स्कोलियोसिस से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारी

scoliosis ke prakaar

स्कोलियोसिस क्या है?

स्कोलियोसिस रीढ़ की हड्डी की एक विकृति है। इसको मेरु-वक्रता या पार्श्वकुब्ज्ता भी कहते है। स्कोलियोसिस में रीढ़ की हड्डी सीधी न रहकर एक या दो जगहों पर से मुड़ या झुक जाती है। इस घुमाव या झुकाव को और अंग्रेजी में curve कहते है। यह घुमाव/झुकाव अंग्रेज़ी के अक्षर C या S आकार में होता है। C कर्व में रीढ़ एक तरफ़ झुक जाती है। इससे कमर का एक तरफ़ का हिस्सा दबा हुआ और दूसरी तरफ़ का हिस्सा उभरा हुआ प्रतीत होता है। S आकार के कर्व में रीढ़ की हड्डी दो जगहों पर से मुड़ी होती है। स्कोलियोसिस रीढ़ के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकता है। जब यह कमर के ऊपरी भाग में होता है तो इसे ‘थोरेसिक स्कोलियोसिस’ कहते हैं और जब निचले भाग में होता है तो इसे ‘लम्बर स्कोलियोसिस’ कहा जाता है। प्रमुख-रूप से यह कमर के ऊपरी या निचले भाग को ही प्रभावित करता है। स्कोलियोसिस किसी भी आयु वर्ग में (जन्म से वृद्धाअवस्था तक कभी भी) हो सकती है। परन्तु किशोरावस्था में स्कोलियोसिस होने की संभावना सबसे अधिक होती है। आमतौर पर लड़कों में 10 से 15 वर्ष की आयु तक और लडकियों में 10 से 12 वर्ष की आयु तक स्कोलोसिस होने की संभावना अधिक होती है। लड़कों की तुलना में लड़कियों में स्कोलियोसिस अधिक होता है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि किशोरावस्था में लड़कियों के शरीर में लड़कों के शरीर की तुलना में अधिक परिवर्तन होतें हैं। स्कोलियोसिस का पता सामान्य शारीरिक परीक्षण कर या फिर एक साधारण एक्स-रे की सहायता से किया जा सकता है। रीढ़ की वक्रता का मापन डिग्री में होता है। एक कोब एंगल के द्वारा रीढ़ की वक्रता डिग्री का पता लगाया जाता है। यदि स्कोलियोसिस 10 से 20 डिग्री है और प्रभावित व्यक्ति की लम्बाई बढ़ने के साथ डिग्री में कोई बढ़त नहीं हो रही है तो इस स्थिति में इलाज की कोई आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन लम्बाई बढ़ने के साथ या रुकने के बाद भी यदि स्कोलियोसिस की डिग्री बढ़ रही है तो निश्चित रूप से उचित इलाज की आवश्यकता होती है। रीढ़ की वक्रता के आधार पर ही डॉक्टर इलाज की उचित विधि का चयन करते हैं। प्रारंभिक या हल्के स्कोलियोसिस (जिस की वक्रता 20 से 45 डिग्री के बीच होती है) के इलाज के लिए डॉक्टर विशेष ब्रेसिज़, फ़िजियोथेरेपी और उचित व्यायाम का प्रयोग करते है। रीढ़ की वक्रता 50 से 70 डिग्री हो जाने पर डॉक्टर सर्जरी के बारे में विचार करते हैं। सर्जरी का निर्णय लेने से पहले रीढ़ के वक्र की डिग्री, व्यक्ति की आयु, लिंग के साथ-साथ उसकी शारीरिक स्थित (अन्य शारीरिक विकार है या नहीं) को भी संज्ञान में लिया जाता है।

स्कोलियोसिस के प्रकार

स्कोलियोसिस मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है:

  1. इडियोपेथिक स्कोलियोसिस
  2. कॉनजेनिटल स्कोलियोसिस
  3. न्यूरोमस्कुलर स्कोलियोसिस
  4. डिजनरेटिव स्कोलियोसिस

