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टूटे पंखों से परवाज तक / सुमित्रा महरोल

“टूटे पंखों से परवाज तक” नामक 2021 में प्रकाशित यह आत्मकथा भारतीय समाज में दलित समुदाय से आने वाली एक विकलांग स्त्री की आत्मकथा है।

इस पुस्तक में दर्ज किया गया है कि पोलियो के कारण निपट बचपने में दोनों पैरों की शक्ति खो चुकी एक विकलांग बालिका ने अपने जीवन की इन त्रासद परिस्थितियों के सामने हार नहीं मानी। शिक्षा को अपना हथियार बनाया और अपनी मेहनत लगन और जिजीविषा के बलबूते दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर जैसे प्रतिष्ठित पद पर कार्यरत होने में कामयाबी हासिल की। इसके अलावा वे दलित लेखिका और आलोचक के रूप में भी सतत क्रियाशील हैं।

उनके लिए यह मुकाम हासिल करना इतना आसान न था। दो तरह की चुनौतियाँ से उन्हें जूझना पड़ा। शरीर से उत्पन्न विकलांगताजन्य और समाजजन्य — इन दोनों से एक साथ वे कैसे जूझी — इस सब का ज़िक्र ही प्रस्तुत पुस्तक में पाठकों को देखने को मिलता है।

लिंग और जाति के प्रति पूर्वाग्रह रखने वाले भारतीय समाज में दलित समुदाय में पैदा हुई लड़की यदि विकलांग भी है तो उसकी चुनौतियों का अनुमान लगाया जा सकता है। इस समुदाय में जन्मी विकलांग स्त्री के जीवन की विभिन्न स्थितियों को इस पुस्तक में देखा जा सकता है, इस पुस्तक के ज़रिये लेखिका ने कोशिश की है कि भारतीय समुदाय इस वर्ग के प्रति अपने संकुचित दृष्टिकोण और पूर्वाग्रह का त्याग कर इस वर्ग के लिए संवेदनशील सकारात्मक और सहयोगी भूमिका में आ जाए।

इस पुस्तक के जरिए लेखिका ने विकलांग समुदाय को संदेश देने की कोशिश की है कि अपने जीवन की स्थितियों को बदलने की दिशा में पहला क़दम उसे स्वयं उठाना पड़ेगा। उसे अपने जीवन की चुनौतियों से हार नहीं माननी है बल्कि सकारात्मक दृष्टिकोण, परिश्रम और लगन के बलबूते अपने लिए समाज में एक निश्चित जगह बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत होना है।

वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा के प्रोत्साहन के फलस्वरुप इस पुस्तक की लेखिका ने अपने जीवन के अनुभवों को काग़ज़ों पर अंकित करना शुरू किया और फिर यह अनुभव 2009 से प्रकाशित होना शुरू हुए। अन्यथा, हंस, कथा देश, बयान जैसी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में यह प्रकाशित हुए। इसके कुछ अंशों का गुजराती में अनुवाद भी हो चुका है।

2021 में मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन दिल्ली से टूटे पंखों से परवाज तक नामक यह आत्मकथा पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। आशाओं से भी बढ़कर इस आत्मकथा ने पाठकों के बीच अपनी जगह बनाई। जेएनयू में कार्यरत प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में कार्यरत प्रोफेसर बजरंग बिहारी तिवारी, डॉक्टर सर्वेश कुमार मौर्य, डॉ करमानंद आर्य, प्रोफ़ेसर रजत रानी मीनू, समेत अनेक दिग्गज आलोचकों ने इस पुस्तक पर अपनी समीक्षाएँ लिखीं हैं जो बनासजन, कथादेश, समकालीन हिन्दी साहित्य सहित अन्य हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। स्वीडन की उपसाला यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हाइंस बर्नर वैसलर के निर्देशन में इस पुस्तक पर लघु शोध कार्य हो चुका है। स्वीडन की उप्साला यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हाइंस ने इस पुस्तक पर एक ऑनलाइन चर्चा भी आयोजित की थी। अशोक विश्वविद्यालय की दृष्टि वात्स्यायन ने भी अंग्रेज़ी भाषा में एक लेख इस पुस्तक पर लिखा है। इस पुस्तक की चर्चा पर केंद्रित अनेक ऑनलाइन कार्यक्रम अभी तक आयोजित हो चुके हैं।

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