मैंने पापा से कई बार कहा “पापा नैब जाकर बृजेश सर से बात कर लीजिए, मुझे संगीत कैसे सीखना है? शायद वह कोई उपाय बता सकें।” पापा कई दिन तो भूलते रहे, आखिरकार वह एक दोपहर नैब गये, तो पता चला बृजेश सर और प्रीती मैम लंच के लिए घर गये हैं। पापा वापस आ गये।
कुछ दिन बाद फिर पापा गये, वह लोग फिर लंच पर गये थे। ऐसे ही पापा जब-जब नैब जाते, वह लोग लंच पर होते। दरअसल, पापा भी अपने लंच के समय ही उनसे मिलने जाते क्योंकि लंच के आगे या पीछे पापा को भी अपने ऑफिस से फुरसत नहीं थी। बृजेश सर ने फ़ोन नंबर तो दिया था लेकिन, पापा को ऑफिस से फ़ोन करना याद नहीं रहता और जो मैं करूँ, तो घर में इसकी सुविधा नहीं थी। इसी तरह महीना-डेढ़ महीना गुजर गया, मतलब जनवरी से मार्च आ गया लेकिन बृजेश सर से संपर्क न हो सका।
पापा एक दिन फिर नैब गये, उस दिन वहाँ दो नये शिक्षक मिले, उन्होंने पापा से बताया “बृजेश और उनकी पत्नी का स्थानांतरण हो गया है पटना में और उनके स्थान पर हम दोनों आये हैं।”
पापा के द्वारा मैंने जब ये बात सुनी तो मुझे बहुत दुःख हुआ, इसलिए नहीं कि अब मुझे संगीत कौन सिखायेगा? बल्कि इसलिए…. क्योंकि उस दिन प्रेक्षागृह में जब वह मुझे मिले थे, तब अपने व्यवहार से वह मुझे बहुत अच्छे लगे थे और मैं उनसे मिलकर खुश हुई थी। क्योंकि अच्छे लोग क़िस्मत से मिलते हैं और जब ये अच्छे लोग मिलते हैं तब हमारे जीवन में अच्छे परिवर्तन ज़रूर होते हैं। वह मुझे मिले थे लेकिन… अब वह खो गये थे, मुझे बुरा लगा। फिर मैंने सोचा ‘वो अब कभी नहीं मिलने वाले तो शोक मनाकर क्या फायदा? उन्हें भूल जाना ही ठीक है, मैंने उन्हें भूलने की कोशिश की और फिर कभी पापा नैब नहीं गये, न मैंने जाने को कहा।
लेकिन फिर भी, बृजेश सर की याद कभी-कभी आती रहता थी, मैं सोचती ‘क्या वह कभी-कभार पटना से जमशेदपुर (नैब) आते होंगे? क्या नैब के नये शिक्षकों के पास उनके विषय में कोई जानकारी होगी?’ यही सोचते हुए एक दिन मैंने नैब के नंबर पर कॉल कर दिया, तब, जब नवम्बर महीने में मेरे हाथों में LG का नया मोबाइल आया था।
फ़ोन दोनों शिक्षक में से एक ने उठाया, मैंने उन्हें अपना नाम बताया तो वह तुरंत पहचान गये। पापा से मिलने के बाद उन्हें मेरे विषय में बहुत जानकारी थी, मुझसे बात करके वह खुश हो गये। उन्होंने कहा “डॉली जी मुझे नहीं पता बृजेश जी आपके लिए क्या करने वाले थे, लेकिन अब तो वह यहाँ हैं नहीं, तो उन बातों का कोई मतलब नहीं। फिलहाल, इस 14 तारीख़ को हमारे नैब में बच्चे बाल दिवस मना रहे हैं तो हम चाहते हैं कि आप हमारे स्कूल आयें। आप हमारे स्कूल आने की एक बार तो कोशिश कीजिये। आप आयेंगी, तभी तो मेल-मुलाकात बढ़ेगी, हम एक-दूसरे को पहचानेंगे। आप यहाँ आयेंगी तो आपको शायद अच्छा लगे और मेरे बच्चों को तो यकीनन अच्छा लगेगा। डॉली जी नये-नये लोगों से मिलते रहने से हमारे अनुभव का दायरा बढ़ता है, अनजाने में ही सही, पर हम एक-दूसरे की प्रेरणा बनते हैं। आप आयेंगी?”