इडियोपेथिक स्कोलियोसिस

जब स्कोलियोसिस के होने का कारण पता न चले तो उस स्थिति को इडियोपेथिक स्कोलियोसिस कहते है। किसी व्यक्ति में इसकी शुरुआत मुख्यत: किशोरावस्था में होती है। परन्तु निदान अधिकतर व्यस्कावस्था में ही हो पाता है। ऐसा इसलिये है क्योंकि जब तक वक्र समस्या उत्पन्न नहीं करता तब तक व्यक्ति को किसी प्रकार के निदान या इलाज की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। इडियोपेथिक स्कोलियोसिस; स्कोलियोसिस का सबसे सामान्य प्रकार है। यह मुख्य रूप से कमर के थोरेसिक (ऊपरी) हिस्से को प्रभावित करती है। करीब 85% मामलों में इडियोपेथिक स्कोलियोसिस ही पायी जाती है।

कॉनजेनिटल स्कोलियोसिस

यह जन्मजात होता है। जन्म से पहले जब शिशु के शरीर का निर्माण हो रहा होता है। यदि तब किन्ही कारणों से रीढ़ की हड्डी का विकास ठीक से न हो पाए या कोई चोट लग जाये तो कॉनजेनिटल स्कोलियोसिस की संभावना हो सकती है। इस प्रकार का स्कोलियोसिस सबसे कम देखने को मिलता है। करीब 10,000 हज़ार शिशुओं में से किसी एक को ही कॉनजेनिटल स्कोलियोसिस प्रभावित करती है।

न्यूरोमस्कुलर स्कोलियोसिस

यह स्कोलियोसिस का दूसरा सामान्य प्रकार है। इसे NMS के नाम से भी जाता है। जो मांसपेशियाँ रीढ़ की हड्डी को मजबूती व नियंत्रण देती है, उनके कमज़ोर होने व केंद्रिय तंत्रिका से जुड़ी अन्य समस्याओं के कारण न्यूरोमस्कुलर स्कोलियोसिस होता है। सेरेब्रल पाल्सी, स्पाइना बीफिडा व रीढ़ की हड्डी में चोट इत्यादि NMS के आम कारक हैं। इडियोपेथिक स्कोलियोसिस की तुलना में न्यूरोमस्कुलर स्कोलियोसिस अधिक गंभीर और प्रगतिशील है। यह व्यक्ति के कार्डियोपल्मोनरी सिस्टम, चलने, खड़े होने और बैठने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकता है।

डीजेनेरेटिव स्कोलियोसिस

इसे Adult Onset Scoliosis भी कहते है। यह अधिकतर कमर के निचले हिस्से को प्रभावित करता है। डीजेनेरेटिव स्कोलियोसिस में रीढ़ असामान्य रुप से C आकार में मुड़ी होती है। सटीकता से यह अनुमान नहीं लगया जा सकता कि कितने प्रतिशत लोग डीजेनेरेटिव स्कोलियोसिस से प्रभावित होते है; क्यूंकि अनेक मामलों में इसका कोई लक्षण प्रकट नहीं होता। हालांकि एक अध्ययन से पता चलता है कि 60 वर्ष से ज्यादा आयु वाले लोगों में से 60% लोगों में हल्के डीजेनेरेटिव स्कोलियोसिस के लक्षण देखने को मिलते हैं।

