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नैब की यादें / भाग 1

बहुत कम ऐसा होता है जब अख़बार को मैं सुबह-सुबह पढ़ूँ; अधिकतर दोपहर ढलने के बाद ही पढ़ती हूँ। उस दोपहर भी, मैंने खाने के बाद अख़बार उठाया, तो उसे पढ़ते-पढ़ते एक कोने में नज़र गई, जहाँ शीर्षक था ’26 जनवरी 2008 को माइकलजॉन में नैब (NAB) का रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम।’

मुझे नहीं पता था नैब क्या है? लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रम तो पता था। मैंने उस वक़्त तक कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं देखा था तो मैंने सोच लिया ‘इस कार्यक्रम को तो ज़रूर देखूँगी।’

शाम को पापा ऑफिस से आये तो मैंने उन्हें कहा “इस 26 जनवरी को मुझे माइकलजॉन के कार्यक्रम में जाना है, ज़रूर जाना है, चाहे कैसे भी।” पापा से मैंने ये अनुरोध में नहीं कहा था, बल्कि आदेश-सा दिया था। मेरा आदेश सुनकर भी पापा चुप ही रहे, कोई ज़वाब नहीं दिया और मैं मन-ही-मन सोच रही थी ‘कह तो दिया है लेकिन, पापा तो ले जाने से रहे।’

एक सप्ताह बाद जब 26 जनवरी का दिन आया, तो सुबह से ही आसमान में घने काले बादल छाये हुए थे, बर्फीली हवा चल रही थी और लगातार आसमान टिपटिप टिपटिपा रहा था। मैं सोच रही थी ‘एक तो पापा यूँ ही मुझे लेकर न जाते, उस पर ये गीला-गीला मौसम।’ वह कहावत है न!? ‘एक तो वह रुआँसी रहैं, ऊपर से भइया आ गये।’

मैं निश्चिंत थी कि अब मुझे कार्यक्रम में नहीं जाना है, इसलिए मैं खाना खाकर, रजाई ओढ़कर सो गई। पापा भी बगल में सो रहे थे। 3 बजे के बाद मेरी आँख खुली तो मैंने देखा, एक अंकल आये हुए हैं और पापा कुर्सी में बैठे उन्हीं अंकल से बात कर रहे हैं। नींद में होने के कारण मैंने उन्हें नज़रअंदाज़ किया और फिर रजाई तान ली, लेकिन मेरे कानों में आवाज़ पड़ी…

अंकल कह रहे थे “मैंने सुना डॉली को आज किसी कार्यक्रम में जाना है लेकिन…”

पापा ने कहा “तो मैं क्या करूँ? जिन्हें जाना है वह लोग तो सोने में मस्त हैं।”

मतलब… ये लोग मुझे सीधे तौर पर न जगाकर इस तरह से जगा रहे थे। सुनते ही मैंने रजाई दूर फेंकी और पापा को घूरकर देखने लगी। मेरी आँखें बोल रही थीं ‘मुझे ले जाने के लिए अंकल को बुला लिया और मुझे बताया तक नहीं?’

अंकल बोले “कार्यक्रम तो 5 बजे से है न!? और तुम अभी तक तैयार नहीं हुई?”

“तैयार क्या होना? अभी आती हूँ।” कहकर मैं खिड़की से बाहर झाँकने लगी, तो देखा कि टिपटिप बारिश अभी तक हो रही है, बर्फीले झोंके अभी भी पेड़ों को झुमा रहे थे और ‘ऐसे मौसम में मेरा बाहर निकलना मतलब, मुझे जामुनी-जामुनी हो जाना। फिर भी पापा ने मुझे रोका नहीं? तो फिर मैं भी स्वयम् को क्यों रुकूँगी? ऐसे मौके बार-बार नहीं आते, जो आ जाये, तो फायदा उठाओ, सो मैं जाऊँगी ही, मुझे चाहे जितनी भी ठंड लगे’ मैंने सोचा और तैयार होने चली गई।

हाथ-मुँह धोया, बालों की चोटी की, जो कपड़े पहने थे, उस पर और कपड़े पहन लिये और अंकल से कहा “मैं तैयार हो गई, चलें?”

**

हमलोग माइकलजॉन पहुँचे, कार्यक्रम शुरू हो चुका था। हम लोग भी चुपचाप जाकर पीछे वाली सीट पर बैठ गये। मंच की पृष्ठभूमि पर NAB का एक बड़ा-सा पहचान पत्र चिपका हुआ था, जहाँ अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था NATIONAL ASSOCIATION FOR THE BLIND. ‘ओह! तो ये है NAB.’ मैंने सोचा।

मंच पर एक छोटी लड़की नृत्य कर रही थी, मुझे उसका नृत्य अच्छा नहीं लगा। या फिर शायद! मैं नृत्य के बीच में आई, इसलिए वह मुझे समझ नहीं आया। फिर एक लड़का आया, उसने राजनीति पर कविता पढ़ी, कविता अच्छी थी। मैंने सोचा ‘काश! मुझे भी ऐसे ही कविता लिखनी आती।’ उस लड़के के बाद फिर एक और लड़का आया, उसने बहुत मधुर आवाज़ में गाया “एक प्यार का नग़मा है, मौज़ों की रवानी है।” क्योंकि ये गीत मुझे भी बहुत पसंद है तो मैं भी उस लड़के के साथ-साथ गुनगुनाने लगी, वह भी धीमे नहीं बल्कि खुली आवाज़ में। क्योंकि सभी दर्शक और श्रोता अंधेरे में बैठे थे, इसलिए मुझे किसी का डर नहीं था कि कोई मुझे गाते हुए देख लेगा। कार्यक्रम रात 8 बजे तक चला, अंत में हमारे शहर की एक मशहूर गायिका रूबी सिंह जी ने 26 जनवरी के उपलक्ष्य में एक देशभक्ति गीत पेश किया “ऐ मेरे वतन के लोगों।”

