मैं इस आलेख में अधिकांश विकलांग व्यक्तियों के बचपन के बाद के जीवन पर बात करने जा रही हूँ। जब विकलांग व्यक्ति बचपन के गलियारों से निकल उम्र के आगे के पड़ावों पर पहुँचता है — असल में तब उसका ‘विकलांगता’ के साथ वास्तविक साक्षात्कार होता है। तब विकलांगता के कारण उसके जीवन में, सम्बंधों में, परिवारजन के स्वभाव में क्या परिवर्तन आ सकते हैं — इस आलेख में मैं इन्हीं सब पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश करूँगी। पिछले लेख में मैंने विकलांग बच्चे के बचपन और उसके जीवन में सामान्य भाई-बहनों के महत्त्व पर बात की थी।
जीवन में जिन विकलांग साथियों से मिलकर, उनके साथ बातें करके, उनके जीवन को समझ कर मुझे जो भी अनुभव हुए हैं; उनसे मैं यही समझ पायी हूँ कि अधिकांश विकलांग व्यक्तियों का जीवन उनके बचपन के दिनों से काफ़ी हद तक उलट ही होता है। मेरे अनुभव के अनुसार विकलांग व्यक्ति की युवावस्था उसके बचपन से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होती है। अधिकांश विकलांग व्यक्ति अपने जीवन के इस पड़ाव में अकेले हो जाते हैं। अकेलापन तो एक सामान्य व्यक्ति के लिए भी बहुत कठिन स्थिति होती है। विकलांग व्यक्ति जो विकलांगता के कारण पहले ही अनेक समस्याओं से जूझ रहा होता है उसको उसके ही परिवारजनों द्वारा अकेला कर दिया जाना उसकी समस्याओं को कई गुणा बढ़ा देता है। वह अकेलेपन के कारण ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है।
बचपन में विकलांगता के कारण जीवन पर होने वाले प्रभावों को कोई भी समझ नहीं पाता। परिवार के बड़े लोग तो अपनी समझ और अनुभवों से यह अंदाज़ा लगा ही लेते हैं कि एक विकलांग बच्चे का जीवन कठिनाइयों व चुनौतियों से भरा होता है लेकिन विकलांग बच्चा ख़ुद व उसके हमउम्र भाई-बहन विकलांगता के कारण उत्पन्न हुई कठिनाइयों व चुनौतियों को नहीं समझ पाते। वे सिर्फ़ इतना ही समझ पाते हैं कि उनमें से कोई एक विशेष, बाक़ी भाई-बहनों की तरह कुछ शारीरिक / मानसिक / भावनात्मक गतिविधियाँ नहीं कर सकता है। विकलांग भाई-बहन इन गतिविधियों को न कर पाने के कारण उदास और अकेला महसूस न करें इसके लिए उसके सामान्य भाई-बहन उसका साथ निभाने की कोशिश करते हैं — लेकिन मेरा जो अनुभव रहा है उसके अनुसार सामान्य भाई-बहनों की यह सोच सिर्फ़ बचपन तक ही सीमित रहती है। समय के साथ सोच और व्यवहार सब बदल ही जाते हैं।
यह बात बिल्कुल सही है कि किसी भी स्थिति या विषय की शुरुआत में हर कोई उस स्थिति के प्रति ऊर्जावान और हिम्मती होता ही है लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है उस स्थिति के प्रति लोगों की ऊर्जा, हिम्मत और उत्साह में कमी आने लगती है। लोग उस स्थिति से उबने लगते हैं और ख़ुद को उस स्थिति से अलग कर लेना चाहते हैं। ऐसा ही कुछ विकलांग व्यक्तियों के साथ भी होता है जब उनके परिवारजन, विशेषकर भाई-बहन, अपनी युवावस्था में आते-आते विकलांग व्यक्ति व उसकी विकलांगता से उबने लगते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं।