स्कोलियोसिस के कारण

अधिकतर मामलों में स्कोलियोसिस होने के कारणों का पता ही नहीं चलता। इस तरह के स्कोलियोसिस इडियोपेथिक स्कोलियोसिस कहा जाता है। जिन मामलों में स्कोलियोसिस के कारणों का पता चलता है उनको दो वर्गों में रखा जाता है। पहला स्ट्रक्चरल और दूसरा नॉन-स्ट्रक्चरल । नॉन-स्ट्रक्चरल प्रकार में रीढ़ की हड्डी मुड़ी हुई तो होती है लेकिन इससे उसकी कार्यप्रणाली में कोई रुकावट नहीं आती। स्ट्रक्चरल स्कोलियोसिस में कुछ अन्य बीमारियाँ स्कोलियोसिस की वजह बनती हैं; जिनमें जन्मजात विकार, सेरेब्रल पाल्सी, मस्क्युलर डिस्ट्रोफी, स्पाइना बिफिडा, रीढ़ की चोट, पोलियो, ओस्टोजैनेसिस इम्परफेक्टा आदि शामिल हैं। कॉनजेनिटल स्कोलियोसिस स्ट्रक्चरल स्कोलियोसिस के अंतर्गत ही आती है।

स्कोलियोसिस के लक्षण

प्राय: स्कोलियोसिस के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में उसकी आयु, लिंग, वज़न और व्यक्ति में स्कोलियोसिस की गंभीरता के आधार पर भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। स्कोलियोसिस की प्रारंभिक स्थिति में लक्षण बहुत कम नज़र आतें हैं। गंभीर स्कोलियोसिस में मुख्य रूप से निम्नलिखित लक्षण देखने को मिलते हैं।

सामान्य लक्षण

  • कमर एक तरफ़ झुकी हो सकती है
  • कंधों की ऊँचाई एक-दूसरे से भिन्न हो सकती है
  • एक कूल्हा आकार में दूसरे से बड़ा या छोटा हो सकता है
  • एक तरफ की पसलियाँ दूसरी की तुलना में उभरी हुई होती है
  • एक पैर दूसरे से छोटा हो जाता है
  • सिर केंद्र में सीधा न होकर एक तरफ़ झुका हो सकता है
  • व्यक्ति का पूरा शरीर आगे या एक तरफ़ झुक जाता है

गंभीर लक्षण

  • साँस लेने में मुश्किल होना
  • फेफड़ों के फैलाव के लिए छाती के क्षेत्र में कमी होना
  • हृदय गति का बढ़ना
  • कमज़ोरी, थकान और आलस्य महसूस होना
  • छाती में जकड़न महसूस होना
  • पीठ दर्द
  • कमर का असहज होना।

स्कोलियोसिस का निदान

स्कोलियोसिस के निदान के लिए डॉक्टर मुख्य रूप से शारीरिक परीक्षण और रेडियोलोजिकल परीक्षण का उपयोग करतें हैं।

  • शारीरिक परीक्षण:- इसमें व्यक्ति की पीठ का व अन्य अंगों का परीक्षण किया जाता है। वक्रता की स्थिति जानने के लिए कंधे, कमर और कूल्हों की ऊँचाई व उभारों का विश्लेषण किया जाता है। व्यक्ति को सीधा खड़ा कर हाथ ऊपर कर, आगे झुका कर, बैठा कर, आगे-पीछे, दायें-बाएँ तरफ़ से उसके अंगों की स्थिति का विश्लेषण किया जाता है। डॉक्टर देखते हैं कि क्या कंधे और कूल्हे समान स्तर पर है; और क्या सिर कंधों के ठीक केंद्र में स्थित है। ये सभी जाँच करने के बाद ही डॉक्टर वक्र की संभावित स्थिति का अनुमान लगा पाते हैं।
  • रेडियो-इमेजिंग-परीक्षण:- शारीरिक परीक्षण के अंतर्गत शरीर के आंतरिक अंगों की स्थिति का परीक्षण करने के लिए डॉक्टर रेडियो-इमेजिंग-परीक्षण का प्रयोग करते हैं। इसके अंतर्गत मुख्य रूप से निम्नलिखित परीक्षण किये जाते हैं।
    • एक्स-रे
    • सी.टी. स्कैन
    • एम.आर.आई. स्कैन
    • बोन स्कैन

