समझने को हम विकलांगजन कोई मैथ इकुवेशन तो नहीं हैं। हम भी वैसे ही जन्म लेते हैं जैसे नॉर्मल लोग — लेकिन जैसे ही हमारी विकृति का पता चलता है वैसे ही हम से एलियंस जैसा व्यहवार शुरू हो जाता है। चिकित्सक लोग बीमारी समझ न आते हुए भी अपने प्रयोग करते रहते हैं। शायद वे हार स्वीकार नहीं पाते। जब तक हमारी विकृति को हमारा जीवनसाथी स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक तरह-तरह के इलाज जारी रहते हैं। हमारे अभिभावकों को भी अपना बच्चा नॉर्मल वैसा ही चाहिए होता है जैसा उन्होंने सपना देखा था। भला कौन माता-पिता अपने लिए विकलांग बच्चे की कल्पना करते हैं? किसे चाहिए अजीब से व्यवहार और भावभंगिमाओं वाले बच्चे? मगर प्रकृति के विधान के आगे किसकी पसंद-नापसंद चलती है? उम्र के साथ और इलाजों से बात न बनती देख आखिर अभिभावकों द्वारा हमें हमारी विकृति के साथ स्वीकार कर लिया जाता है। फिर समाज की बारी आती है लेकिन वह हमारे लिए कभी तैयार नहीं होता। मैं ख़ुद उसी समाज का हिस्सा हूँ और वैसी ही सोच रखता हूँ, विकलांग होते हुए भी मैं किसी अन्य विकलांग व्यक्ति के सामने आ जाने से असहजता महसूस करता हूँ। मैं सोचने लगता हूँ कि इनसे कैसे और क्या बात करूँ, इन्हें मेरे एक्सप्रेशन से वैसा न महसूस हो जाए जैसा घूरती निगाहों से मुझे महसूस होता है। मैं ख़ुद को तो स्वीकार कर चुका हूँ लेकिन अचानक सामने कोई विकलांग व्यक्ति आ जाए तो उसे स्वीकार करना अभी तक नहीं आया। मेरे जैसों के लिए ही कहा गया होगा – औरों को नसीहत आप मियां फ़ज़ीहत।
स्कूल, कॉलेजों, और कार्यालयों में मज़ाक का केंद्र बन जाने के बावजूद विकलांगजन हमेशा इसी प्रयास में रहते हैं कि उन्हें कभी न कभी तो स्वीकार किया जाएगा। वैसे भी समझने-समझाने के लिए उनके पास होता भी क्या है? जैसे उसकी बैसाखियाँ चल रही हैं, जो उसका काला चश्मा और छड़ी देख रही हैं, जो उसका मौन बोल रहा है, उसका भोला मन किस प्रकार खेल रहा है और जितनी असहज महसूस आम कुर्सियों में उसकी व्हीलचेयर कर रही है इन सबको समझ कर भी नहीं समझा जा सकता। बस स्वीकार किया जा सकता है और जिस समय विकलांगों को स्वीकार कर लिया जाता है उसके बाद समझने को और कुछ बचता नहीं है।
समझने के लिए तो हमारे पास अजीब से शरीर के सिवा कुछ नहीं है लेकिन स्वीकार करने के लिए हममें एक पूरी दुनिया है। तो समझिए नहीं हमें स्वीकार कीजिए।
हमेशा की तरह सटीक बातें प्रदीप
U R the Best Writer👍👍👍👍👍👍👍👊👍👍👍👍👍👍👍👏👏👏👏👏👏👏👏👏
बहुत सही कथन प्रदीप पर अब काफ़ी बदलाव आया है । डॉक्टर्स का भी इरादा कुछ बेहतर करने का ही होता है कि किसी तरह अपने मरीज़ का भला कर सकें । बिना कोई कोशिश किए तो रिसर्च के परिणाम नहीं पता लग सकते । रही बात समाज की तो सामान्य से हटकर जो भी दिखता है वो एक-आध बार असहज लग सकता है पर दूसरी बार में वो स्थिति बदल जाती है।
Wow… sensitive