इस आलेख को राशि सक्सेना ने लिखा है। बरेली, उत्तर प्रदेश की निवासी राशि ऑस्टोजेनेसिस इम्परफ़ेक्टा नामक एक स्थिति से प्रभावित हैं। इस स्थिति से प्रभावित व्यक्ति की हड्डियाँ बहुत कमज़ोर रहती हैं और हल्के से दबाव में भी चोटग्रस्त हो जाती हैं।
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यह बात फ़रवरी 2020 की है। यूं तो ये सफ़र शुरू हुआ था, बस, एक विचार के साथ कि अब इस 26-27 वर्ष की उम्र में गंभीर स्कोलियोसिस के लिए क्या करना चाहिए? जब बात सही इलाज़ खोजने और एक निश्चित बजट में सही इलाज़ कराने की आती है तो ज़्यादातर लोग दिल्ली के एम्स अस्पताल (AIIMS Hospital, Delhi) को ही प्राथमिकता देते हैं; तो मैंने भी यही किया। अब जबकि सब कुछ ऑनलाइन हो जाता है तो मुझे भी घर बैठे आसानी से एम्स हॉस्पिटल के एक स्पाइन स्पेशलिस्ट डॉक्टर की अपॉइंटमेंट मिल गई। जब मैं अपने परिवारजन के साथ अस्पताल गई तो वहाँ कई वोलेंटियर थे, जो समय-समय पर मदद करके डॉक्टरों से मिल पाने की प्रक्रिया को आसान बना रहे थे। हालाँकि, अस्पताल जाओ और इंतज़ार में सुबह से शाम न हो जाए तो इंतज़ार ही कैसा! बचपन से अब तक अस्पताल के अपने अनुभवों से मुझे धैर्य के साथ अपनी बारी का इंतज़ार करना आ गया था, जो आज भी जीवन में काम आ रहा है।
अपने इस अनुभव को आगे बढ़ाने से पहले मैं अपने बारे में थोड़ा-सा परिचय दे देती हूँ; इससे आप बेहतर तरीके से मेरी बात को समझ सकेगें। मेरा नाम राशि सक्सेना है। मैं उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से हूँ और मुझे जन्म से ऑस्टोजेनेसिस इम्परफ़ेक्टा (Osteogenesis Imperfecta) नामक एक आनुवांशिक रोग है। इस रोग में हड्डियाँ बहुत कमजोर हो जाती हैं और हल्के से धक्के या चोट लगने से टूट जाती हैं। डॉक्टरों का कहना है कि ये बीमारी लाखों बच्चों में से किसी एक को होती है। इसलिए मैं कह सकती हूँ कि “मैं लाखों में एक हूँ” अब इस वाक्य को आप व्यंग्यात्मक रूप में लेते हैं या सकारात्मक रूप में — यह मैं आप पर छोड़ती हूँ।
इस बीमारी की वजह से मेरे बचपन का काफ़ी बड़ा हिस्सा जगह-जगह के अस्पतालों के चक्कर लगाते और अपनी बारी आने का इंतज़ार करते हुए बीता है। फिर बढ़ती उम्र के साथ मेरी रीढ़ में “स्कोलियोसिस” (रीढ़ की विकृति) भी बन गई। इसी स्कोलियोसिस के इलाज़ के लिए मैं व मेरे परिवारजन एम्स अस्पताल गये थे। वहाँ पहले एक-दो जूनियर डॉक्टरों ने मेरी शारीरिक समस्या को जाँचा, समझा और फिर मुझे कुछ एक्स-रे कराने के लिए भेज दिया, उन्होने बोला कि आप ये एक्स-रे अस्पताल के बाहर से भी करा सकते हैं।
जिस स्पाइन विशेषज्ञ से मिलने के लिए हम एम्स अस्पताल गए थे, वे सप्ताह में एक निश्चित दिन ही मिलते थे। इसलिए उस दिन हमें एक्स-रे करा कर वापिस एम्स अस्पताल आना था, तो हम जैसे-तैसे अस्पताल के बाहर किसी अन्य क्लिनिक से एक्स-रे करा कर आ गए। जूनियर डॉक्टर के अनुसार अब बस बड़े डॉक्टर (स्पाइन विशेषज्ञ) से मिलना ही आखिरी चरण था। एक लंबे इंतज़ार के बाद जैसे ही मेरी बारी आयी तो डॉक्टर के जाने का समय हो गया। उनके असिस्टेंट से बहुत विनती करने के बाद जैसे-तैसे करके हम स्पाइन विशेषज्ञ से मिल पाएँ। उन्होंने मेरा एक्स-रे देखा और उसकी गंभीरता देखते हुए मुझसे पहला सवाल किया कि “अब तक कहाँ थी? क्या उम्र बढ़ने और स्कोलियोसिस की स्थिति गंभीर होने का इंतज़ार कर रहीं थी?” अमूमन स्कोलियोसिस की शुरुआत 11 से 13 वर्ष के आयु वर्ग में होती हैं जबकि मैं इसके इलाज के लिए 27 वर्ष की