स्कोलियोसिस के इलाज के प्रकार

सामान्य, गंभीर प्रगतिशील स्कोलियोसिस के आधार पर ही स्कोलियोसिस के इलाज के प्रकार का चुनाव किया जाता है। स्कोलियोसिस के इलाज के प्रमुख विकल्प निम्नलिखित हैं:

  • ब्रेसिज़:- वक्र के आकार के आधार पर ब्रेसिज़ कई प्रकार के होते हैं। जब रीढ़ की वक्रता विकसित हो रही होती है तब वक्र की प्रगति को बाधित और स्थिर करने के लिए अलग-अलग तरह के ब्रेसिज़ का उपयोग किया जाता है। किशोर और युवा वयस्कों में ब्रेसिज़ का प्रयोग बहुत लाभदायक सिद्ध होता है। जब वक्र हल्का या 25 से 40 डिग्री के बीच हो परन्तु इसमें 6 महीने के भीतर 5 डिग्री से अधिक की वृद्धि हो रही हो तब ब्रेसिज़ स्कोलियोसिस के इलाज का पहला प्रकार होता है। ‘अंडरआर्म’ और ‘मिल्वोकी’ ब्रेसिज़ के मुख्य प्रकार हैं। डॉक्टर व्यक्ति को वक्रता की डिग्री के आधार पर 16 से 23 घंटे ब्रेसिज़ पहनने की सलाह दे सकते हैं।
  • फिजियोथेरेपी:-यह स्कोलियोसिस के लिए एक प्रभावशाली इलाज है। फ़िजियोथेरेपी को ब्रेसिज़ के साथ समायोजित करके या उसके बिना भी उपयोग में लाया जा सकता है। यह उन मांसपेशियों को संतुलन और मजबूती प्रदान करती है जो रीढ़ की वक्रता से सम्बंधित होती हैं। फ़िजियोथेरेपी स्ट्रेचिंग व अन्य तरीकों द्वारा जकड़ी हुई मांसपेशियों को स्वतंत्र कर उन्हें लम्बे समय तक कार्य करने योग्य बनाती है। फ़िजियोथेरेपी के अंतर्गत ट्रेक्शन व अनेक व्यायामों को भी सम्मलित किया जाता है। गंभीर स्कोलियोसिस में फ़िजियोथेरेपी के द्वारा रीढ़ की वक्रता को कम नहीं किया जा सकता; लेकिन स्कोलियोसिस की वजह से उत्पन्न अन्य विकारों का समाधान किया जा सकता है। जैसे कि स्कोलियोसिस के तीव्र दर्द में और श्वसन सम्बंधित समस्याओं में आराम दिलाने में फ़िजियोथेरेपी सहायक होती है।
  • हेलो ग्रेविटी ट्रैक्शन:- इसका उपयोग गंभीर स्कोलियोसिस के इलाज में सहायक इलाज के रूप में किया जाता है। सर्जरी से पहले व्यक्ति को हेलो-ग्रेविटी-ट्रेक्शन दिया जाता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति के सिर पर पिनों द्वारा एक धातु का गोल रिंग लगया जाता है। इस रिंग की सहायता से व्यक्ति के सिर और रीढ़ के बीच विपरीत दिशा में खिंचाव किया जाता है। यह खिंचाव रिंग पर से एक डोरी की सहायता से निश्चित वज़न डालकर किया जाता है। हेलो-ग्रेविटी-ट्रेक्शन का उद्देश्य रीढ़ की वक्रता में सुरक्षित रूप से कुछ सुधार करना और सर्जरी के दौरान तंत्रिका तंत्र व आसपास के उत्तकों में होने वाले नुकसान को कम करना होता है। हेलो-ग्रेविटी-ट्रेक्शन की समय अवधि करीब 3 से 8 सप्ताह तक हो सकती है। यह अवधि रीढ़ की वक्रता और व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करती है।
