मैं आज 23 जून 2023 से विकलांगता डॉट कॉम पर अपने कॉलम “खुलते पिंज़रे” की शुरुआत कर रही हूँ। यह कॉलम हर महीने 23 तारीख़ को प्रकाशित होगा। आप सोच रहे होंगे तो 23 तारीख़ ही क्यों? बात यह है कि इस तारीख़ का मेरे जीवन में विशेष महत्त्व है। आज से दो महीने पहले 23 अप्रैल को मुझे मेरे आदर्श “ललित सर” से मिलने का अवसर मिला। सर से मेरी यह मुलाक़ात महज़ एक सामान्य मुलाक़ात नहीं थी; बल्कि यह मेरे जीवन का ‘टर्निंग पॉइंट’ थी। इस मुलाक़ात के बाद से मेरे जीवन को एक नई दिशा मिली। इसी तारीख़ को सर ने मुझसे मुझमें ही छिपी लेखन की प्रतिभा का परिचय कराया — जिससे मैं पहले बिल्कुल अनजान थी। साथ ही मुझमें यह विश्वास भी जगाया कि अपनी इस प्रतिभा को निखार कर मैं समाज में अपनी एक अलग पहचान बना सकती हूँ। 23 अप्रैल को सर द्वारा कहे गए शब्दों से हमेशा प्रेरित होते रहने के लिए ही मैंने अपने कॉलम के लिए 23 तारीख़ का चुनाव किया है।
मैं अक्सर यू ट्यूब पर एक कविता सुनती हूँ जिसका शीर्षक है “अब… मैंने पर खोल लिए हैं”। मेरे लिये यह एक बेहद प्रेरणादायक कविता है। मेरा यह भी विश्वास है कि हर विकलांगजन इस कविता से एक जुड़ाव महसूस करेगा। इस कविता की रचना ललित सर ने की है। सर को हम सब ‘सम्यक ललित’ के नाम से जानते हैं। ये लेखक, विकलांग अधिकार कार्यकर्ता और तकनीकी विशेषज्ञ हैं। सर WeCapable.om, विकलांगता.कॉम और यूट्यूब पर दशमलव चैनल के संस्थापक हैं; गद्यकोश और कविता कोश के संस्थापक हैं; ईवारा फाउंडेशन के चेयरमैन व इनके अलावा अनेक परियोजनाओं के संस्थापक हैं। सर के बारे में कुछ भी कहना मानों सूरज को दीपक दिखाने जैसा ही है। मैं सम्यक ललित सर के बारे में सिर्फ़ इतना ही कहूँगी कि वे एक ‘प्रकाश पुंज’ हैं जो अपने प्रकाश से असंख्य निस्तेज हो चुके सितारों को प्रकाशित कर रहे हैं।
सम्यक ललित सर की कविता “अब… मैंने पर खोल लिए हैं” एक घायल पंछी की टूटती-जुड़ती उम्मीदों, उसके संघर्ष, साहस और ज़िद की कहानी कहती है। इस कविता को पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि यह पंछी एक विकलांग व्यक्ति का ही पर्याय है। यह कविता जहाँ एक ओर विकलांगजन के जीवन-संघर्ष को दर्शाती है वहीं उनको उनकी आत्मशक्ति और मज़बूत इरादों के साथ ऊँची उड़ान भरने के लिए प्रेरित करती है। आईये सबसे पहले इस कविता पढ़ते हैं।
पड़ा हुआ था धूल-धूसरित, पैरों से रौंदा जाता था
सांस गई कि बाकि है, ना देखने कोई भी आता था
लिए उम्मीद पड़ा रहा मैं, आकर कोई सहारा देगा
हटा के धूल निखारेगा, कोई हाथ मुझे प्यारा देगा
दिवस माह वर्ष बीत गए, अंतिम-से पल आ पँहुचे
सहारा किसी ने दिया नहीं, हाँ, ख़ुद शीर्ष तक जा पँहुचे
उन्हीं पलों में जो अंतिम-से थे, मैंने जीना ठान लिया
देखना अब परवाज़ मेरी, निज-शक्ति को पहचान लिया
सारा जहाँ मेरा होगा अब, संग मेरे जग गाएगा
हर छोटा-सा कण भी मेरे, साथ शिखर तक जाएगा
प्यार दो या नफ़रत मुझे दो, मेरे मन में भेद नहीं है
किसने दिया था क्या मुझे, इसका मुझको खेद नहीं है
प्रकृति से टूटे पंख मिले हैं, तो पीर जगत से पाई है
जग से जो पाया सो पाया, उड़ने की चाह स्वयं जगाई है
घायल पंख हिलने लगे हैं, तूफ़ान उठेंगे अब इनसे
पर प्यार ही मेरी भाषा है, ज्यों रात अलग होती दिन से
लिए इरादे लोहे से
ओस से मैंने बोल लिए हैं
अब… मैंने पर खोल लिए हैं!