“जी, कोशिश करूँगी, पापा से बोलकर देखती हूँ। नमस्ते।” मैंने कहा और मुस्कुराते हुए फ़ोन काट दिया। दरअसल, मैं ये सोच रही थी कि अनजाने में ही सही लेकिन इन्होंने भी वही बात कही, जो बृजेश सर ने कही थी।”
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यूँ तो कार्यक्रम सुबह 10 बजे से शुरू था लेकिन मैं 11 बजे पहुँची थी। हम जैसे ही नैब के सामने पहुँचे मुझे देखते ही दोनों शिक्षक मेरे पास आ गये, उन दोनों ने ही बहुत गर्मजोशी से मेरा और पापा का स्वागत किया।
‘उफ! यहाँ तो सब अनजाने हैं, मैं किससे बात करूँ?’ मैं सोच ही रही थी कि तभी सामने खड़े श्रीमान जी ने, जिन्होंने स्वागत किया था, शायद! मेरे चेहरे का भाव पढ़ लिया, इसलिए उन्होंने करीब आकर कहा “डॉली! मैं ही हूँ वो, जिसने तुमसे फ़ोन पर बात की थी, यहाँ मैंने ही बुलाया है तुम्हें। मेरा नाम मनमीत सिंह (बदला हुआ नाम) है।”
तो मैं ये जानकर खुश हो गई कि चलो कोई तो पहचान का मिला लेकिन फिर अगले ही पल उनकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ जब उन्होंने कहा “और मैं ब्लाइंड हूँ।” मैं सोचने लगी ‘लो और मुझे लगा कि इन्होंने मेरे चेहरे के भाव पढ़ लिये।’
“ये बताना बहुत ज़रूरी तो नहीं था लेकिन, आप नई हैं तो सोचा बता दूँ ताकि पहचान स्पष्ट हो, कोई ग़लतफ़हमी न रहे।” उन्होंने कहा तो मैं मुस्कुरा दी।
“वैसे, आपसे बात करके और आपकी आवाज़ सुनकर मैं जान गया हूँ कि आप कैसी दिखती हैं।” उन्होंने आगे कहा। अब इस बात पर भी मैं क्या कहती? फिर मुस्कुरा दी।
इनसे मिलिये, ये भी यहाँ के शिक्षक हैं। इनका नाम जसपाल सिंह (बदला हुआ नाम) है और हमारी तरह ये भी ब्लाइंड हैं। दरअसल, यहाँ सभी ब्लाइंड हैं।” मनमीत जी ने आगे कहा।
“आप यहीं बैठेंगी क्या? अंदर चलिये, अंदर हॉल में प्रोग्राम हो रहा है।” जसपाल जी ने कहा।
फिर मैं और पापा उन लोगों के साथ अंदर गये। वहाँ मैं सबसे अगली पंक्ति में बैठ गई। पापा का ऑफिस था, तो वह वापस चले गये थे ये बोलकर कि “जब प्रोग्राम समाप्त हो जाये, फ़ोन कर देना, लेने आ जाऊँगा।”
अंदर एक छोटा-सा हॉल था, जो बालदिवस के उपलक्ष्य में गुब्बारों और रिबन्स से बिल्कुल वैसे ही सजा था, जैसे सबके घरों में बच्चे के जन्मदिन पर सजाया जाता है।
छोटे से मंच पर एक लड़का हाथों में गिटार लिये गीत गा रहा था “पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा” और साथ ही डांस भी कर रहा था। वह गोरा, छरहरा, उड़ती जुल्फ़ें और शायद! टीनएज के कारण, दिखने में मुझे आमिर खान-सा लग रहा था और मैं सोच रहा थी कि ‘एक ये लड़का है, जिसे इतनी-सी उम्र में गिटार बजाना आता है, गाना आता है, डांस आता है और एक मैं हूँ, मुझे कला का कबूतर नहीं आता।
