बात तब की है जब हमारे आस-पास डिलीवरी बॉयज की फौज अपने भारी बैग्स सहित गलियों में घूमती नज़र नहीं आती थी। कोई इक्का-दुक्का कुरियर वाला दिन में पार्सल पहुँचाता नजर आ जाता था। हम उन दिनों घंटों गली में बिताते थे। बाद में कोरोना ने आकर गलियों में बैठने पर जैसे प्रतिबंध सा लगा दिया और अब तो घर से निकले ही महीनों बीत जाते हैं। ख़ैर… उन कुरियर पहुँचाने वालों में से एक वो भी था।
उसका नाम नहीं जानता लेकिन और लोगों की तरह उसे उसके काम से जानता हूँ। ख़त या पार्सल पहुँचाने का उसका अपना ही अंदाज था। अपनी साइकल को दरवाजे पर रोकता, खड़ा नहीं करता था लिटा देता था। फिर जिसका ख़त होता उनका दरवाजा खटखटाता उनके आने पर उन्हें ख़त या लिफाफा जो भी होता देकर कान पर टिकाए या मुँह में पकड़े पेन को उन्हें दे हाथ में पकड़े कागजों पर रिसीवर का सिग्नेचर लेता और अपनी साइकल उठा चलता बनता। उसके पास झोला भर के ख़त या लिफाफे कभी नहीं होते थे। उसकी एक बाजू नहीं होने के कारण शायद वह उतना ही समान लाता जितना एक चक्कर में आसानी और सहूलियत से पहुँचा सके। इसलिए वह दिन में कई बार मोहल्ले में दिख जाया करता था। उसका साइकल पर चढ़ना और उतरना डरा देता था कि कहीं वह लड़खड़ा कर गिर न पड़े। दरवाजा खटखटाते या कॉल-बेल बजाते हुए गिरे पेन या किसी कागज़ को उठाने में बहुत बार उसका काफी श्रम और वक़्त खर्च हो जाता लेकिन जब तक ख़त लेने वाला आता तब तक वो पेन उठा चुका होता या पेन तक पहुँच गया होता। उसका ऐसा संघर्ष लगभग हर रोज़ होता था। उसका एक हाथ नहीं था लेकिन मनोबल इतना था कि वह एक हाथ से ही अपनी दुनिया का भार उठा चुका था। अपने संघर्ष में वह पारंगतता हासिल कर चुका था।
लोगों की इस पर अलग-अलग राय थी। कोई कहता ‘कम से कम किसी से माँग तो नहीं रहा, कमा रहा है, खा रहा है’। तो कोई कहता कि ‘परिवार को शर्म नहीं आती कि इस प्रकार विकलांग व्यक्ति को कमाने भेज देते हैं’। फिर कोई यह भी कहता – ‘अरे ये कुरियर वाले देते ही कितना होंगे इसे, ये जितनी मेहनत करता है, उतना तो कोई नहीं देता दे सकता’। किसी को उसमें उसकी एक बाँह कम दिखती तो कोई उसके साइकल चलाने में जोखिम की अधिकता देखता। अपने कार्य में मसरूफ वो एक बाजू का कुरियर बॉय (आम भाषा में उसे ऐसा ही कहते थे) कभी किसी को आँख उठा कर नहीं देखता था। शायद वह अपने लिए किसी आँख में उभरे रहम या उपेक्षा का भाव नहीं देखना चाहता था।
धीरे-धीरे उसके परिश्रम ने रंग दिखाना शुरू किया और वह पहले अधिक व्यवस्थित दिखाई देता। साइकल की जगह मोपेड ने ले ली थी। जिससे चढ़ने-उतरने का जोखिम खत्म-सा कर लिया था उसने। मोपेड पर उसका नियंत्रण साइकल से अधिक जान पड़ता था। मोपेड में खतों लिफाफों को रखने की जगह होने के कारण मोपेड को आसानी से स्टैंड पर लगा सकता था। कद काठी में लंबा होने से मोपेड पर चढ़ने-उतरने में सरलता थी। जब साइकल पर था तब साइकल रुकने से पहले उतरना होता और साइकल पर उसके गति पकड़ने के बाद चढ़ने में मुश्किल थी। खुशी होती थी उसे आगे बढ़ता देख।
धीरे-धीरे वह मोहल्ले में कम नज़र आने लगा। फिर दिखना बंद हो गया। नकारात्मक विचारों को दरकिनार करते हुए कहा जा सकता है कि उसे किसी और कॉलोनी में कार्य करने के लिए स्थानांतरित कर दिया गया हो। हो सकता है उसने अपनी कुरियर कंपनी खोल ली हो और अब डिलीवरी का काम उसके कर्मचारी करते हों।
जो भी था हमारे लिए वो कुछ सवाल जरूर छोड़ गया। एक बाजू कम होने से ज़िंदगी कम हुई? लोगों की बातों से ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं? बिना जोख़िम उठाए जिया जा सकता है? जबकि साँस लेने में भी आजकल जोखिम है।
कहते हैं अजीब घटनाएँ ही याद रह जाती हैं। तभी शायद मुझ जैसे भुल्लकड़ को वो कुरियर वाला और उसके काम करने का अपना ही ढंग आज भी याद है।