कविता के पहले पैरा में पंछी बता रहा है कि वह घायल और धूल में लथ-पथ रास्ते में पड़ा हुआ था। लोग आते-जाते उसको पैरों से रौंद रहे थे लेकिन कोई भी यह नहीं देख रहा था कि पंछी की साँसे चल रही हैं या नहीं। कुछ ऐसी ही स्थिति विकलांग लोगों की भी होती हैं। वे भी अपनी परेशानियों और दुःख, तकलीफों से घिरे रहते हैं; लेकिन किसी को भी उनका ख़याल नहीं आता। कोई भी उनकी सुध लेने के लिए नहीं आता है।
पंछी आगे कहता है कि वह इसी उम्मीद में लम्बे समय तक पड़ा रहता है कि कोई आएगा और उसको सहारा देगा। उस पर पड़ी धूल हटाकर उसे स्वास्थ्य देगा, एक नया जीवन देगा। इसी तरह समय बीतता जाता है और पंछी के जीवन के अंतिम पल निकट आ पहुँचते हैं; लेकिन कोई भी उसकी मदद करने के लिए नहीं आता। अंतत: संसार से की गई उसकी उम्मीदें टूट जाती हैं और तब उन्हीं अंतिम पलों में वह ख़ुद से ही उम्मीद लगाता है और अपने मन में जीवन जीने की ज़िद कर लेता है। जीवन के अंतिम पलों में जब पंछी अपनी आत्म-शक्ति को पहचान लेता है तब वह कहता है कि अब वह ऊँची उड़ान भरेगा जो यक़ीनन देखने लायक होगी।
कई बार विकलांगजन भी ऐसी ही नाक़ामयाब उम्मीदें अपने परिवार, नाते-रिश्तेदारों और समाज से लगा बैठते हैं। अधिकतर ऐसी उम्मीदें अंत में टूट ही जाती हैं; लेकिन जब विकलांगजन इन्हीं उम्मीदों को ख़ुद से करने लगते हैं; तब सही मायने में वे जीवन जीना सीख जाते हैं। इस पंछी की तरह जब विकलांगजन अपनी आत्म-शक्ति और साहस को पहचान आगे बढ़ने की ज़िद करते हैं तब वे निश्चित रूप से अपने जीवन के लक्ष्य को पा लेते हैं।
कविता के पाँचवें और छठे पैरा में पंछी कहता है कि जिस संसार ने उसकी तकलीफ़ में उसको अलग-थलग छोड़ दिया था; अब वह पूरा संसार उसका होगा। पंछी की आत्म-शक्ति देख अब पूरा संसार उसके साथ गाएगा। अब जब वह उड़ान भरेगा तो हर छोटे-से कण को भी अपने साथ शिखर तक लेकर जायेगा। कहने का आशय है कि – पंछी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखता है। पंछी आगे कहता है कि लोगों ने उसके साथ अच्छा-बुरा चाहे जैसा भी व्यवहार किया हो; उनके प्रति उसके मन में कोई भेदभाव नहीं है और न ही अब उसे लोगों के बुरे व्यवहार का कोई दुःख है। वह सबको सामान भाव से देखता है।
इसी प्रकार जब विकलांगजन अपने साहस की शक्ति को पहचान जाएँगे; तब उनका साथ छोड़ देने वाला समाज स्वत: ही उनके साहस में उनके साथ हो लेगा। विकलांगजन को पंछी से यह भी सीखना चाहिए कि जब वह अपनी आत्म-शक्ति के बल पर आगे बढ़ना सीख जाते हैं तब उनको दूसरे लोगों का साथ देकर उन्हें भी आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। इस पंछी की ही तरह विकलांगजन को भी समाज के अच्छे-बुरे व्यवहार के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं करना चाहिए। बल्कि सबके प्रति सामान भाव रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए।