एक तो गीत ही इतना खूबसूरत है, तिस पर वह सिद्ध गायिका। उन्होंने जब गाना शुरू किया, पूरे प्रेक्षागृह में सन्नाटा पसर गया। उस सन्नाटे, उस अंधेरे में उनकी आवाज़ सिर्फ़ गूँज ही नहीं रही थी, बल्कि मंत्रमुग्ध कर रही थी, बेसुध कर रही थी। उन्हें सुनते हुए मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और उनकी आवाज़ को ऑक्सीजन की तरह धीमे-धीमे, सुकून के साथ मैं अपने ज़ेहन में, अपनी रगों में आत्मसात करने लगी। मुझे लगा, मैं जहाँ थी, वहाँ नहीं हूँ, मैं कहीं और हूँ। उस गीत को सुनकर लगा कि दिमाग़ का सारा बोझ कहीं छूट गया, शरीर हल्का हो गया और साँसें ताज़ा हो गईं।

गीत समाप्त हो गया था और पूरा हॉल तालियों की तड़तड़ाहट से गूँज गया। कुछ बच्चों को पुरस्कार दिये गये, कार्यक्रम समाप्त हो गया और फिर पूरा हॉल एक तेज रोशनी में चमक उठा। सभी दर्शक और श्रोता बाहर जाने लगे। पापा ने कहा “लोगों को निकल जाने दो, हम बाद में निकलेंगे।”

तभी मेरी नज़र अपने दाईं ओर गई, मैंने देखा, एक श्रीमान जी मुझे देखकर मुस्कुरा रहे हैं। पैंट-शर्ट पहने, चश्मा लगाये, उम्र यही कोई 35 की रही होगी। हमारी नज़र मिलते ही उन्होंने मुस्कुरा कर पूछा “क्या नाम है तुम्हारा?” क्योंकि ये स्थति अचानक बन गई तो मैं थोड़ी अचकचा गई, मुझे समझ नहीं आया कि ये किससे पूछा गया, इसलिए मैं अगल-बगल देखने लगी।

“बेटा तुम्हीं से पूछ रहा, क्या नाम है तुम्हारा?” उन्होंने फिर से मुझसे पूछा।

“ज्ज जी डॉली! डॉली परिहार।” मैंने कहा।

“वाह! बहुत सुंदर नाम है, पढ़ती हो? किस कक्षा में पढ़ती हो? किस स्कूल में? रहती कहाँ हो? पापा का नाम क्या है? क्या करते हैं वो?” ऐसे ही न जाने कितने सवाल उन्होंने मुझसे पूछे। मैंने सबके ज़वाब दिये। लेकिन पापा की बात आने पर मैंने बाईं ओर इशारा किया “ये मेरे पापा हैं।” तब वह पापा से बात करने लगे।

“नमस्ते! मेरा नाम बृजेश है, बृजेश मिश्रा और ये मेरी पत्नी हैं।” पीछे खड़ी एक मैडम की ओर इशारा करके उन्होंने कहा और आगे बोले “प्रीती मिश्रा, हम दोनों ही NAB में संगीत के शिक्षक हैं। आपकी बेटी बहुत अच्छा गाती है।” उनके ऐसा कहते ही मैं उन्हें आश्चर्य से देख सोचने लगी ‘इन्होंने कहाँ सुना?’

“मैंने अभी इसे गाते हुए सुना ‘एक प्यार का नग़मा है’ बहुत अच्छा गा रही थी, क्या ये संगीत सीखती है?” उन्होंने आगे पूछा।

“नहीं, ये संगीत नहीं सीखती, बस घर में दिनभर गाते रहती है। आप इसे बाथरूम सिंगर, किचन सिंगर, बेडरूम सिंगर कुछ भी समझिये।” पापा ने कहा।

“तो सिखाइये न! अच्छा तो गाती है।” बृजेश जी ने कहा तो पापा ने संगीत न सिखा पाने की अपनी मजबूरियाँ बताईं।

“ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ इसे संगीत सिखाने की। ये मेरा कार्ड है, इस पर NAB का पता और फ़ोन नंबर लिखा हुआ है। आप किसी दिन हमसे संपर्क कीजिएगा। वैसे मैं चाहता हूँ कि एक बार ही सही लेकिन आप इसे NAB लेकर आइये। हमारे NAB के बच्चे इससे मिलकर खुश होंगे और इसे भी शायद अच्छा लगे।” बृजेश जी ने अपना आइडेंटिटी कार्ड देते हुए कहा।

“ठीक है, आता हूँ किसी दिन।” पापा ने कहा।

हम घर आ गये लेकिन मेरे कानों में रूबी जी का वह गीत पूरे दिन गूँजता रहा, सिर्फ़ उस दिन ही नहीं बल्कि कई दिन। मैं सोचती ‘क्या ऐसा हो सकता है? कभी मैं भी ऐसे ही गीत गाऊँ, एक बड़े से हॉल में। यूँ ही अंधेरे और सन्नाटे में श्रोता और दर्शक मेरी आवाज़ को सुनें।’ फिर सोचती ‘लेकिन, मुझे तो संगीत का-सा भी नहीं पता, तो फिर मैं कैसे गा सकती हूँ? इतने बड़े मंच पर। हुँह! इसे कहते हैं ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’।’

आगे की बात अगले भाग में…

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