पार्किन्संस रोग आयु से सम्बंधित एक रोग है जो ढलती उम्र में तंत्रिकाओं के अपक्षय के कारण होता है। यह रोग सीधे केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है और उम्र के साथ-साथ बढ़ता जाता है। अल्जाइमर्स रोग के बाद यह तंत्रिकाओं के अपक्षय से जुड़ा दूसरा सबसे आम रोग है।
पूरे विश्व में एक करोड़ से भी अधिक लोग पार्किन्संस रोग से प्रभावित हैं और वर्तमान में इसका कोई इलाज भी उपलब्ध नहीं है। शोध में यह पाया गया है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को पार्किन्संस होने का ख़तरा अधिक होता है।
भारत का दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 मान्य विकलांगताओं की सूची में पार्किन्संस रोग को भी शामिल करता है।
पार्किन्संस रोग क्या है?
पार्किन्संस रोग मस्तिष्क से जुड़ा एक विकार है जिसमें व्यक्ति के शरीर में कंपकंपी, ऐंठन, संतुलन व समन्वय की परेशानियों जैसी अनियंत्रित गतियाँ होने लगती हैं। इस रोग के लक्षण धीरे-धीरे उभरते हैं और वक़्त के साथ बिगड़ते जाते हैं।
पार्किन्संस रोग का मुख्य कारण है गति को नियंत्रित करने वाले मस्तिष्क के भाग (बेसल गैन्ग्लिया) की कोशिकाओं का क्षीण या नष्ट हो जाना। हालाँकि अभी तक वैज्ञानिकों को यह ठीक से मालूम नहीं चल पाया है कि बेसल गैन्ग्लिया की कोशिकाएँ नष्ट या क्षीण क्यों और कैसे हो जाती हैं। बेसल गैन्ग्लिया की तंत्रिकाओं का प्रमुख काम होता है डोपामाइन नामक रसायन का स्राव करना। तंत्रिकाओं के क्षीण या नष्ट होने की स्थिति में डोपामाइन का स्राव उचित मात्रा में नहीं हो पाता जिसके कारण पार्किन्संस रोग के लक्षण उभरने लगते हैं।
पार्किन्संस की बढ़ती तीव्रता के साथ कुछ और तंत्रिकाएँ भी प्रभावित होने लगती हैं और मस्तिष्क में डोपामाइन के अलावा भी कई और रसायनों पर नकारात्मक असर पड़ता है। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से पार्किन्संस रोग के सभी लक्षण उभरने लगते हैं।
पार्किन्संस रोग के कुछ मामलों में आनुवांशिक कारणों को भी पाया गया है लेकिन अभी तक इस बात की पुष्टि नहीं हुई है कि यह वंशानुगत कारणों से ही होता है।
पार्किन्संस रोग के लक्षण
पार्किन्संस रोग के मुख्यतः चार लक्षण माने जाते हैं:
- गति का धीमा हो जाना
- हाथ, पैर, जबड़े व सिर आदि में कम्पन या अनैच्छिक गति
- मांसपेशियों में अकड़न
- शरीर में संतुलन व समन्वय की कमी; जिससे कई बार व्यक्ति गिर भी जाता है
इन चार मुख्य लक्षणों के अलावा भी पार्किन्संस रोग के कई लक्षण हो सकते हैं:
- अवसाद या अन्य भावनात्मक परिवर्तन
- बोलने, निगलने या चबाने में तकलीफ़
- कब्ज़ व मूत्र-सम्बन्धी परेशानियाँ
- त्वचा सम्बन्धी परेशानियाँ
- खड़े होने पर चक्कर आना
- चेहरे की गतिविधियों जैसे पलकें झपकाना, मुस्कुराना आदि में कमी
- लिखने में परेशानी; लिखते हुए अक्षरों का छोटा हो जाना
