शर्त इतनी है…

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विकलांगजन के बारे लिखते हुए जिस तरह सोचना होता है वह बेहद कष्टदायी है। उनकी पीड़ा को आत्मसात करते हुए हौसले पस्त हुए जाते हैं। मन हार मानने लगता है कि तभी इनके चेहरों की मुस्कान घने बादलों से रिसती धूप बनकर हम जैसे लिखने वालों को संबल देते हुए कहती है कि हमारी विकृति पर नहीं बल्कि हमारी हँसी पर लिखो। लिखो कि हम विकृत शरीर में बसी बड़ी खूबसूरत खिलखिलाहट हैं जो काफ़ी है तुम्हारी अजीब बेरंग-सी दिनचर्या में रंग भरने के लिये।

विकृतियों पर हँसने वाले या उन पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले और विकृतियों को देख उन पर अपने ‘ओह्ह बेचारे’ रूपी तेज़ाब छिड़कने वाले इस समाज पर तरस नहीं हँसी आनी चाहिए कि इस समाज का मन-मस्तिष्क कितना विकृत है। एक कुटिल मुस्कान किसी विकलांग की खिलखिलाहट को कैसे कुचल देती है, कभी सोचा है? सोचेंगे तो समझ सकेंगे कि सारा दिन व्हीलचेयर पर बैठे रहना कैसा होता है, जबकि मन में निरंतर ब्रेकडांस चलता हो। समझ में आएगा कि अंधेरे में लाठी टेकते चलना कितना सरल है, जबकि उस अंधकार को ही बना लिया गया है प्रिज्म, जिसमें से अंधेरा भी सतरंगा हो निकलता है। अपनी ही बात कह-सुन न सकना कितनी शांति देता है, इसी खामोशी में गूँजते हैं कितने ही जलतरंग। जिस दिन समाज यह समझ लेगा उस दिन समाज की मज़ाक उड़ाती मुस्कान विकलांगजन की खिलखिलाहट में शामिल हो जाएगी। शर्त इतनी है कि इनकी विकृतियों को नजरअंदाज करते हुए और उस पर अपने रहम का ‘ओह्ह’ या ‘हे भगवान’ छोड़ने की बजाए इनके साथ मुस्कुराना होगा। इनकी दशा को नई दिशा देनी होगी। इनकी आवाज़ पर भी कभी सदन की कारवाई बर्खास्त की जाएगी। जब तक इस सब की शुरुआत नहीं होगी तब तक विकलांगजन और समाज के बीच की खाई को नहीं पाटा जा सकता।

विकलांगजन के हालातों पर समाज अगर ऐसे ही ‘च्च्च्च्च्च’ करता रहेगा तो देखना एक दिन समाज के इस कृत्य पर वह मासूम-सी खिलखिलाहट कहकहा बन टूटेगी। ऐसा एक दिन तो ज़रूर आएगा जब समाज की रहम भरी ‘ओह्ह’ और ‘च्च्च्च्च्च’ उस कहकहे तले दबी हुई होगी। उस समय भी समाज बगलें झाँकने की जगह बाहें फैलाकर विकलांगजन की विकृतियों स्वीकार कर लेगा तब ही विकलांगजन की खिलखिलाहट समाज में शामिल हो पाएगी और समाज को एक नई दिशा मिलेगी। कुछ और हो न हो, समाज का स्वभाव थोड़ा नम्र ज़रूर होगा। राष्ट्र-हित के नाम पर और धर्म की ओट से चलने वाले सांप्रदायिक दंगों में खराब होने वाले धन का उपयोग समाज के कल्याण-कार्यों पर खर्च होगा। युद्ध और लड़ाईयाँ कब, किसका कल्याण करते हैं?! ये तो बल्कि विकलांगता को बढ़ा रहे हैं। युद्ध की ज़द में आए सैनिक व नागरिक अगर मरने से बच भी जाएँ तो भी उनमें शारीरिक या मानसिक विकलांगता आने के आसार कहीं अधिक हो जाते हैं। यह मानसिकता केवल विकलांगों की तादाद ही बढ़ा रही है। जिस दिन यह मानसिकता ख़त्म हो जाएगी और विकलांगों के कहकहे में पर समाज भी मुस्कुराएगा उसी एक दिन के इंतजार में हम जैसों को लिखते रहना होगा। क्या पता हमारा लिखा ही समाज और विकलांगजन के बीच की खाई पर पुल का काम कर जाए।

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Manjit singh
Manjit singh
10 months ago

Excellent 100%right change the thoughts of the people in the world so that the difference between the public be reduse

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