इस आलेख को राशि सक्सेना ने लिखा है। बरेली, उत्तर प्रदेश की निवासी राशि ऑस्टोजेनेसिस इम्परफ़ेक्टा नामक एक स्थिति से प्रभावित हैं। इस स्थिति से प्रभावित व्यक्ति की हड्डियाँ बहुत कमज़ोर रहती हैं और हल्के से दबाव में भी चोटग्रस्त हो जाती हैं।
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हमेशा सुना है, पढ़ा है और जीवन में महसूस भी किया है कि जब हम ख़ुद अपनी मदद करते हैं तब परमात्मा भी हमारी मदद करते हैं। इसी विचार के साथ जुड़े मेरे कुछ अनुभव और उनमें निहित कुछ सन्देश, कुछ हिम्मत और आत्म सशक्तिकरण से जुड़ा ये लेख आपके सामने है।
वर्ष 2016 में मेरी नई स्कूटी आई थी। इसको लेकर मेरे मन में इतना उत्साह, इतनी व्याकुलता थी कि बस जल्दी से कोई मुझे स्कूटी चलना सिखा दे और मैं ‘एक आज़ाद पंछी की तरह उड़ जाऊँ’। ये वाक्य सुनने में बिल्कुल ऐसा अहसास कराता है जैसे मानो अब तक मैं किसी पिंजरे में कैद थी। एक तरह से यह सही भी है। भले-ही मैं खुश थी, अपनी इच्छा का जीवन जी रही थी; पर उड़ान क्या होती है…? यह तब जाना जब पहली बार स्कूटी के एक्सेलेटर को घुमाया और धीरे-धीरे स्कूटी आगे बढ़ी और ठंडी-ठंडी हवा मेरे चेहरे को छूते हुए पीछे गई। सही मायने में ऐसा लगा कि मैं आज़ाद हो गई, मानो मुझे आज़ादी आज ही मिली हो।
स्कूटी आने से पहले कितने सवाल-जवाब, कितनी जद्द-ओ-ज़हद, कितने वाद-विवाद करने पड़े थे। यह विचार मेरे पापा का ही था कि मुझे स्कूटी दिला कर आत्मनिर्भर बनाना है; पर फिर उनके दिल के कई डर कि कहीं कुछ हो गया तो…, कहीं चोट लग गई तो…, कोई फ्रैक्चर हो गया तो…, लड़की है अकेले बाहर कैसे भेजे? पहले कभी अकेले घर से बाहर निकली भी तो नहीं है। बीस-बाइस साल तक जो हमेशा माँ-बाप, दोस्तों या किसी-न-किसी के साथ ही बाहर निकली हो, अब अचानक अकेले कैसे सब संभाल पाएँगी? भीड़ में कैसे ख़ुद को संभाल पाएँगी?
ऐसे अनेक सवाल मेरे और पापा के मन को हर रोज विचलित करते, हम हर रोज इसी मुद्दे पर बात करते और बिना किसी निर्णय पर पहुँचे ही बात ख़त्म कर देते। अन्त में गुस्से में मेरा एक ही मत होता कि घर पर सारी ज़िन्दगी कैद रहकर मरने से बेहतर है कि मैं बाहर निकल कर कुछ करते हुए मरुँ। मैं जानती हूँ कि ये बात बहुत कड़वी है, कुछ बेतुकी भी है; पर मेरे सवाल बस इतने ही थे कि कब तक दूसरों पर निर्भर रहूँगी? कब तक अपनी ज़रुरत के सामान लाने के लिए दूसरों का मुँह देखूँगी? कब तक घर से ही पढ़ाई करुँगी? कब तक दोस्तों के साथ घूमने-फिरने के लिए मन मारूँगी?
