हमारे देश की आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर हम सब आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। परंतु एक वर्ग आज भी अपनी वास्तविक पहचान और नाम के लिए तरस रहा है। हम बात कर रहे हैं विकलांगों, दिव्याँगों, निशक्तजनों तथा अन्य अन्य इसी तरह के नामों से पहचाने जाने वाले सामाजिक हाशिये के समूह की जो अपनी विशेष आवश्यकताओं व समस्याओं की वज़ह से सामान्य लोगों से थोड़ा भिन्न है। आमतौर पर हमारे समाज में विकलांगता के प्रमुख रूप से दो मॉडल है। पहला मेडिकल मॉडल है जो कहता है कि विकलांगता व्यक्ति में पाई जाती है। इसी प्रकार से दूसरा मॉडल हमें बताता है कि विकलांगता व्यक्ति से में ना होकर हमारी व्यवस्था, समाज, परिवेश व वातावरण की बाधाओं में समाई होती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विकलांगता एक बहु-पारिभाषिक शब्द है जिसमें हम न्यूनता, कमियाँ व अन्य गतिविधियों के संचालन की सीमाओं को पैमाने के रूप में देखते हैं। वस्तुतः यह एक जटिल प्रक्रिया है जो एक व्यक्ति की शरीर व मानसिक विशेषताओं और समाज में जीवनयापन की क्रिया को दर्शाती हैं। एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में लगभग एक अरब लोग किसी-न-किसी प्रकार की विकलांगता से ग्रस्त है; जो विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग 15 फीसद हिस्सा है। वैश्विक स्तर पर विकलांग व्यक्तियों का यह समूह विश्व के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूहों में से एक है जो कि उपेक्षा, अभाव, अलगाव और बहिष्कार का सामना करता है।
अगर हम हमारे देश की चर्चा करें तो विकलांगों की प्रथम जनगणना ही सन 2001 में शुरू हुई है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल 2.68 करोड़ लोग विकलांगता से प्रभावित पाए गए थे। यह हमारे देश की कुल आबादी का लगभग 2.21 फ़ीसदी के लगभग बनता है। हालांकि वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या का 2.13 फीसद हिस्सा विकलांग था — इनमें से 1.70 करोड़ विकलांग लोग गाँव देहात में रहते हैं। कुल आबादी में विकलांगों के प्रतिशत के लिहाज से गाँव में स्थिति ज़्यादा खराब है। विकलांगजन की जनगणना में एक और चिंताजनक संकेत सामने आया है और वह यह कि दलितों में विकलांगता अन्य वर्गों से ज्यादा है। हमारी विकलांगता की राष्ट्रीय औसत 2.21 फीसद के मुकाबले अनुसूचित जातियों में 2.45 फ़ीसदी विकलांगता पाई जाती है। जबकि इस मामले में जनजातियों की स्थिति अन्य समूहों से थोड़ी बेहतर है। अनुसूचित जनजातियों में यह औसत 2.05 फीसद है। जनगणना के आंकड़ों में शामिल विकलांगों में सबसे ज़्यादा लगभग 54 लाख लोग चलने फिरने में असमर्थ हैं। जबकि सुनने व देखने में असमर्थ लोगों की संख्या लगभग 50-50 लाख पाई गई है। हालांकि सरकारी आंकड़ों में बताया कम व छुपाया ज़्यादा जाता है।
विकलांगता के समाजशास्त्र को समझने के लिए सबसे पहले हमें विकलांगता के किसी भी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष अनुभव को एक अभ्यास से जानने का प्रयास अवश्य कर लेना चाहिए। आप एक बार मात्र एक दिन के लिए आँखें बंद करके अपने घर के बाहर जाने की कोशिश करें या फिर सिर्फ़ एक पैर के सहारे चल कर देखें। किसी दुर्घटना में चोट की वज़ह से कुछ दिन से बिस्तर पर पड़े रहने वाले किसी व्यक्ति से बात करके देखें कि वह कैसा अनुभव कर रहा है। यह अभ्यास विकलांगता के बारे में किसी आलेख या किताब पढ़ने से ज़्यादा जानकारी व समझ दे सकता है।
विकलांग व्यक्ति हमारे समाज के हर क्षेत्र में उपस्थित हैं — चाहे सरकारी सेवा हो, मनोरंजन, खेल, उद्योग हो या समाज के सामान्य नागरिक के रूप में हों। लेकिन इसमें हम राजनीतिक क्षेत्र को इससे अछूता ही कह सकते हैं क्योंकि राजनीति में इस वर्ग समूह की भागीदारी शून्य ही है।
