सुनिए ज़रा…
जी, जी आपसे ही बात कर रही हूँ। एक छोटी-सी मदद चाहिए थी। कुछ खो गया है मेरा ढूँढने में मेरी मदद कर देंगे? हाँ, हाँ बहुत ज़रुरी चीज़ है। कोई ज़रूरी चीज़ न होती तो नाहक ही क्यों परेशान करती आपको? उसकी अहमियत? मेरे दिल से पूछिए तो मेरी आज़ादी, मेरा स्वावलंबन, मेरा स्वाभिमान सब कुछ तो है वह और आपके समझने वाली किताबी भाषा में बोलूँ तो… मेरा “मौलिक अधिकार” !
क्या कहा आपने? मुझे पहले ख़ुद प्रयास करना चाहिए था? मैंने बहुत प्रयास किया, क़सम से हर जगह ढूँढा पर कहीं नहीं मिला।
हाँ, सच कहती हूँ, मैं स्कूल गयी, मैं कॉलेज भी गयी, बराबरी का अधिकार, अपनी शिक्षा का अधिकार ढूँढने! पर… क्या बताऊँ मुख्य द्वार पर ही रोक दिया गया। नहीं-नहीं किसी इंसान ने सशरीर आकर ख़ुद नहीं रोका परन्तु उनकी बनाई व्यवस्था ने मेरा रास्ता रोक लिया था। वहाँ केवल सीढियाँ ही सीढियाँ थीं, कोई रैम्प नहीं जिससे मैं या मेरे जैसे और भी व्हीलचेयर इस्तेमाल करने वाले लोग, कैलिपर, बैसाखियों वाले या फिर दृष्टिबाधित लोग जा सकें। एक कॉलेज में रैम्प जैसा कुछ देख के आशा जगी कि शायद यहाँ मिल जाए मेरे अधिकार। लेकिन, वह भी ऐसा रैम्प था कि चढ़ने का प्रयास करते ही व्हीलचेयर के साथ लुढक कर मैं औंधे मुँह सड़क पर गिर गयी। फिर भी मैं वापस नहीं लौटी। मेरे इसी स्वभाव के कारण आप मुझे ‘फाइटर’ कहते हैं न! वैसे ईमानदारी से कहूँ तो ऐसी जगहों पर ‘फाइट’ करने की ज़रूरत पड़नी नहीं चाहिए; न मुझे न मेरे जैसे किसी और व्यक्ति को।
ख़ैर, एक राहगीर से मदद माँग कर मैं अंदर गयी। क्या आप विश्वास करेंगे कि अंदर एक भी कमरा… जी हाँ, एक भी कमरा ऐसा नहीं था जिसमें मेरे जैसे विकलांग छात्र-छात्राएँ जा सकें। जब हमारे पढ़ने के लिए कक्षाएँ ही नहीं तो शौचालय ढूँढना तो बेवकूफ़ी ही है। मन में एक बात आई “क्या ये शिक्षण संस्थान यह मान कर बनाये जाते हैं कि हमारे देश में विकलांग विद्यार्थी हैं ही नहीं? क्या ऐसा सोच कर वे हमारे मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर रहे?”
क्या? पत्राचार के ज़रिये से घर बैठे डिग्री ले लेने के बाद मेरी लाइफ सेट है? अजी छोड़िये! पहली बात तो ये कि हर विद्यार्थी की तरह मेरा भी अधिकार है किसी भी शिक्षण संस्थान में पढ़ने का। दूसरी बात, दो मिनट के लिए आपकी बात मान कर पत्राचार के ज़रिये डिग्री ले भी लूँ तो ‘लाइफ सेट है’ ये आपकी ग़लतफ़हमी ही है। खैर, आप सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं न? हा-हा-हा … माफ़ कीजियेगा, आप पर नहीं हँस रही, बस हँसी आ गयी। वह कहते हैं न ‘हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है’। पहले सबकी बातें सुन-सुन कर मैं भी कुछ ऐसा ही सोचती थी और इग्नू से स्नातक की डिग्री लेने के बाद मैंने एक नौकरी के लिए फॉर्म भरा भी था। सचमुच विकलांग अभ्यर्थियों के लिए एक अलग सेंटर दिया था उन लोगों ने। और पता है उस सेंटर की ख़ासियत क्या थी? ख़ासियत यह थी कि सेंटर में एक भी कमरा ग्राउंड फ़्लोर पर नहीं था। सभी अभ्यर्थियों को सीढ़ियों से ऊपरी मंज़िलों तक जाना था। कोई गोद से जा रहा था तो कोई ज़मीन पर घिसटते हुए… जब आगाज़ ये था तो अंजाम की कल्पना तो की ही जा सकती है।
आपको विश्वास नहीं हो रहा? अरे कोई बात नहीं, मेरा विश्वास न कीजिये… बस सरकारी दफ्तरों का एक चक्कर लगा के देख लीजिए… आपको ख़ुद नज़र आ जायेगा कि उन दफ्तरों की संरचना कितनी सुगम्य है। कोई भी बैंक, ए.टी.एम., पोस्ट ऑफिस — कहीं भी जा कर देख लीजिए कि विकलांगो, चाहे वह कर्मचारी हो या कोई और — क्या उनके लिए आने-जाने का सुगम्य रास्ता बना है हर जगह? अगर बराबरी का अधिकार है तो कहाँ है? नज़र क्यों नहीं आता?
जी, क्या कहा आपने? मेरा दिमाग़ गरम हो गया है? थोड़ी ठंडी हवा खा लूँ? हाँ, ठीक है पँखा चला लेती हूँ, वैसे भी आजकल सूरज का पारा चढ़ा हुआ है। वैसे ठंडी हवा खाने से याद आया… सभी कहते हैं प्राकृतिक हवा स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभकारी होती है। यही सोच कर मैं भी और लोगों की तरह पार्क गयी थी लेकिन देखिये ना इतने सारे पार्क और सब के लिए 3-3, 4-4 गेट बने हुए हैं पर उसमें से एक भी गेट विकलांगो की सुगमता के लिए नहीं है!
बराबरी का अधिकार, पढ़ने का अधिकार, सार्वजनिक जगहों पर जाने का अधिकार, सामजिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार… ये सब अधिकार तो मेरे मौलिक अधिकार हैं न? फिर क्यों बुनियादी ढाँचे मुझे मेरे अधिकारों से वंचित करने के लिए अपनी विशाल दुर्गम्यता लिए हर जगह खड़े हैं? किसने दिया है उन्हें मेरी मौलिक अधिकारों को चुराने का अधिकार?
सुनिए न प्लीज़! मेरे मौलिक अधिकार ढूँढ कर ला दीजिये न!
आपका लेखन बहुत सुन्दर है। अधिकार अगर मांगने से मिल जाते तो आज नज़ारा ही कुछ ओर होता…
जब तक विकलांग बाहर नहीं निकलेंगे दुनिया के सामने नहीं आएंगे तब तक हमारी सुगमता का ध्यान किसी को नहीं आएगा जब तक विकलांग लोग घरों में कौनो में पड़े रहेंगे तब तक यह सब चलता रहेगा हम लोगों को अपनी झिझक छोड़ कर बाहर निकलना होगा दुनिया को दिखाना होगा कि हम भी इसी धरती के प्राणी है और यह सब हमारी जरूरत है