगीत विशारद हो तो यह उनकी दिव्यता होगी, कोई दृष्टिहीन अगर ड्राइंग मास्टर है तो वह दिव्यांग है। विकलांग को दिव्यांग कहना एक प्रकार से उसके विकृत अंगों का उपहास ही है। अब जब भी कोई कहीं इस शब्द से संबोधित करता है तो मन करता है कि उससे कहूँ कि अगर इसे दिव्यता कहते हैं तो आइये आप भी इस दिव्यता को जी कर देखिए। यही दिव्यता है तो कोई क्यों इस दिव्यता से वंचित रहे? अपने आप से और अपने परिवेश से जूझते विकलांग दिव्यांग नहीं हैं। अगर हैं तो सभी स्कूलों में उन बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ बैठा कर पढ़ाएँ जिन्हें स्पेशल चाइल्ड कह कर उनके स्कूल पृथक कर दिए गए हैं।

विकलांगों की विकृति को सामान्य न मानकर दिव्यांग कहना कितना जायज है? ज़रा सोचिए।

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NEELAM PAREEK
NEELAM PAREEK
1 year ago

बहुत अच्छा लिखा आपने।
कभी कभी हम किसी का सम्मान करने की इच्छा रखते हुए भी सही शब्द नहीं चुन पाते…यही दिव्यांग शब्द के साथ हुआ है… विकलांग कहने पर किसी के आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचे इसलिए बहुत ज्यादा विचार किए बिना दिव्यांग शब्द दे दिया गया… सम्मान तो किसी को इंसान मान लिया जाए तो भी हो जाता है। किसी के दर्द को समझ कर व्यवहार किया जाए तब भी हो सकता है।

मधु बग्गा
मधु बग्गा
1 year ago

निश्चय ही सोचने का विषय है, एक एक शब्द दिल की गहराई से निकला हुआ है, जिस तन लागे वो मन जाने

Manjit singh
Manjit singh
1 year ago

बहुत ही सुंदर शब्द चुन कर लिखा गया है किसी को बुरा भी ना लगे बहुत हीं सुंदर लेख लिखा है और भी अलग लिखने की कोशिश की जा सकती हैं भगवान् तुझे शक्ति परदानं करे 🙏

Prof DS Hernwal
Prof DS Hernwal
1 year ago

To respect and honour the individual and his/her intercultural quality should be our motive

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