इन दूरियों का कारण केवल व्यक्ति की विकलांगता नहीं बल्कि विकलांगता के बावजूद विकलांग व्यक्ति की अपने जीवन को सार्थक बनाने की चाहत भी होती है। इस चाह को पूरा करने के लिये उसे अपने परिवारजन, विशेषकर भाई-बहन, के साथ की ज़रूरत होती है – लेकिन उसके भाई-बहन अपने निजी जीवन में इतने व्यस्त हो चुके होते हैं कि उनके पास अपने विकलांग भाई-बहन के लिए समय होता ही नहीं है कि वे विकलांग व्यक्ति की अपने जीवन के लिए बनायी गयी योजनाओं को समझ या सुन भी सकें। उन्हें तो विकलांग व्यक्ति की उसके ख़ुद के जीवन के बारे में की गयी कोई भी बात बेबुनियाद लगती है। उनका मानना होता है कि विकलांग व्यक्ति को अपने परिवारजन के ज़रिये अपनी बेसिक ज़रूरतों की पूर्ति से अधिक कोई इच्छा नहीं करनी चाहिए। यदि परिवारजन एक विकलांग व्यक्ति की बेसिक ज़रूरतों को भी पूरा कर रहे हैं तो विकलांग व्यक्ति को इतने में ही संतोष कर लेना चाहिए। उन पर अपनी इच्छाओं का अतिरिक्त भार नहीं डालना चाहिए। वे यह भी अच्छे से जानते-समझते हैं कि जीवन को सफल और सार्थक बनाना किसी भी व्यक्ति की केवल इच्छा न होकर उसका अधिकार होता है। हर किसी को अपना जीवन सार्थक बनाना ही चाहिए। वह ये भी अच्छे से जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति अकेले सफल नहीं हो सकता। सफल होने के लिए हर किसी को किसी-न-किसी के साथ की ज़रूरत होती ही है। फिर यदि विकलांग व्यक्ति अपने सामान्य भाई-बहनों से ऐसे ही साथ की उम्मीद करता है तो क्या वह ग़लत है? उसको ऐसा नहीं करना चाहिए?
मैंने अधिकांश केसों में यही पाया कि जो विकलांग और सामान्य भाई-बहनों के बीच का जो रिश्ता बचपन में बहुत मज़बूत होता था; वह समय के साथ-साथ अचानक कमज़ोर होने लगता है। बड़े होने पर अधिकतर सामान्य भाई-बहन, विकलांग भाई-बहनों को बोझ मानने लगते हैं। वे उनकी देखभाल प्यार से समर्पित होकर नहीं बल्कि सिर पर पड़ी एक अनचाही जिम्मेदारी मानकर करते हैं। विकलांग ब्यक्ति की सिर्फ़ बेसिक ज़रूरतों को पूरा कर देने को ही सामान्य भाई–बहन उनके प्रति अपना फ़र्ज़ निभा देना मान लेते हैं। शायद ये सब भी सिर्फ़ लोक-लिहाज के डर से ही होता है। सामान्य व विकलांग भाई-बहन एक घर में रहने के बावजूद एक-दूसरे से अनजान हो जाते हैं। बचपन में जो भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन की बिना बोले मन की बातें समझ लेते थे बड़े होने पर उसके बोले गये शब्दों को भी नहीं समझ पाते। बड़े हो जाने पर विकलांग व्यक्ति के प्रति उसके अपने ही परिवारजन का व्यवहार क्यों बदल जाता है? मैं आज तक नहीं समझ पाई। बचपन में जो भाई-बहन अपने विकलांग भाई-बहन की पूर्णता होते थे बड़े होने पर वे ही उसको पल-पल विकलांग (उनके अनुसार ‘अपूर्ण’) होने का एहसास कराते हैं।
बचपन में जो विकलांगता उनके रिश्ते की मज़बूती के आगे बौनी पड़ जाती थी; बड़े हो जाने पर, इस अच्छे-खासे, स्वस्थ रिश्ते को अपना शिकार बना विकलांग कर देती है। क्या सच में किसी रिश्ते के विकलांग हो जाने का कारण किसी व्यक्ति की शारीरिक/मानसिक विकलांगता हो सकती है? या फिर इसका कारण कुछ और होता है? क्या किसी व्यक्ति के विकलांग होने में उसका ख़ुद का कोई दोष होता है? अगर नहीं, तो विकलांग व्यक्ति को उसके अपनो का उपेक्षित व्यवहार क्यों सहना पड़ता है? कहने को तो विकलांगता किसी व्यक्ति को प्रभावित कर सिर्फ़ उसकी कुछ क्षमताओं में ही कमी करती है; लेकिन क्या कोई इस बात का अंदाजा भी लगा सकता है कि सिर्फ़ एक विकलांगता के कारण लोग विकलांग व्यक्ति से कितना कुछ छीन लेते हैं? पराये लोगों के बारे में तो क्या कहे! जिन भाई-बहनों के साथ एक विकलांग व्यक्ति पला-बढ़ा होता है जब वे ही उसकी मन:स्थिति, इच्छाओ, भावनाओं, विचारों को नहीं जानना समझना चाहते; उसके साथ अनजानों जैसा व्यवहार करने लगते हैं — तो विकलांग व्यक्ति अपने सुख-दुख, अपनी भावनाओं को किसके साथ साझा करे?