पार्किन्संस रोग के लक्षण और उनके बढ़ने की गति अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग होती है। आमतौर पर शुरूआती लक्षण बहुत कम और सामान्य से लगने वाले होते हैं जिन्हें उमूमन नज़रअंदाज़ ही कर दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर व्यक्ति को शुरू में कुर्सी पर बैठ कर फिर उठने में तकलीफ़ हो सकती है या फिर वह कुछ धीमी आवाज़ में बात करना शुरू कर सकता है या उसके लिखे हुए अक्षर छोटे होने लगते हैं।
आमतौर पर पार्किन्संस से प्रभावित व्यक्ति एक ख़ास तरह की चाल अपना लेते हैं जिसमें वे थोड़ा आगे झुक कर छोटे क़दमों से जल्दी चलने लगते हैं और चलते वक़्त उनके हाथों का आगे-पीछे होना कम हो जाता है। लगभग सभी पार्किन्संस के रोगियों में लक्षण शरीर के एक ओर शुरू होते हैं जो रोग की तीव्रता बढ़ने पर दोनों ओर के अंगों को प्रभावित करते हैं — लेकिन फिर भी शरीर में एक ओर तीव्रता कुछ ज़्यादा ही रहती है।
पार्किन्संस रोग का निदान
फ़िलहाल ऐसी कोई रक्त जाँच या प्रयोगशाला परीक्षण नहीं ढूंढा जा सका है जिससे ग़ैर-आनुवांशिक कारण से हुए पार्किन्संस रोग की पुष्टि की जा सके। आमतौर पर चिकित्सक व्यक्ति के चिकित्सीय इतिहास को देखते हैं और न्यूरोलॉजिकल परिक्षण करके पार्किन्संस रोग का अंदाज़ा लगाते हैं। चूँकि उम्र-सम्बंधित कई अन्य बीमारियों में भी पार्किन्संस जैसे ही लक्षण उभरते हैं इसलिए सटीकता के साथ इसका पता लगा पाना कई बार मुश्किल हो जाता है।
एक जैसे लक्षण होने के बावज़ूद अलग-अलग बीमारियों में अलग इलाज की ज़रूरत पड़ती है इसलिए इनका सही निदान होना बहुत आवश्यक है।
पार्किन्संस रोग का इलाज
हालाँकि पार्किन्संस रोग का पूर्ण-रूपेण इलाज संभव नहीं है लेकिन कुछ दवाइयों व थेरेपी आदि से इसके लक्षणों की तीव्रता को कम किया जा सकता है। इसके लिए यह ज़रूरी है कि ठीक-ठीक पता लगाया जा सके कि लक्षण पार्किन्संस के कारण ही हैं, किसी अन्य रोग के कारण नहीं।
पार्किन्संस में दी जाने वाली दवाइयाँ आमतौर पर मस्तिष्क में डोपामाइन के स्तर को बढ़ाने का ही काम करती हैं। यह भी देखा गया है कि पार्किन्संस रोग में दी जाने वाली दवाइयों से मरीज़ को चक्कर, उल्टी, बेचैनी, निम्न रक्तचाप आदि जैसे दुष्प्रभावों का सामना भी करना पड़ता है और इन्हें अचानक बंद कर देना भी मरीज़ के लिए अच्छा नहीं होता।
जिन मरीज़ों पर दवाइयों का असर नहीं होता उनके लिए शल्य चिकित्सा का इस्तेमाल करके भी चिकित्सक कुछ लक्षणों को कम करने का प्रयास करते हैं। इनके अलावा ऑक्यूपेशनल थेरेपी, स्पीच थेरेपी जैसी पुनर्वास प्रक्रियाएँ भी पार्किन्संस के मरीज़ों के लिए कुछ लाभकारी हो सकती हैं।
अंत में…
पार्किन्संस लाइलाज है। हालाँकि इसके लक्षणों के बढ़ने की गति धीमी होती है लेकिन अंततः लक्षणों की तीव्रता इतनी बढ़ जाती है कि व्यक्ति के रोज़मर्रा के जीवन को प्रभावित कर दे। इसलिए ऐसे मामलों में कोशिश करनी चाहिए कि लक्षणों पर शुरूआती वक़्त में ही ध्यान दिया जाए और उचित चिकित्सीय सहायता ली जाए। यदि आपके आस-पास भी बढ़ती उम्र के लोग हों तो उनकी छोटी परेशानियों पर भी ध्यान दें।