कोई व्यक्ति चाहे कितना भी विकलांग क्यों ना हो, सबके कुछ जीवन उद्देश्य व कुछ सपने अवश्य होते हैं। हमारा समाज इनके जीवन उद्देश्य व सपनों को उड़ान दे सकता है और सपनों के पंख काट भी सकता है। विकलांगजन को हर स्तर पर अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। विकलांगता को समाज में कलंक के रूप में देखने की वजह से विकलांगों के प्रति समाज के व्यवहार में एक नकारात्मक मानसिकता दिखाई देती है। समाज में यह धारणा है कि व्यक्ति में विकलांगता उसके पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के फलस्वरुप भगवान द्वारा दी गई सजा है। अतः कोई भी इस स्थिति को नहीं बदल सकता क्योंकि भगवान ने जो कर दिया है वह सबको स्वीकार्य है। विकलांगजन को दिया गया नया नाम यानी ‘दिव्यांग’ मतलब जो आपको दिव्य शक्ति से प्राप्त हुआ है यह भी इसकी पुष्टि करता है। विकलांगजन रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कई पहलुओं पर ग़ैर-विकलांग लोगों की तुलना में अधिक नुक़सान व अलग-थलग महसूस करते हैं। जबकि हमारा समाज उनको बोझ जैसा महसूस करता है। यही नहीं हमारे परिवेश में विकलांगों के माता-पिता बच्चों तथा भाई बहन को भी इस तरह के नकारात्मक दृष्टिकोण का दंश झेलना पड़ता है।
आजकल सोशल मीडिया व सामान्यजन द्वारा विकलांगजन की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले चुटकुले, लतीफ़े, हँसी-मख़ौल फ़ब्तियाँ और गालियाँ बड़े पैमाने पर प्रयोग में लाए जाते हैं जो विकलांगजन की गरिमा को आहत करते हैं। असल में विकलांगता हमारे विकास के दोषपूर्ण मॉडल से जुड़ी हुई है। सामाजिक जीवन में व्याप्त रूढ़ियों व परंपराओं के कारण विकलांगों को सामान्य नागरिक के तौर पर सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा जाता। हमारी व्यवस्थाओं में समावेशी योजना बनाते हुए यह वर्ग आमतौर पर प्राथमिकताओं से सदा ओझल रहता है। इस वर्ग को हमेशा दीन-हीन और दया व सहानुभूति का पात्र बनाए रखने के लिए मज़बूत किलेबंदी की जाती है जिसे वह हमेशा के सच मानने लगता है। हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि यदि उन्हें बराबर के अवसर दिए जाएँ तो वे शक्तिशाली व क्षमतावान सिद्ध होंगे। अगर उनकी उर्जा का रचनात्मक सदुपयोग हो जाए तो उनमें आशाएँ बढ़ेंगी और स्वाभिमान व स्वालंबन का भाव जागृत होगा। विश्व विख्यात वैज्ञानिकों जैसे अल्बर्ट आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत, थॉमस अल्वा एडिसन का बिजली बल्ब, लुई ब्रेल का ब्रेल लिपि का आविष्कार आज भी इस दुनिया को रास्ता दिखा रहे हैं। ये सभी वैज्ञानिक विभिन्न शारीरिक व मानसिक न्यूनताओं के शिकार थे। स्टीफ़न हॉकिंग इसकी एक अन्य बड़ी मिसाल हमारे समाज के सामने हैं जिन्होंने इस दुनिया का रहस्य सबको समझाया। लेकिन हमारे देश में पुरानी शैक्षिक व्यवस्था के तहत विकलांगों के लिए विशेष विद्यालयों में शिक्षा देकर उन्हें सामाजिक सहयोग से हमेशा के लिए काट दिया जाता था। उन्हें नियमित विद्यालयों में भेजना आवश्यक है जिससे उनका सामाजिक व सांस्कृतिक एकीकरण आसानी से संभव होता है।
यहाँ विकलांगजन की शिक्षा, स्वास्थ्य की सरकार व समाज की ज़िम्मेदारी ज़्यादा बढ़ जाती है। लेकिन ऐसे मामलों दोनों ही पक्ष संवेदनशील होकर काम नहीं करते हैं। विकलांगजन के शैक्षिक अधिकारों की व्यापक तौर पर अनदेखी हुई है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में विकलांगजन में लगभग 1.50 करोड़ यानी 51 फ़ीसदी आज भी निरक्षर हैं व 26 फ़ीसदी से ज़्यादा प्राथमिक शिक्षा नहीं ले पाए व 6 फीसद सिर्फ़ मिडिल स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण कर सके हैं। इस प्रकार से 13 फ़ीसदी ने वरिष्ठ माध्यमिक स्तर तथा उच्च शिक्षा प्राप्त की है । प्रत्येक मानव एक संसाधन है। यदि वह किसी भी वज़ह से अर्थव्यवस्था की समृद्धि के लिए अपना योगदान नहीं दे सके तो इसका सीधा नुक़सान सम्बंधित समाज में देश को होता है। उन्हें शिक्षित व कुशल करके समान अवसर उपलब्ध करवाकर राष्ट्रीय संस्थानों की आय के रूप में सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। हमारे देश में विकलांगों की इतनी बड़ी आबादी के बावजूद लोग आज तक उनके अधिकारों के बारे में जानते तक नहीं है। हमारा सभ्य समाज उन्हें केवल भीख और चंदा देकर ही अपने कर्तव्यों से मुक्त हो जाता है। जबकि उनकी आवश्यकता दया व सहानुभूति का पात्र बनने की नहीं अपितु उन्हें सक्षम व अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करके अधिकार संपन्नता सामर्थ्य हासिल करने से है।