cover image of story collection "mud ke dekho mujhe" a - viklangta vimarsh book

क्यों कहता है मन, मुड़ के देखो मुझे?

जब भी कोई किसी यात्रा पर जाने की सोचता है तो प्रायः एक योजना बनाता है और तदानुसार व्यवस्था करता है।

लेकिन जीवन में कुछ यात्राएँ ऐसी भी हो जाती हैं जो पूर्वनियोजित नहीं होती हैं और जिनकी योजना आप नहीं आपके लिए ईश्वर बनाता है। वह यह अश्वति आपको देता है कि ये जो योजना मैंने तुम्हारे लिए बनाई है यदि उस पर निकल पड़ोगे तो लक्ष्य साध लोगे।

वह आपको उन लोगों और उन संसाधनों की व्यवस्था स्वयं करता है जिनके होने से आपकी यात्रा सुगम्य और सुखद बन सके और आप अपने गंतव्य तक पहुँच सकें। किसी बृहत्तर उत्तरदायित्व निर्वहन हेतु आप जब अनायास किसी प्रेरणा से आप किसी लक्ष्य को साध लेते हैं तो आप निमित्त मात्र होते हैं

“मुड़ के देखो मुझे” की यात्रा की रूपरेखा प्रभु ने मेरे लिए बनाई इस बात को मैं बहुत शिद्दत से महसूस करती हूँ अन्यथा इसकी रचना मेरे लिए एक दूरस्थ कल्पनालोक की सैर कर रहे विचार से अधिक नहीं थी। मैं तो इस विचार बीज को मेरे अंदर रोपने के लिए उनकी कृपा से अनुगृहीत हूँ कि न केवल उन्होंने इसे रोपा वरन इसके प्रस्फुटन, पल्लवन और पुष्पित करने के लिए एक विशेष व्यवस्था भी निर्मित की। मेरा आज भी यही कहना है कि मुझे इस मोड़ पर मुड़ जाने के संकेत भी दैवीय रहे हैं।

अगर सिलसिलेवार ढंग से इसके जन्म की कहानी सुनाऊँ तो हुआ यूं कि ट्वीटर पर चहलकदमी करते हुए मुझे एक विशेष काव्य संग्रह प्रकाशित किए जाने की सूचना मिली और वह सूचना थी कि आप विकलांगता विमर्श पर केंद्रित इस काव्य संग्रह हेतु रचनाएँ भेज सकते हैं जिन्हें संपादक मंडल की स्वीकृति के बाद प्रकाशित किया जाएगा।

मुझे यह स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं है कि इससे पहले इस विमर्श के बारे में मेरी जानकारी शून्य ही थी। साहित्य से सीधे सीधे जुड़े होने के बाद भी इस बात ने मुझे व्यथित किया कि साहित्य में होने वाले नव प्रयोगों से मेरी अनभिज्ञता है।

यह तो स्थापित सत्य है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है लेकिन यह समाज को दिशा देने की क्षमता भी रखता है।

साहित्य ही तो है जो अंधकार में टिमटिमाता प्रकाशपुंज है जो हमें राह दिखाता है।

साहित्य समाज को नैतिक मूल्य ही नहीं देता वरन यह विश्वास भी देता है कि जब तक समाज साहित्य का यथोचित सम्मान देता है मानवीयता अक्षुण्य है।

साहित्य शब्दों में सत्यम् शिवम् सुंदरम् के शाश्वत शिल्प शैली से संयोजन ही तो है

मैंने जब इस बारे में जानना चाहा तो थोड़ी-बहुत जानकारी ही थी। जो कि तितर-बितर अवस्था में मिली।

खैर मैंने अपनी रचना भेजी और वह चयनित होकर “जैसा मैंने देखा तुझको” शीर्षक से प्रकाशित काव्य संग्रह में सम्मिलित भी हुई।

ये मेरी प्रथम प्रकाशित रचना थी।

जब मुझे इसकी सूचना मिली तो लगा अरे वाह क्या बात है! मेरी रचना प्रकाशित हो गई इस बात से अधिक ख़ुशी इस बात से थी कि मैं इस ओर अपनी रचनाधर्मिता को मोड़ पाई।

लेकिन मेरी जिज्ञासा अभी भी अपनी जगह थी कि तभी प्रथम विटामिन ज़िन्दगी पुरस्कार हेतु रचनाएँ आमंत्रित किए जाने की सूचना मिली। ज्ञात हुआ कि कोई है जो विकलांगता विमर्श को साहित्य के मुख्य विमर्शों के रूप में स्थापित करने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर इस ओर प्रयास कर रहा है। मैं जिस शख्शियत का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगी वह श्री सम्यक ललित जी हैं जिनका स्वयं का जीवन धर्म और कर्म प्रेरणा स्रोत हैं बल्कि उनके भागीरथी प्रयास भी सराहनीय हैं।

