“ऐसी ज़िंदगी के बाद, क्या बचेगा हमारी आत्मा में जो नर्क में जलेगा?” — काफ़्का
किसी दोस्त के व्हाट्सएप-स्टेटस में उपरोक्त पंक्ति को पढ़ते हुए महसूस हुआ ‘काफ्का’ ने यह पंक्ति भले किसी भी संदर्भ में कही हो मगर विकलांगों पर यह सटीक बैठती है। विकलांगता, समाज और सबसे अधिक अपने आप से जूझते हुए और सब ऊलजलूल सुनते-सहते बहुत-सा आत्मसम्मान खर्च हो जाता होगा। स्वाभिमान भी टूटता है जब शरीर उस तरह से साथ नहीं देता जितना आत्मबल लगा हो। इस तरह विकलांगों द्वारा लगाई गई बहुत-सी मेहनत निर्रथक हो जाती है। जिसके बाद नर्क में जलने के लिए किसी विकलांग की आत्मा में क्या ही बचता होगा? इसलिए ही ये ग्रह-नक्षत्रों की बात करने वाले, हाथ और माथे की रेखाएं पढ़ने वाले विकलांग जनों के बारे अक्सर यही कहते सुने जाते हैं-
‘यह तुम्हारा अंतिम जन्म है, पिछले सभी जन्मों का लेखा इसी जन्म में एक साथ खत्म हो जाएगा। अच्छा है मुक्त हो जाओगे। मोक्ष प्राप्त होगा, बस भगवान का नाम लिया करो। भगवान का नाम जपो, जल्दी मुक्ति पाओगे।’
जल्दी मुक्ति यानी जल्दी मौत। भई, अगर सज़ा के रूप में यह मिला जीवन है तो जेलर को खुश करने से क्या सज़ा कम हो जाती है? कहीं जेलर (भगवान) ने ये समझ लिया कि उसे बार-बार याद करता यह कैदी मजे में है और दूसरे सज़ा-याफ्ता कैदियों के लिए प्रेरणा है। इसकी सजा पूर्ण होने के बाद भी इसे रिहाई जल्दी न मिले तो? जैसे सरकारें अक्सर कैदियों के साथ करती हैं। फिर भगवान को प्रसन्न करके ही मोक्ष प्राप्त करना है तो भगवान ने विकलांग का जन्म क्यों दिया? किसी परम भगत के पुत्र या शिष्य के रूप जन्म देकर भी तो इनको मोक्ष मिल सकता था।
एक समय ऐसा भी जरूर आता है जब कैदी जेल में रहने का आदि हो जाता है। उन्हें बाहर की दुनिया में रचना-बसना मुश्किल लगता है। वैसे ही विकलांग जन की आत्मा विकलांगता की आदि हो जाती है। वे अगर ठीक हो भी जाएँ तो भी सामान्य जीवन से सामंजस्य बिठाने में मुश्किल होंगी ही। फिर भी विकलांगता में जीने के लिए इतना आत्मबल लगता है कि मोक्ष प्राप्ति की चाह ही नहीं बचती। बस सज़ा खत्म होने का लंबा इंतजार बचता है।
सज़ा मुजरिमों तक सीमित रहती तो ठीक था। मुजरिमों (विकलांगों) के परिजन और उन्हें संभालने वाले भी एक तरह से सज़ा ही भुगतते हैं। अपने नाते-रिश्तदारों के यहाँ किसी फंक्शन में जाते हुए उन्हें अपने विकलांग प्रियजनों के लिए अलग से योजनाएँ बनानी पड़ती हैं ताकि उनकी अनुपस्थिति में विकलांग को दिक्कत न हो। ऐसे में बहुत से फंक्शन और बाद में रिश्तेदार तक छूटते जाते हैं उनसे। इतने प्रेमपूर्ण व सेवाभाव से परिपूर्ण व्यक्तित्व वाले होते है विकलांग व्यक्तियों के परिजन व रख-रखाव करने वाले। जिनके बारे हाथ व माथे की रेखाएं पढ़ने वाले बताते हैं-
‘पिछले किसी जन्म में तुम भी इसके (विकलांग) किए गुनाहों में सहभागी थे इसलिए तुम भी सज़ा के बराबर हकदार हो। तुमने इसके किए गुनाह में ऐसे साथ दिया इसलिए तुम इसकी माँ बनी, तुम फलां तरीके से जुर्म में शामिल थे इसलिए तुम इसके पिता हो। इसकी सेवा तुम्हारे हिस्से आई है तुम्हारा जन्म सफल हुआ समझो।’
उसके (भगवान) विधान में सज़ाओं का उचित प्रबंधन नहीं है शायद। सज़ा केवल अपनी हो तो भी सही जा सकती है लेकिन अपने साथ और अपनी वजह से कोई और भी कहीं आ-जा न सके, अपने प्रियजनों से छूटता जाता हो तो यह बहुत असहनीय होता है। विकलांग जन अपने प्रियजनों को अपने कारण अंदर ही अंदर घुटते देख खुद भी घुलने लगते हैं और घुलने लगती है उनकी आत्मा। अपनी और अपने प्रियजनों की पीड़ा का बोझ ढोती विकलांग जनों आत्मा जीवन के बाद कितनी क्षीण हो जाती होगी, और एक अंतहीन बोझिल इंतजार के बाद उसमें नर्क में जलने क्या ही बचता होगा?
उस पंक्ति में ‘फ्रेंज काफ्का’ ठीक ही कहते हैं- फिर उस आत्मा में बचेगा क्या जिसे नर्क में जलाया जाए।
Beautiful thought that make real story of a medium family
Written with deep heart ❤ bless you
आप भाग्य शाली हो जो आपको एसे परिजनों का साथ मिला…कुछ लोगों को तो वह भी नहीं मिलते..
Best efforts👌
U R Best Writer God Bless Uuuuuuuuu Pradeep
Right thoughts and emotions,it shows confidence of writer, take it as a blessing