उसके बाद और भी कई प्रतिभाषाली बच्चे आये, सबने अपनी प्रतिभा दिखाई। अंत में जसपाल सर ने कहा “डॉली! तुम भी कुछ सुनाओ न!” तो मनमीत सर ने भी उनका साथ दिया “हाँ-हाँ! तुम भी कुछ सुना दो।”
यूँ मुझे इस बात का कोई अंदेशा नहीं था, इसलिए मेरी कोई तैयारी नहीं थी और जो मालूम भी होता तो भी क्या तैयारी कर लेती? फिर थोड़ा सोच-विचार कर मैंने एक गीत सुनाया “अच्छी बात कहो, अच्छी बात सुनो।”
सभी ने तालियाँ बजाई, कई लोगों ने तारीफ़ की, फिर पुरस्कार बँटे, मिठाई बँटी और फिर कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर खाने की भी व्यवस्था थी। होटल से बंद डिब्बों में खाना आया था, सभी खा रहे थे। तभी जसपाल सर कुछ बच्चों को लेकर मेरे पास आ गये, उन्होंने उन बच्चों से मेरा परिचय करवाया। मुझे और बच्चों को एक-दूसरे से मिलकर बहुत अच्छा लगा।
बच्चे जा चुके थे लेकिन, जसपाल सर मेरे ही पास बैठ गये। उन्होंने मुझसे बातचीत करनी शुरू की। मैंने सोचा ‘मनमीत सर ने तो मुझसे फ़ोन पर बात की थी, इन्होंने नहीं, तो शायद इन्हें भी मेरे विषय में कुछ जानना है, इसीलिए मेरे पास बैठ गये हैं।’ इसी सोच के साथ मैं उनके हर सवाल का ज़वाब देती गई। लेकिन… जाने कैसे थोड़ी ही देर में मुझे ऊब होने लगी, मेरा मिजाज़ चिड़चिड़ाने लगा।
मनमीत सर फिर भी बेहतर थे। वह अपने काम में व्यस्त थे, मुझ पर बहुत ज़्यादा ध्यान तो नहीं दे रहे थे लेकिन फिर भी उन्होंने आते-जाते कुछ ज़रूरी बातें मुझसे कर ली थीं/पूछ ली थीं। जैसे – “यहाँ आकर बोर तो नहीं हो रही? कैसे लगे बच्चे? यहाँ अच्छा लगा? खाना खाया? अपना मोबाइल नंबर देकर जाना।” आदि।
लेकिन जसपाल सर! वह तो ऐसे बात करने बैठ गये जैसे – उन्हें एक लम्बी छुट्टी मिली हो। जैसे – वह किसी लड़की से पहली बार बात कर रहे हों। जैसे – वह दुनिया के सबसे अच्छे शिक्षक हों। जैसे – मेरी क़िस्मत बदलने का जिम्मा उन्हें ही मिला हो। जैसे – वह दुनिया बदलने निकले हों और उसकी शुरुआत वह मुझसे कर रहे। जैसे – वह मेरे एक अच्छे अभिभावक हों, सच्चे मित्र हों, सगे भाई हों। जैसे – सदियों की पहचान वह इन्हीं चंद मिनटों में कर लेना चाहते हों।
मैं इन दोनों शिक्षकों की तुलना बृजेश सर से करके सोचने लगी ‘वो कितने अलग थे और ये कितने अलग हैं, दोनों में से कोई भी उनके जैसा नहीं। उन्होंने कुछ ही मिनट में मेरा दिल जीत लिया था और ये…?
मनमीत सर बात नहीं कर रहे, जसपाल सर चुप नहीं हो रहे। मनमीत सर पास नहीं आ रहे, जसपाल सर दूर नहीं जा रहे। मनमीत सर कितने व्यवहारिक और जसपाल सर…? मैंने पापा को आने के लिए फ़ोन कर दिया।