ये सब बातें पापा समझते थे। बस शायद वे इतना बड़ा फैसला लेने के लिए अपने मन को मना रहे थे और हिम्मत भी जुटा रहे थे। मैं हर रोज खुली आँखों से एक ही सपना देखती थी कि मैं एक दिन ख़ुद ड्राइव करते हुए बाहर निकालूँगी, दुनिया देखूँगी और उड़ान भरूँगी। आखिरकार एक दिन परमात्मा और मेरे पिता ने मेरी इच्छा सुन ली और मेरे जन्मदिन तक मेरे लिए स्कूटी आ गई। बस फिर क्या था देखते-ही-देखते मैं स्कूटी चलाना सीख गई। कुछ ही महीनों में मैंने अकेले घर से बाहर निकलना भी शुरू कर दिया। जितना कभी सपने में भी नहीं सोचा था, जीवन उससे कहीं अधिक आसान होता चला गया।
मैं अक्सर सोचती हूँ कि ये स्कूटी, गाड़ी या कोई भी वाहन जिनसे हम कहीं आ-जा सकते हैं, अपनी ज़रूरत के काम कर सकते हैं ये सब होने कितने महत्त्वपूर्ण हैं! मुझे याद है जब स्कूटी नहीं थी और मैं अपनी पढ़ाई के लिए कोचिंग जाना चाहती थी, तब सबसे बड़ा सवाल यही होता था कि मैं कैसे जाऊँगी? यदि कोई ऑटो या रिक्शा लगाया जाएँ तो उस ऑटो या रिक्शा वाले पर भरोसा कैसे किया जाएँ? इसके साथ ही सिर्फ़ निजी कार्य के लिए ऑटो या रिक्शा लगाना बहुत महंगा भी पड़ता है। ऐसी बहुत सारी समस्याएँ होती थी। फिर सौभाग्य से मुझे उस परिस्थिति में एक जान-पहचान के भरोसेमंद ऑटो वाले भाई जी मिल गए, जो मुझे कोचिंग ले जाने और वापस घर लाने लगे। इस तरह अकेले घर से बाहर निकलना, मुझे कुछ हद तक सशक्त महसूस कराता था; लेकिन स्कूटी पर अकेले बाहर निकलना, अपने काम ख़ुद करना मेरे जीवन के अनेक संघर्षों की अनेक जीतों में से एक जीत है। अपने हाथ में जब स्टीयरिंग होता है तब सशक्तिकरण का वह अहसास अलग ही होता है।
उस वक़्त स्कूटी लाने के विचार से लेकर स्कूटी से अकेले बाहर जाने तक मैंने जिन-जिन समस्याओं का सामना किया उन समस्याओं के कुछ समाधान मेरे मन में बनते और बिगड़ते रहते थे। उन्हीं समाधानो में से एक समाधान के विचार को यहाँ साझा कर रही हूँ।
मैं सोचती थी कि या तो कभी परमात्मा मुझे इस क़ाबिल बना दें कि मैं सभी विकलंगजन या जो लोग किसी परिस्थितिवश बिना सहारे के अकेले बाहर नहीं जा सकते उनके लिए इस समाधान पर कार्य कर पाऊँ। अन्यथा जो लोग इस क्षेत्र में कुछ कर सकने के मुक़ाम पर हैं, वे इस समाधान के लिए प्रयास करें।
मैं सोचती थी कि अगर विकलांग लोगों के लिए अलग से विशेष वाहन सेवा शुरू हो जाए तो इनका जीवन वाकई बहुत सरल हो जाएँगा। जैसे हम आम ज़िन्दगी में अपने मोबाइल पर एक क्लिक करके कैब बुला लेते हैं, जो हमें एक जगह से दूसरी जगह पर छोड़ देती है, इसका ड्राईवर सही रास्ते की पुष्टि कर रहा होता है और इसमें जी.पी.एस. भी लगा होता है। कुल मिलाकर इसमें बैठा यात्री ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है।