विकलांग व्यक्ति कभी भी अपनी विकलांगता से नहीं हारता न ही विकलांगता के आगे अपने घुटने टेकता है बल्कि वह अपनों के अलगाव के कारण मन ही मन टूट जाता है। अपनों के द्वारा साथ न देने के कारण हार मान लेता है। वह हमेशा अपने को जाँचता रहता है कि क्या सच में उसमें कोई कमी या बुराई तो नहीं जिसकी वजह से उसके अपनों ने उसका साथ छोड़ दिया? ख़ुद को बार-बार जाँचने के बाद वह इसी नतीजे पर पहुँचता है कि शायद विकलांग व्यक्ति को इच्छाओं और अधिकारों की बात नहीं करनी चाहिए। उसको केवल बेसिक ज़रूरतों (रोटी, कपड़ा, मकान) तक ही अपने जीवन को सीमित रखना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता तो शायद यही उसकी सबसे बड़ी ग़लती हो जाती है। क्या सच में यह उसकी ग़लती है? क्या ख़ामोशी से अर्थविहीन जीवन जी लेना ही अपने परिवारजन, भाई-बहनों का साथ पाने की क़ीमत है जिसे चुका कर ही विकलांग व्यक्ति उसके अपनों के साथ की उम्मीद कर सकता है? जो लोग विकलांग व्यक्ति से अपने साथ के लिये यह क़ीमत मांगते है क्या वे “अपने” कहलाने लायक होते भी है?
विकलांग व्यक्ति जिसे अपनो के साथ, प्यार और सुरक्षा की सामान्य व्यक्तियों से कहीं ज़्यादा ज़रूरत होती है लेकिन अधिकांश विकलांग व्यक्तियों को इन सबकी जगह अपनों से दूरियाँ, बेगानापन और अपमान के सिवा कुछ नहीं मिल पाता। शायद ही कोई विकलांग व्यक्ति होगा जिसे अपने परिवारजन (विशेषकर अपने भाई-बहनों) का प्यार और समर्थन मिल पाता है। अधिकांश विकलांग व्यक्ति तो अकेलेपन के अंधियारों में ही भटकते रह जाते है। वे अपने अकेलेपन में बस ये ही सोचते रहते हैं कि उसके बचपन के वे दिन कहाँ चले गए और कहाँ चला गया उसके अपनों का अपनापन?
बहुत ही कम ऐसे होते है जो विकलांग के साथ होने वाले व्यवहार में नहीं लाते… लेकिन इसमें उनका भी दोष नहीं है। एक समय के बाद भाई बहिन की शादी होती है और वो अपने परिवार को समय देना पसंद करेंगे न कि हमें… हर व्यक्ति अपना एक कम्फर्ट ज़ोन ढूँढता है और वह सुकून से रहना पसंद करता है।
इस पोस्ट से मैं कम सहमत हूँ।।कम सहमत लिखा क्योंकि असहमत नहीं हूँ मगर सहमति इस बात पर है कि युवावस्था में भाई बहन का स्नेह या सहयोग उतना नहीं रह जाता जितना बचपन में।इसे युवावस्था से भी विलग कर यह कहें कि पारिवारिक एकको में बँट जाने के बाद वैसा भाव या व्यवहार नहीं रह जाता।
लेकिन यह बात किसी विकलांगता से सम्बद्ध नहीं। सामान्य भाई बहनों का भी प्रेम एक समय के बाद कम होने लगता है उसमें कोई आर्थिक रूप से कमज़ोर भाई या बहन होगा तो उसके साथ भी यही बात होगी।
यही बात माता- पिता और दोस्तों के साथ भी लागू होती है। शादी-नौकरी-बच्चे इन सब के साथ व्यक्ति थोड़ा संकुचित होने लगता है।
यह उसके लिए सम्भव भी नहीं कि अपनी यूनिट (पति-पत्नी-दो बच्चे) के साथ-साथ वह किसी भी भाई-बहन की भी रोटी-कपड़ा-रहने की व्यवस्था के अतिरिक्त व्यवस्था कर सके। उसके भी शौक और आरामतलब ज़िंदगी का इंतज़ाम कर सके।
कुछ लोग ऐसा कर सकते हैं तो वे अपने विकलांग भाई-बहनों के साथ भी करते हैं।
अतः इस आर्टिकल से सहमत तो हूँ मैं लेकिन इसका विकलांगता से सम्बन्ध नहीं मानती