एक जीवनसाथी का चुनाव किसी भी इंसान के लिए कितना महत्वपूर्ण फ़ैसला होता है न? जब कोई इंसान अपने आसपास के लोगों को बताता है कि उसने किसी को अपना जीवनसाथी चुना है या जब आजकल लोग सोशल मीडिया पर रिलेशनशिप स्टेटस की घोषणा करते हैं तो आपने गौर किया है लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होती है?
“Oho! Who’s the lucky one?”
“कौन है भई वो सौभाग्यशाली?”
और यदि ‘हर एक फ्रेंड कमीना होता है’ वाले कैटेगरी के दोस्त हुए तो पूछेंगे…
“किसकी क़िस्मत फूट गयी?”
यदि यह रहस्योद्घाटन माता-पिता (विशेषतः माध्यम वर्गीय माता-पिता) के सामने हुआ हो तो सामने वाले व्यक्ति को अपने चुने हुए साथी की जाति, धर्म, फाइनेंसियल स्टेटस, सोशल स्टेटस की विस्तृत जानकारियाँ देनी पड़ सकती हैं।
ऊपर लिखी सारी बातें किन्तु सिर्फ़ गैर-विकलांग व्यक्तियों के लिए सही है। यदि कोई विकलांग व्यक्ति यह बात करता है कि वह किसी के साथ रिलेशनशिप में है या उसने किसी को जीवनसाथी चुना है तो हर रिश्ते से एक ही सवाल आता है – “उसे भी कोई विकलांगता (आजकल कुछ लोग दिव्यांगता भी कहते हैं) है क्या?” यह विकलांगता होने न होने का प्रश्न सिर्फ़ प्रश्न के स्तर पर नहीं रुकता। इसके बाद हर व्यक्ति अपनी-अपनी समझ से इस विषय पर अपनी राय ज़रूर देता है।
इस विषय पर पिछले 10-12 वर्षों में मुझे अलग-अलग व्यक्तियों से मिले सलाहों के बारे में बताती हूँ।
सलाह 1: तुम्हें विकलांगता है तो किसी ऐसे ही व्यक्ति से शादी करना जिसे कोई विकलांगता न हो… वह तुम्हारा ख़याल रख पाएगा।
सलाह 2: जब भी शादी करनी हो किसी विकलांग व्यक्ति से ही करना कोई ‘नॉर्मल’ इंसान तुम्हारी प्रॉब्लम को समझ नहीं पाएगा।
सलाह 3: किसी विकलांग व्यक्ति से ही शादी करना लेकिन ध्यान रखना कि उसकी विकलांगता तुमसे अलग हो। नहीं चल सकने वाले व्यक्ति से करोगी तो दोनों ही एक दूसरे की सहायता नहीं कर पाओगे।
हालाँकि ये तीनों सलाह एक दूसरे से बिलकुल अलग हैं लेकिन ग़ौर से देखिये तो तीनों ही बातों में एक बात सामान्य है – तीनों के केंद्र में ‘विकलांगता’ ही है। यह बात ऐसी लगती है जैसे किसी विकलांग व्यक्ति का अस्तित्व उसकी विकलांगता तक ही सिमटा हुआ है। वह मैं होऊँ या कोई भी और विकलांग व्यक्ति, ‘विकलांगता’ हमारे जीवन का केवल एक पहलू है, पूरा जीवन नहीं। जब शादी जैसे महत्त्वपूर्ण निर्णय की बात आती है तो उसमें जीवन के तमाम पहलूओं को छोड़ कर सिर्फ़ विकलांगता पर ही विचार क्यों? आप कह सकते हैं इस दृष्टिकोण से सोचना व्यवहारिक है। मैं कहती हूँ कि आत्मनिर्भरता, मानसिक अनुकूलता, एक दूसरे का सम्मान आदि उससे ज्यादा व्यवहारिक बातें होती हैं। किसी और विकलांग व्यक्ति के लिए कोई और दृष्टिकोण ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