पंछी आगे कहता है कि प्रकृति ने तो उसको सिर्फ़ टूटे हुए पंख ही दिए थे; लेकिन उसको दर्द और वेदना समाज द्वारा दी गई है। समाज से उसे दुःख, तकलीफ़ चाहे कुछ भी मिला हो; लेकिन पंछी ने अपने भीतर उड़ने की चाहत ख़ुद ही जगाई है। जब से पंछी ने उड़ने का दृढ-निश्चय किया है तब से उसके घायल पंखों में हलचल होने लगी है। अब उसको यह विश्वास हो चला है कि उसके इन कमज़ोर, घायल पंखों में इतनी शक्ति है कि अब इनसे तूफ़ान उठेंगे। पंछी कोई बड़ा और शक्तिशाली पक्षी नहीं है। जिसके पंख बहुत ताकतवर हो; लेकिन यह मज़बूत इरादों और साहस की ही बात होती है कि एक छोटा-सा पंछी अपने नाज़ुक, कमज़ोर और घायल पंखों से तूफ़ान जितनी तेज हवा चलाने की शक्ति रखता है। पंछी आगे कहता है कि वह समाज से मिली कटुता को अपने मन में न बसाकर, प्रेम को अपने मन में बसाता है और प्रेम को ही अपनी भाषा बनाता है। पंछी रात रूपी अन्धकार, द्वेष, हीनता, कटुता का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि वह दिन रूपी प्रकाश, प्रेम और समानभाव का पक्षधर है।
विकलांगजन को भी प्रकृति से कुछ शारीरिक/मानसिक विकृतियाँ मिलती हैं, लेकिन इन विकृतियों को ‘विकलांगता में बदलने वाला समाज ही है। विकलांगजन को भी पंछी की ही भांति अपने जीवन में आगे बढ़ने के लिए अपनी आतंरिक इच्छा-शक्ति और साहस को जगाना होगा। जब विकलांगजन भी अपने लक्ष्य को पाने के लिए पंछी की तरह दृढ-निश्चय कर लेंगे; तब उनके यही शारीरिक/मानसिक रूप से कमज़ोर, विकृत अंग उनकी लक्ष्य प्राप्ति में उनके सहायक हो जाएँगे। पंछी की ही भांति विकलांगजन को भी समाज से मिली असंवेदनाओं, बुरे व्यवहार के प्रति अपने मन में कोई कटुता नहीं लानी चाहिए; बल्कि अपने मन में प्यार और अपनेपन को रखना चाहिए — प्रकाश, प्रेम और समानाता का प्रतीक बनना चाहिए।
अंतिम पैराग्राफ़ में पंछी कहता है कि यक़ीनन अब उसके इरादे लोहे-सी मजबूती लिए हुए है; पर उसके बोल हमेशा ओस की बूंदों के जैसे कोमल हैं, जो सबके मन को छूने की शक्ति रखते हैं। अंत में पंछी कहता है कि “मैं उड़ान भरने के लिए तैयार हूँ” क्यूंकि “अब… मैंने पर खोल लिए हैं”
पंछी की तरह विकलांगजन को भी अपने इरादे मज़बूत रखने चाहिए और साथ ही अपने मन और वाणी में विनम्रता रखनी चाहिए। मज़बूत इरादे और विनम्र स्वभाव के साथ विकलांगजन को अपने पंख खोलकर ऊँची उड़ान भरने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
बहुत बढ़िया।
बहुत सुंदर संदेश दिया रचना और आपकी समीक्षा दोनो ने
बहुत बढ़िया और बहुत सुंदर कविता है और बहुत अच्छे से व्याख्या की गई है।
Very thoughtful. Keep doing the good work