इसी तरह विकलांगजन की आवश्यकताओं और सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए कैब-ड्राइवरों को विशेष प्रशिक्षण देकर ऐसी सुविधा शुरू की जा सकती है। जैसे व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को किस तरह से कैब में बैठाने-उतारने में मदद करनी है, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में किस तरह से संचालन करना है आदि। इस तरह के प्रशिक्षण में अतिरिक्त रूप से यह जोड़ा जा सकता है कि जब किसी व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले यात्री को ट्रेन से किसी अन्य शहर जाना हो (जो कि विकलांगजन के लिए सबसे बड़ी समस्या होती है, एक शहर से दूसरे शहर प्रस्थान करना।) तब उस परिस्थति में कैब ड्राईवर विकलांग यात्री को न सिर्फ़ घर से रेलवे स्टेशन तक लेकर जाएँ बल्कि विकलांग यात्री को उसके सामान सहित ट्रेन में भी बैठा दे। साथ ही जब यात्री अपनी मंज़िल पर पहुँचे तो वह वहाँ दूसरी विकलांगजन कैब सुविधा का लाभ उठा सकें और कैब-ड्राईवर प्राप्त निर्देशानुसार रेलगाड़ी के डिब्बे में जाकर यात्री को सावधानीपूर्वक डिब्बे से उतार कर उसे शहर में उसकी मंज़िल पर पहुँचा दे।
कल्पना मात्र से ही मुझे यह सुविधा बहुत ख़ुशी देती है। अगर कभी ऐसा संभव हो पाया तो जीवन कितना आसान हो जाएगा, दूसरों पर हर वक़्त की निर्भरता कितनी कम हो जाएगी।
जिस प्रकार किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले उसमें कई अड़चने आती हैं, उसी प्रकार इस सुविधा को शुरू करने से पहले भी यह सवाल ज़रूर आएगा कि ऐसे कितने विकलांगजन होंगे जिनके लिए इतनी बड़ी परियोजना शुरू की जाए, वो भी हर शहर में? तो इस संबंध में मेरा विचार है कि कोई भी नयी परियोजना शुरू होने से पहले उसकी बहुत अधिक ज़रूरत नहीं होती। सामान्यतः जब कैब-सर्विस शुरू हुई थी तब इससे पहले भी लोगों का काम रिक्शा, ऑटो, बस इत्यादि से चल ही रहा था; पर जब से कैब-सर्विस शुरू हुई है तब से इसकी ज़रूरत बहुत महसूस होती है।
अब बात करते हैं कि ऐसे कितने विकलांगजन हैं? तो इस सवाल के जवाब में भारत की कुल जनसंख्या के लगभग 2.21% विकलांगजन और लगभग 8.6% बुज़ुर्ग लोग (डाटा ऊपर-नीचे भी हो सकता है।) ऐसे है, जिन्हें बाहर जाने के लिए किसी के सहारे की ज़रूरत होती है। अतः अकेले बाहर जाने में इनके लिए यह सुविधा लाभदायक सिद्ध होगी। इसलिए भारत की कुल जनसंख्या के 10-11% लोगों को ध्यान में रखकर इस प्रकार के समाधान/परियोजना पर विचार ज़रूर करना चाहिए। इनके अतिरिक्त भी काफी समस्याएँ सामने आ सकती हैं। जैसे इन कैब-सर्विस का शुल्क ज्यादा हो सकता है जिसे शायद प्रत्येक व्यक्ति वहन नहीं कर सकेगा, घरों में सीमित सोच या भिन्न-भिन्न प्रकार के डर की वजह से शुरुआती तौर पर लोग अकेले बाहर निकलने में संकोच करेंगे इत्यादि; लेकिन मेरा मानना है कि हर समस्या अपने साथ समाधान लेकर आती है, जिसे खोजने की कोशिश हमें जीवन-पर्यन्त करते रहनी चाहिए।
इस विषय में आपकी क्या राय है? और इनके अतिरिक्त क्या-क्या समस्याएँ आ सकती हैं? उनके क्या-क्या समाधान हो सकते हैं? कृपया इस संबंध में अपने विचार जरूर साझा करें।