कुल मिलाकर फ़िलहाल इतना ही कहना है कि कोई विकलांग व्यक्ति जब यह बात करे कि उसे कोई पसंद है या उसने किसी को अपना जीवनसाथी चुना है तो उससे यह सवाल मत कीजिये कि क्या उसने जिसे चुना है उसे भी विकलांगता है या नहीं। जैसे आप अपने आसपास के और लोगों के साथ करते हैं उसी सहजता से विकलांग व्यक्ति से भी पूछें “हमने सुना है, तुमने जीवनसाथी चुना है! जिसको तुमने चुन ही लिया है चीज़ वो क्या है?” सामने वाला व्यक्ति भी शायद इस गीत की हीरोइन जैसा ख़ुशी से इतरा कर बताए “कहीं होगा न ऐसा एक भी! होशियार है वो और नेक भी। कभी झूठ नहीं वो बोलता, कभी जहर नहीं वो घोलता। वो दिल का साफ़ है और है बिलकुल सच्चा।”
जब आप एक ‘ओपन एंडेड’ सवाल करते हैं कि वो कौन है या कैसा है तो सामने वाला आपको उन बातों, उन खूबियों के बारे में बता पाता है जो उसके लिए मायने रखती हैं।
यदि एक वयस्क विकलांग व्यक्ति और एक वयस्क गैर-विकलांग व्यक्ति ने शादी का फ़ैसला किया है तो आपको उनकी तर्कसंगतता पर भरोसा करना चाहिए कि दोनों को एक दूसरे में बराबरी का एक साथी नज़र आ रहा होगा। उन्हें मालूम होगा कि वे आगे ज़िन्दगी की चुनौतियों से कैसे साथ-साथ लड़ने वाले हैं।
जब कोई दो समान विकलांगता वाले वयस्क व्यक्ति शादी का फ़ैसला करते हैं तो आपको उनकी तर्क शक्ति पर यह भरोसा करना चाहिए कि उन्होंने इस विषय में सोचा होगा कि वे अपनी गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलाएँगे और उनका ‘ब्लाइंड स्पॉट’ क्या हो सकता है। उन्हें मालूम होगा कि वे आगे ज़िन्दगी की चुनौतियों से कैसे साथ में लड़ने वाले हैं।
यदि कोई दो भिन्न विकलांगता वाले वयस्क लोग शादी का फ़ैसला लेते हैं तो आपको उनकी तार्किकता पर भरोसा होना चाहिए कि उन्होंने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि कैसे वे एक दूसरे के पूरक बन कर जीवन में आगे बढ़ने वाले हैं। उन्हें मालूम होगा कि वे आगे ज़िन्दगी की चुनौतियों से कैसे साथ में लड़ने वाले हैं।
यहाँ एक सवाल आ सकता है कि यदि उनका फ़ैसला ग़लत हुआ तो? बेशक हो सकता है! विकलांग व्यक्ति देवलोक से सीधे उतरे हुए प्राणी नहीं हैं जो कभी ग़लत फ़ैसला ही न लें… वे भी हर आम मनुष्य की तरह ही हैं और ग़लतियाँ करना उनके स्वभाव का हिस्सा है। जिस तरह ग़ैर-विकलांग व्यक्तियों के पास ग़लती करने, ग़लती को दोहराते रहने, ग़लती से सीखने, ग़लती को सुधारने, ग़लती का परिणाम जीवन भर झेलते रहने आदि सभी विकल्प खुले हुए हैं वैसे ही ये सारे विकल्प विकलांगजन के लिए भी खुले रहने दीजिये। यह कोई बड़ी माँग तो नहीं है?
Very very beautiful and to-the-point article!
बहुत ही अच्छा लगा, एक एक शब्द में सच्ची बात बोल दी , जैसे अपने साथ ना जाने कितने लोगो के मन की बात बोल दी
सत्य सहज और सुन्दर….
सही बात है