  • काइरोप्रैक्टिक:- काइरोप्रैक्टिक इलाज की एक ऐसी पद्धति है जिसमें काइरोप्रैक्टर नामक थेरेपिस्ट रीढ़ की हड्डी, मांसपेशियों और जोडों में उत्पन्न विकारों का अपने हाथों से निश्चित जगह निश्चित दबाव डालकर इलाज करता है। ‘वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ़ काइरोप्रैक्टिक’ के अनुसार यह हड्डियों के तंत्र में किसी भी तरह के विकार और उस विकार से तंत्रिका तंत्र व शरीर के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभाव के इलाज के लिए प्रयोग किया जाने एक तरीका है। यह पद्धति सर्जरी के बिना रीढ़, जोड़ों व मांसपेशियों को पुनः सुनियोजित, स्थापित करने, मजबूती प्रदान करने पर ज़ोर देती है। काइरोप्रैक्टिक इलाज का एक परम्परागत तरीका न होकर एक वैकल्पिक तरीका है। यह रीढ़ की कम वक्रता वाले स्कोलियोसिस के इलाज में उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
  • एक्सरसाइज:- शारीरिक/मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक्सरसाइज हमेशा से ही लाभदायक माने जाते रहे हैं। स्कोलियोसिस एक शारीरिक समस्या है। अत: इसके उपचार में एक्सरसाइज का उपयोग किया जा सकता है। एन.सी.बी.आई. (नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इंफोर्मेशन) की वेबसाइट पर प्रकाशित एक मेडिकल रिसर्च के अनुसार एक्सरसाइज शारीरिक मुद्रा को सीधा करने का एक अच्छा विकल्प हो सकता है। स्कोलियोसिस के कारण शारीरिक मुद्रा में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। जिनको एक्सरसाइज की सहायता से कुछ सीमा तक सुधार जा सकता है। एक्सरसाइज को ब्रेसिज़ और सर्जरी के साथ समायोजित भी किया जाता है। रिसर्च में यह भी ज़िक्र मिलता है कि एक्सरसाइज स्कोलियोसिस का कोई स्थायी इलाज नहीं है और न ही इसे सर्जरी व ब्रेसिज़ का विकल्प ही माना जा सकता है। यह बस समस्या में राहत प्रदान करने का एक तरीका है। एक्सरसाइज इलाज के अन्य तरीकों के साथ समन्वित रूप में कार्य करती है। स्कोलियोसिस के लिए प्रयुक्त कुछ प्रमुख एक्सरसाइज निम्नलिखित हैं। नोट: कोई भी एक्सरसाइज या व्यायाम डॉक्टर के उचित परामर्श व देखरेख में ही करना चाहिए।
    • इन्वोलन्टरी एक्सरसाइज
    • एंटी-स्कोलियोसिस पोश्चर एक्सरसाइज
    • मिरर इमेज एक्सरसाइज
    • स्क्रॉल एक्सरसाइज
    • कैट/काउ पोज़ एक्सरसाइज
    • ब्रीथिंग एक्सरसाइज
    • श्रोथ मेथड एक्सरसाइज
  • सर्जरी:- यह इलाज का अंतिम विकल्प है। इसका प्रयोग गंभीर स्कोलियोसिस के उपचार हेतु किया जाता है। स्पाइनल फ्यूजन और स्पाइन एंड रिब आधारित सर्जरी सर्जरी के दो मुख्य प्रकार है। सर्जरी में रॉड्स, स्क्रू और बोन ग्राफ्ट आदि पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है। सर्जरी, स्कोलियोसिस के इलाज का एक ज़ोखिम भरा और महंगा प्रकार है। सर्जरी के लिए जाने से पहले व्यक्ति को इसके सभी पहलुओं पर अपने डॉक्टर के साथ विचार करना अत्यंत आवश्यक होता है।