जाहिर था कि मुझे अपनी प्रविष्ठि प्रतियोगिता में भेजनी है तो कुछ अलग-सा लिखना होगा । एक के बाद एक कई कविताएँ लिखी और फिर एक कविता भेजी जिसका शीर्षक था “उसके हिस्से का बसंत” कविता पुरस्कार तो नहीं जीत पाई पर निर्णायक की प्रशंसा जीत गई।

फिर विटामिन ज़िन्दगी पुरस्कार के दूसरे संस्करण में मेरी रचना “शरद पूनम के चांद” ने प्रथम पुरस्कार जीता तो लगा मानों ज्ञानपीठ पुरस्कार जीत लिया। इसके साथ ही इस बार मेरी कहानी “नीला शॉल” ने निर्णायक को प्रभावित किया यह भी मेरे लिए प्रसन्नता का विषय रहा।

जब मेरी कहानी “उड़ता पहाड़ और तारों भरी रात” को तृतीय विटामिन ज़िन्दगी पुरस्कार की शुभ सूचना मुझे सम्यक ललित जी से मिली तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा क्योंकि इस बार प्रतियोगिता की निर्णायक भी आदरणीय अनामिका जी थी।

बातों बातों में उन्होंने मुझे अपनी कहानियों को एक संग्रह के स्वरूप में प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव दिया। मैंने अपनी स्वीकृति तो दे दी। लेकिन इसे पूरा कर सकूंगी या नहीं कुछ असमंजस स्थिति में रही । संकल्प से सिद्धि तक का ये परायण तो करना ही था। कहानियाँ किसी नदी की मानिंद बह निकली किसी कोई नक़्शा लिए… और मुझे मेरे पात्र किसी घाट की तरह मिलते चले गए…

कहानी के पात्रों ने अपनी कहानी ख़ुद मुझे सुनाई और मेरे हाथों से क़लम लेकर ख़ुद अपनी कहानी लिखनी शुरू कर दी।

शायद यही वह क्षण था मुझे लगा कि अपनी रचना शक्ति और सामर्थ्य इस दिशा में मोड़ देनी चाहिए। लेकिन मैं ऐसी कहानियाँ लिखना चाहती थी जिनके पात्र काल्पनिक चरित्र न होकर मेरे आस पास रहने वाले वास्तविक लोग हों ।जो मेरे माध्यम से अपनी बात कहना चाहते हैं।

ये मेरा दृढ़ आग्रह रहा है कि विकलांग पहले व्यक्ति है बाद में विकलांग, दिव्यांग, विशेष या कुछ और… विकलांगता उनके जीवन का एक पक्ष मात्र ही तो है न कि उनका समग्र जीवन… किसी भी सामान्य इंसान की तरह वे भी इंसान ही है । किसी न किसी तरह की कमी तो हर किसी के जीवन में है।बस अंतर मात्र इतना है कि उनकी कमी दिखाई देती है।

मैंने अक्सर देखा है कि उनका चरित्र चित्रण ऐसे किया जाता है मानों वे किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हैं लेकिन मेरा प्रयास रहा कि मेरी कहानियों के पात्र वास्तविकता के निकट हों इसलिए मैं उन्हें मानवीय धरातल पर,मानवीय कमजोरी और मानवीय शक्तियों यानी कि एक सामान्य इंसान के रूप में जीवन जीते हुए चित्रित करने के पक्ष रही।

इसीलिए मेरी कहानियों के पात्र काल्पनिक न होकर वास्तविक हैं जिन्हें मैंने स्वयं देखा, सुना या पढ़ा है। कई अख़बार पढ़ते हुए या टीवी देखते हुए ये मुझसे टकरा जाते हैं। हालांकि इन सबकी अपनी अपनी कुंठायें हैं जो उनके जीवन में कुंडली मार कर बैठी हुई हैं। सबके अपने अपने संघर्ष हैं।लेकिन ये नायक हैं नायिका हैं क्योंकि इन्होंने जीवन में प्रतिकूलताओं के साथ जिसने जीना सीख लिया। समाज का इनके प्रति उदासीनता और घृणा को झेलते हुए भी इनके इरादों का निर्माण फौलाद से हुआ है लेकिन कहीं वे कमजोर होकर टूटे भी हैं।

मेरे एक पाठक ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि आपकी कहानियों में त्रासदी होते हुए भी त्रासदी नहीं है यानी कहानियों का अंत उतना दुखद नहीं है क्या आपने ऐसा किसी विशेष प्रयोजन हेतु किया है? उसकी बात सुनकर कि मैंने ख़ुद को टटोला यदि ऐसा है तो इसके पीछे मेरी मंशा क्या रही होगी? क्या मैंने वास्तविकता को कल्पनाओं को चाशनी में डूबो दिया है?

क्या मेरी कहानियाँ सच्ची कहानियों की हमशक्ल होते हुए कहीं भटक तो नहीं गईं

ये इरादतन तो बिल्कुल नहीं था… तो फिर?

