व्हीलचेयर पर बैठे हम विकलांग लोग कुछ भी हासिल कर सकने का सपना तो देख सकते हैं लेकिन सार्वजनिक स्थलों जैसे मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, रेस्टोरेंट, होटलों में सुविधाजनक ढंग से नहीं जा सकते क्योंकि हमारी व्हीलचेयर इन सभी स्थलों की सीढ़ियाँ लांघ पाने में असमर्थ है। घर से कम निकलने वाले व्हीलचेयर पर बैठे लोगों का जब किसी वार-त्योहार पर घर से निकलना होता है तब शहर की वे जगहें खोजी जाती हैं जहाँ सीढ़ियाँ न हों और अगर हों तो 2-4 स्टेप्स से ज़्यादा न हों। इतना तो 2-4 लोग मिलकर व्हीलचेयर को उठा कर भी चढ़ा सकते हैं लेकिन मुश्किल हो जाता है जब माहौल हेल्पफुल न हो। किसी का दोष नहीं है — हो सकता है उस समय उस जगह मौजूद लोगों को डॉक्टर ने वज़न उठाने से मना किया हो। व्हीलचेयर सहित हमें 2-4 स्टेप्स लंघाने की मनुष्यता निभाने के चक्कर में उन्हें ज़िंदगी भर के लिए व्हीलचेयर नसीब हो गई तो?
हमारी सरकार और कानून कहते हैं कि सभी सार्वजनिक स्थलों पर विकलांग व्यक्तियों के लिए सुविधाजनक रैम्प होना चाहिए ताकि विकलांग व्यक्ति भी ऐसी जगहों पर आसानी से आ-जा सकें। इन स्थलों पर विकलांगजन की उपस्थिति बढ़े और समाज का नजरिया बदले। यह बातें सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन अब तक कहीं पढ़ा या सुना नहीं कि विकलांगजन के लिये सुविधाजनक न होने पर ऐसे किसी सार्वजनिक स्थल पर जुर्माना हुआ हो।
सरकारी दफ्तरों में ही कोई काम पड़ने पर हमारी व्हीलचेयर सीढ़ियों को देखकर झिझक जाती है। अब सरकार खुद पर तो जुर्माना लगाने से रही। रैम्प्स के नाम बहुत जगह तो बस खानापूर्ति की गई है। एक जगह दूसरी मंजिल तक रैम्प तो था लेकिन इतना खड़ा रैम्प था कि अगर 4-5 लोग साथ नहीं हों तो व्हीलचेयर चलाने वाला व्हीलचेयर सहित लुढ़कता हुआ ही नीचे आए। चढ़ते हुए स्वयं का बोझ ही ज्यादा लगने लगता है फिर व्हीलचेयर को संभालना!
सुविधा अनुसार रैम्प नहीं होगा तो व्हीलचेयर चलाने वाला व्हीलचेयर और व्हीलचेयर पर बैठे अपने सहित गिरेगा ही। रैम्प्स भी स्पेशली डिज़ाइन होने चाहिए ताकि सुविधा हो सके न कि उनके होने से असुविधा हो। लिफ्ट है तो लिफ्ट तक पहुँचने के लिए भी कई स्टेप्स हैं या लिफ्ट की सुविधा ही फ़र्स्ट फ्लोर से शुरू होती है। सरकारी लिफ्ट्स तो मेंटेनेंस के अभाव में खुद अक्सर विकलांग नज़र आती हैं। बात बहुत छोटी इसलिए लग रही है कि हम व्हीलचेयर वाले लोग कम निकलते हैं और निकलते हैं तो अपने साथ अपनी मदद करने में समर्थ लोगों के साथ निकलते हैं। कभी कहीं कोई शिकायत नहीं करते क्योंकि ज़रूरत नहीं महसूस होती। मगर देखा जाए तो मुश्किल बहुत बड़ी है। हाल ही में एक बहुमंज़िला इमारत में जाना हुआ; पता चला कि वहाँ की लिफ़्ट पहली मंजिल पर रुकती ही नहीं। बहुत कठिनाई और संकरी सीढ़ियों से कैसे मुझे व्हीलचेयर सहित अपने पहली मंजिल के गंतव्य तक पहुंचाया गया यह सिर्फ चढ़ाने वाला या चढ़ने वाला ही जानता है। तब से सोच में हूँ कि यदि किसी विकलांग व्यक्ति का घर ही पहली मंजिल पर हो तो वो क्या करेगा? सुविधाओं के नाम जितनी लीपापोती हमारे साथ की जा रही है शायद ही कहीं और होती हो। एक-दो जगहों को छोड़ कर बड़ी तस्वीर में देखें तो सुविधाओं के नाम पर बस लीपापोती ही मिलती है विकलांगजन को।
बात तो महत्वपूर्ण है..पर हमे भी सोचना चाहिए कि हर
किसी की अपनी सीमा होती है..जिस से आगे कोई भी व्यक्ति मजबूर हो जाता है…अधिकतर सरकारी विभागों और स्कूल में जितनी सुविधा दी जा सकती है..दी जाती हैं..सरकार जो कर सकती है करती है..लेकिन समाज का नजरिया क्या है..यह बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है…शुभ..
जब तक सोच और नज़रिया संवेदनशील नहीं होंगे, सार्थक बदलाव नहीं आ सकते। और फिर हम चीज़ों के इतने आदी हो जाते हैं कि बदलाव की मांग भी नहीं करते। आपका एतराज़ बदलाव की मांग है।आपकी कलम में ताक़त बनी रहे।