स्कोलियोसिस के इलाज की आवश्यकता

इलाज व्यक्ति की आयु, लिंग, स्कोलियोसिस के कारण, प्रकार और वक्र की डिग्री पर निर्भर करता है। हल्के स्कोलियोसिस में किसी भी तरह के इलाज की ज़रूरत नहीं होती है। स्कोलियोसिस की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है या नहीं यह देखने के लिए डॉक्टर आपकी स्थिति पर नज़र बनाये रखने और समय-समय पर X-Ray कराने की सलाह देते हैं। 20 डिग्री या इससे अधिक के स्कोलियोसिस में या बच्चे के बढ़ते कद के साथ प्रगतिशील स्कोलियोसिस में डॉक्टर ब्रेसिज़ और फ़िजियोथेरेपी के संयोजन की सलाह देते हैं। फ़िजियोथेरेपी और ब्रेसिज़ स्कोलियोसिस के प्रारंभिक इलाज के तरीके हैं। इन दोनों के संयोजन से रीढ़ की गंभीर वक्रता को तो सीधा नहीं किया जा सकता लेकिन वक्रता की प्रगति को रोका या कम ज़रूर किया जा सकता है। बच्चों में ब्रेसिज़ व फ़िजियोथेरेपी के समायोजित रूप में प्रयोग से लगभग 70% सर्जरी को रोका जा सकता है।

वहीं यदि वक्रता 50 डिग्री या इससे अधिक और प्रगतिशील है तो स्कोलियोसिस, गंभीर स्कोलियोसिस की श्रेणी में आता है। इसके इलाज के लिए डॉक्टर सर्जरी की सलाह दे सकते हैं। इस तरह की सर्जरी को एडवांस्ड स्पाइनल फ्यूज़न सर्जरी कहा जाता है। सर्जरी से वक्रता की डिग्री को पूरी तरह या कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है (यह वक्र की डिग्री पर निर्भर करता है)। साथ ही स्थिति को आगे ख़राब होने से भी रोका जा सकता है। इसमें धातु की दो छड़ों को स्क्रूज़ की सहायता से रीढ़ के वक्र पर दोनों ओर कस दिया जाता है और रीढ़ की हड्डी की क्षमता के अनुसार सीधा करने की कोशिश की जाती है। रीढ़ की वक्रता के आधार पर यह निर्णय लिया जाता है कि व्यक्ति को एक या अधिक सर्जरी की जरुरत होगी। यह सर्जरी ‘इंट्रा ऑपरेटिव इमेज और इलेक्ट्रोफिजियोलॉजिक’ की देखरेख में की जाती है।

बढ़ते बच्चों में विशेष रूप से गंभीर स्कोलियोसिस के इलाज के लिए Spine and Rib Based Growing Surgery की जाती है। इसमें सर्जन रीढ़ की हड्डी में ग्रोइंग रॉड का उपयोग करता है। जिसका फ़ायदा यह होता है कि जैसे-जैसे बच्चे का कद बढ़ता है वैसे-वैसे ही डॉक्टर रॉड की लम्बाई को भी समायोजित करते रहते हैं। इस तरह रॉड की वजह से बच्चे का कद बढ़ने में किसी तरह की कोई समस्या नहीं आती है ।

स्कोलियोसिस व इसके इलाज़ से जुड़े मिथक

स्कोलियोसिस व इसके इलाज को लेकर लोगों के मन में कई मिथक घर कर गए हैं। इनको समझना और दूर करना अत्यंत आवश्यक है। कुछ मिथक इस प्रकार हैं:

  • स्कोलियोसिस वालें लोगो को खेलों व भारी शारीरिक गतिविधियों से दूर रहना चाहिये
  • स्कोलियोसिस से प्रभावित लोग तैराकी नहीं कर सकते
  • बैठने की गलत मुद्रा स्कोलियोसिस की अहम वजह होती है
  • स्कोलियोसिस केवल बचपन में होने वाला विकार है
  • ब्रेसिज़ स्कोलियोसिस के इलाज में कारगर नहीं हैं
  • स्कोलियोसिस का एकमात्र इलाज सर्जरी है
  • सर्जरी के बाद शारीरिक गतिविधियाँ प्रतिबंधित हो जाती हैं।