मैं तो कई बार ख़ुद रोई हूँ तो कभी मुस्कराई भी हूँ।

सारंगा हो या शेवंती, अभिजीत हो या मानव, महुआ हो या वैष्णवी, सौम्या हो या रागिनी

इन सब की छटपटाहट, दर्द और पीड़ा को महसूस किया है।

मैंने ख़ुद को खंगाला लेखक के रूप में आत्म निरीक्षण किया तो मुझे लगा कि नियति की क्रूरता ने तो पहले ही इनके जीवन को संघर्ष और चुनौतियों से भर दिया है तो कहीं मेरे अवचेतन में उन्हें कुछ सुकून और ख़ुशी देने की प्रतिबद्धता तो नहीं बसी थी जिस कारण इनका अंत त्रासद नहीं हुआ कहीं मेरे अंतर्मन में ‘पोएटिक जस्टिस’ का भाव रहा हो… बहरहाल ये मेरे लिए किसी त्रासदी के नायक नायिका मात्र तो नहीं थे। इनके जीवन संघर्ष असाधारण हैं, इनकी जीत असामान्य तो इनकी हार के कारण भी सतही न होकर बहुत गहरे हैं लेकिन अगम्य नहीं है। इनकी हार में हमारी कार्यसंस्कृति की भी हार है। सभ्य समाज की पराजय है जो न्यूनतम मानवीय मूल्यों को भी सहेज नहीं सका और इन्हें हार की ओर धकेलता जाता है।

जो भी ज़िन्दगी ने इन्हें परोसा ये उसी से पुष्ट होते गए यही तो असली नायक और नायिका की पहचान है कि वे प्रतिकूल धाराओं के तैराक होते हैं इसीलिए तो ये कहते हैं कि मुड़ के देखो मुझे…!

समाज का ऐसा वर्ग जो दूसरों की दया पर जीने तथा “बेचारा” कहलाने का दंश झेलने के लिए विवश है, उसे प्रेरित-प्रोत्साहित कर सशक्त बनाने की दिशा में एक सार्थक सर्जन अवश्य है। हीनता-बोध के स्थान पर समानता-बोध जागृत करने कोशिश की है ताकि उपेक्षा और तिरस्कार से लड़ने की ताक़त पैदा हो सके और वे अपने ऊपर हँसने वालों से पूछ सकें ‘मोहि का हँससि कि कोहरहि?’ (तू मेरे ऊपर हँसा था या उस कुम्हार (ईश्वर) पर?

इस कहानी संग्रह के माध्यम से मैंने कुछ विषयों को केंद्र में लाने के प्रयास किए हैं।

‘दिव्याँग’ या ‘डिफरेंटली एबल्ड’ जैसे शब्दों के प्रयोग मात्र से ही दिव्याँग लोगों के प्रति बड़े पैमाने पर सामाजिक विचारधारा को नहीं बदला जा सकता।

यह सर्वविदित है कि एक बड़ी समस्या समाज के एक बड़े वर्ग की मानसिकता है जो दिव्याँग व्यक्तियों को एक दायित्व या बोझ के रूप में देखते हैं। इस प्रकार की मानसिकता से दिव्याँग व्यक्तियों के उत्पीड़न और भेदभाव के साथ मुख्यधारा से उनके अलगाव की खाई को और चौड़ी करती है।

यह वर्ग दिव्याँग व्यक्तियों को ‘सहानुभूतिपूर्ण’ और ‘दया’ के पात्र मानता है, उन्हें सामान्य से अलग या ‘अन्य’ (Other) के रूप में यानी तीसरे दर्जे के नागरिक के रूप में उनसे व्यवहार करने में कोई गुरेज नहीं करता है।

दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दिव्याँगों की सबसे बड़ी समस्या भावनात्मक हीनता है। अपनी कमियों के कारण इनमे हीनता की भावना जन्म ले लेती है,जो न सिर्फ़ इनके विकास को बाधित करती है बल्कि उन्हें और अधिक सुभेद्य बनाती है।

देश में एक ऐसी संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता है, जहाँ न सिर्फ़ बुनियादी ढाँचे का निर्माण करते समय दिव्याँग लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए योजनाएँ बनाई जाएँ वरन उनकी हीन भावना को प्रेम पूर्ण व्यवहार से समाप्त करने को उत्सर्ग हो।

मुझे आज भी यही लगता है कि यह संग्रह प्रकाशित हो पाया इसके पीछे श्री सम्यक ललित जी का सकारात्मक प्रोत्साहन रहा। श्वेतवर्णा प्रकाशन की श्रीमती शारदा जी का प्रेमपूर्ण सहयोग अविस्मरणीय है।

अब कहानी संग्रह प्रकाशित होकर सुधि पाठकों के हाथों में पहुँच चुका है।इसे मिल रहे प्यार से अभिभूत हूँ। पाठकों की प्रतिक्रिया मेरा मनोबल बढ़ाने वाली है । मैं चाहूँगी कि कि यह अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें और अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त हो सके।

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