मेरी पुस्तक तुम्हारी लंगी राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक कहानी संग्रह है।
इस पुस्तक में विकलांग विमर्श की कहानियों के स्वर मुखर हैं। कहानी संग्रह में 9 कहानियाँ हैं जिसमें 3 कहानियाँ विकलांग विमर्श पर हैं।
विकलांग व्यक्ति जिसको शब्दकोश ने शारीरिक रूप से अक्षम शब्द दिया है। उसने अपने आप को सक्षम सिद्ध करने के लिए एक सामान्य व्यक्ति से चार गुना-पाँच गुना ज़्यादा ताकत झोंक दी और इसके बाद भी उसकी पहचान के साथ अक्षम शब्द चिपका ही रहा।
मैंने महसूस किया विकलांग व्यक्ति ने दुनिया के बनाए गए मानकों पर अपने को ढालने में ज़िंदगी लगा दी लेकिन कभी अपने अनुसार दुनिया को ढालने की माँग नहीं रखी।
विकलांग व्यक्ति ने दीवारें टटोल कर, अपनी छड़ी से गड्ढों के होने या न-होने का अंदाज़ लगा कर, धक्का खा कर, गिर कर, कुचल कर, हॉर्न ना सुन पाने का रिस्क ले कर रास्ता पार कर लिया — लेकिन यह नहीं कहा कि इन रास्तों में ये-ये परिवर्तन हो जाएँ तो मेरी मंजिलें भी आसान हो जाएंगी।
अपने आप को अक्षम कहे जाने के भय ने उसे इतना जकड़े रखा कि उसने अपनी कमजोरियों को मोटे-मोटे तहों में छिपा कर रखा। किसी को रोना ज़्यादा आता है, किसी को गुस्सा ज़्यादा, किसी का दिल इतना कमज़ोर होता है कि वह फुंसी से निकलता खून भी नहीं देख सकता, किसी का बीपी हाई हो जाता है, किसी को तेल हजम नहीं होता, … ये सारी कमज़ोरियाँ बड़ी आसानी से बताईं गईं और बताई जानी भी चाहिए लेकिन विकलांग व्यक्ति अपनी सारी समस्याओं, अपनी कमियों को बताने से बचा।
क्यों?
इसके जो कारण मेरी समझ में आये उनमें एक तो यह कि उसे लगता है कि वह तो पहले से ही मुसीबत है — लोगों के लिए उस पर अपनी अपेक्षाएँ और समस्याएँ बताना लोगों की मुसीबत बढ़ाना ना हो जाए।
दूसरा यह कि विकलांग व्यक्ति को सबसे ज़्यादा असहज जो चीज करती है वह है दया और कमतरी का अहसास। वह हमेशा आशंकित रहा अपनी कमजोरियों पर, अपनी अपेक्षाओं पर बात करने से कि कहीं लोग उस पर दया ना दिखाने लगें, उसे कमतर ना समझने लगें।
तीसरा यह कि उसे यह भी डर रहा कि लोग उस पर सहानुभूति पाने के लिए सारे काम करने का ठप्पा ना लगा दें।
मैं जब सोशल मीडिया के ताने-बाने में सक्रिय हुई तो मैंने देखा कि विकलांग व्यक्तियों ने अपनी तस्वीरों की जगह फूल-पत्ती की डीपी लगाई है क्योंकि वे नहीं जताना चाहते कि वे विकलांग हैं।
और यही समय था जब मुझे लगा कि मेरी रचनाओं में विकलांग विमर्श के स्वर मुखर होने चाहिए।
मुझे दुनिया के वे सारे वर्ग याद आए जो युगों से हाशिये पर रहे, उन्हें मुख्य धारा में लाने का काम उनसे संबंधित विमर्शों ने ही किया।
मुझे लगा कि विकलांग मनोविज्ञान को अपनी कहानियों में उकेर कर मैं अपनी कहानियों द्वारा लोगों को यह समझाने का गिलहरी प्रयास कर सकती हूँ कि एक विकलांग व्यक्ति की समस्याएं क्या हैं? उसका संघर्ष क्या है? उसकी समाज से अपेक्षा क्या है और समाज के पास समाधान क्या हो सकते हैं…
स्त्री विकलांगता को मैं विकलांग विमर्श की महत्वपूर्ण शाखा मानती हूँ जिसे अलग से रेखांकित करते हुए मैं इस विमर्श को आगे बढ़ाना चाहती हूँ। हर धर्म और समाज में स्त्रियों को हमेशा ही कमतर आँका गया है और उनके साथ दोहरा व्यवहार होता आया है। यह कमतर आँकलन और दोहरा व्यवहार दोगुना हो जाता है यदि व्यक्ति विकलांग हो। फिर अगर विकलांगता और स्त्री होना दोनों साथ हो जाएं तो जो सामाजिक उपेक्षा, कमतरी, कुंठा और कुंठित व्यवहार झेलना पड़ता है वह कितना गुना होता होगा इसका अंदाज़ भी लगाना मुश्किल है एक सामान्य जीवन जी रहे व्यक्ति के लिए।
मैं चाहती हूँ वह सब ऐसे व्यक्तियों को भी समझना चाहिए जिनके साथ ऐसी परिस्थितियाँ नहीं हैं।
कहानी संग्रह में 3 कहानियाँ कहनियाँ विकलांग विमर्श पर हैं। ‘सिम्मल के फूल’ एसिड अटैक पर लिखी गई कहानी है और यही वह कहानी है जिसने मुझे स्त्री विकलांगता पर कहानियाँ लिखने की हिम्मत दी।
‘तुम्हारी लंगी’ सेमी मायथोलॉजिकल कहानी है जिसमें मैंने पौराणिक विकलांग पात्र कुब्जा और आधुनिक पात्र लंगी की कहानियों को रूप से आगे बढ़ाया है।
तीसरी कहानी ‘जाने किसकी खुशी तलाशी है’ कहानी का विषय विकलांग स्त्री बनाम विकलांग पुरुष है।
यह कहानी संग्रह एक शुरुआत है। अभी विकलांगता संबंधी अनेक समस्याएँ, अनेक पक्ष, अनेक मनोविज्ञानों को उकेरना बाकी है।
आगे भी मेरी कहानियों के मुख्य स्वर विकलांगता ही रहने की उम्मीद है।