पहले मिथक को दूर करने के लिए (उसेन बोल्ट) का नाम ही काफी हैं। ये स्कोलियोसिस के साथ दुनिया के सबसे तेज (एथलीट) हैं। उनका एक पैर दूसरे से छोटा है। शुरू में उन्हें इसके साथ चलने में समस्या का सामना करना पडा। लेकिन उचित इलाज व डॉक्टरों के उचित परामर्श को मानकर उन्होंने अपनी शारीरिक स्थिति में सुधार किया और आज उन्हे दुनिया का ‘सबसे तेज’ व्यक्ति होने का ख़िताब हासिल हैं। जेनी थोम्प्सन स्कोलियोसिस के साथ तैराकी करती हैं और 8 बार स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। भारतीय मूल के अभिनेता (हृतिक रोशन) को भी स्कोलियोसिस है। वे अपने क्षेत्र में एक सफल कलाकार है। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि स्कोलियोसिस किसी भी शारीरिक गतिविधि को प्रतिबंधित नहीं करता है। बस हमें सही समय पर सही इलाज़ और कुशल डॉक्टर का चुनाव करने की ज़रूरत होती है। जितना जल्दी संभव हो हमें स्कोलियोसिस का इलाज करा लेना चाहिये। साथ ही डॉक्टर के सभी दिशा निर्देशों का सही तरह पालन करना चाहिये।

जैसे कि हम पहले भी बात कर चुके है कि अधिकांश मामलों में स्कोलियोसिस होने के कारण अज्ञात होते हैं। अत: यह कहना कि बैठने की गलत मुद्रा स्कोलियोसिस होने की अहम वजह है बिल्कुल ग़लत है। यह सच है कि किशोरावस्था में स्कोलियोसिस होने की सम्भावना सबसे अधिक होती है; लेकिन स्कोलियोसिस जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक कभी भी हो सकता है। 25 से 45 डिग्री की वक्रता में ब्रेसिज़ इलाज का पहला तरीका है जो अन्य तरीकों के साथ समायोजित करके प्रयोग में लाया जाता है। यह वक्र की प्रगति को बाधित करता है और करीब 70% स्पाइन सर्जरी को रोकता है। अत: यह कहना कि ब्रेसिज़ स्कोलियोसिस के इलाज में कारगर नहीं है, बिल्कुल ग़लत है। वहीं सर्जरी स्कोलियोसिस का एकमात्र इलाज न होकर अंतिम इलाज है जो रीढ़ की जटिल वक्रता में ही किया जाता है। साथ ही सर्जरी की जटिलता का आधार रीढ़ की वक्रता होती है। 50 से 70 डिग्री तक की वक्रता में स्कोलियोसिस की सामान्य सर्जरी संभव होती है। अब सवाल आता है कि सर्जरी के बाद शारीरिक गतिविधियाँ प्रतिबंधित होने का, तो किसी भी प्रकार की सर्जरी के बाद हमें निश्चित समय तक आराम और देखरेख की जरुरत होती है। इन्हीं सब बातों का ध्यान स्कोलियोसिस सर्जरी के समय भी रखना होता है। शरीर के पूर्ण रूप से स्वस्थ होने तक डॉक्टर कुछ गतिविधियों को ज़रूर प्रतिबंधित करते हैं। पर स्वस्थ होने के बाद डॉक्टर के परामर्श से हम सभी गतिविधियों को कर सकतें हैं।

यहाँ हमने स्कोलियोसिस से सम्बंधित जो जानकारियाँ प्रदान की है उम्मीद करतें हैं कि ये आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगीं।

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डॉली परिहार
डॉली परिहार
1 year ago

मुझे इसके विषय में बिल्कुल भी पता नहीं था, आज एक साथ इतनी बड़ी जानकारी मिली। धन्यवाद! 🙏

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