उम्र में गई थी। इसलिए डॉक्टर का सवाल ग़लत नहीं था; पर शायद बार-बार हर डॉक्टर से यही एक सवाल सुनते-सुनते मैं थक चुकी थी। न चाहते हुए भी अब मुझे यह सवाल कम, एक ताना ज़्यादा लगाने लगा था; जो मुझे एक काँटे की तरह चुभता था। सामान्य-सी बात है कि अगर मुझसे इलाज कराने में देरी हुई है तो उसके पीछे यक़ीनन बहुत-सी वजह रही होंगी; लेकिन उस समय अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ बताने का न तो समय था और न ही कोई ज़रूरत। फिलहाल, मैंने यही सोचा कि वे डॉक्टर हैं यदि समाधान और हिम्मत देना उनका फ़र्ज है तो डाँटने पर भी उनका पूरा अधिकार है; लेकिन डॉक्टर के दूसरे वाक्य ने मुझे जल्दी ही यह एहसास करा दिया कि उनका पहला सवाल मेरे लिए सिर्फ़ उनकी फ़िक्र नहीं बल्कि मुझसे उनका पीछा छुड़ाना भी था।
डॉक्टर ने जैसे ही देखा कि एक्स-रे पर एम्स अस्पताल का नाम न होकर किसी बाहर की क्लिनिक का नाम है; तो उन्होंने एक्स-रे को हमारी तरफ़ वापिस करते हुए कहा कि एम्स अस्पताल में कराया गया एक्स-रे ही मान्य है। पहले एम्स अस्पताल से एक्स-रे और एम.आर.आई. करा कर लाओ तब आगे देखेंगे और यह बोलते हुए वे वहाँ से चले गए।
पहली बात तो हमें यही समझ नहीं आई कि अगर एम्स अस्पताल का एक्स-रे ही मान्य था तो जूनियर डॉक्टर ने बाहर से एक्स-रे करा लेने की सलाह ही क्यों दी? ख़ैर, शाम हो चुकी थी, हमने सोचा कि अभी एम्स अस्पताल से दोबारा एक्स-रे करा लेते हैं। डॉक्टर को दिखाने के लिए अगले सप्ताह फिर आ जायेंगे। बचपन में अस्पतालों में हुए अपने अनुभवों से इतना तो समझ ही चुकी थी कि ये काम एक दिन में नहीं होते।
जब हम एम्स की एक्स-रे बिल्डिंग में गए तो पता चला कि वहाँ दो-तीन महीने के इंतज़ार के बाद ही मेरी बारी आएगी। खैर, वहाँ अपना नम्बर लिखा कर हम एम.आर.आई की बिल्डिंग में गए; लेकिन वहाँ तो वेटिंग लिस्ट इतनी लम्बी थी कि एक-दो साल के इंतज़ार के बाद ही मेरा नंबर आता। माना कि शुरुआत में मैंने कहा था कि मैंने बचपन से इंतज़ार करना और धैर्य रखना सीख लिया है; लेकिन इतना भी नहीं और फिर मेरी रीढ़ ने तो कुछ भी नहीं सीखा था। वह तो अपनी गति से घुमाव ले रही थी।
फ़िलहाल, उस दिन एक नाउम्मीदीं के साथ हम घर वापसी के लिए दिल्ली से बरेली की ओर चल पड़े; लेकिन उस दिन पूरे रास्ते मुझे कई सवाल परेशान करते रहे। माना कि मेरी बीमारी के इलाज में जहाँ इतनी देर हुई हैं वहाँ थोड़ी देर और सही; लेकिन जिन लोगों के पास बीमारी के इलाज के लिए इंतज़ार करने का समय नहीं बचा है वह क्या करें?
जिनकी आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं होती उनके लिए एम्स एक उम्मीद है; लेकिन वहाँ के हालात देखते हुए मैं समझ नहीं पाई कि कितने लोगों को उनकी मंज़िल (उचित इलाज) मिलती होगी। मैं ज़रूरतमंद लोगों के लिए एम्स अस्पताल जैसी इतनी बड़ी आशा को निराशा बिल्कुल भी नहीं कह रही हूँ। मैं जानती हूँ और मानती भी हूँ कि बहुत से ज़रूरतमंद लोगों को एम्स में अच्छा इलाज़ मिलता है; लेकिन इस सच के साथ एक कटु सत्य ये भी है कि बहुत से ज़रूरतमंद लोग एम्स अस्पताल की कार्य-व्यवस्था के चलते सही इलाज पाने के अपने हक़ से वंचित भी रह जाते हैं।
यदि कोई मेरी तरह जैसे-तैसे वहाँ पहुँच भी जाये तो डॉक्टर के इतने असंवेदनशील व्यवहार और इलाज की राह में बेवजह की अड़चने लगा देने से इलाज कराना इतना मुश्किल हो जाता है कि लोगों के लिए दोबारा एम्स जाने का विचार ही बीमारी की पीड़ा से बड़ी पीड़ा बन जाता है।
सही कहा आपने अस्पताल जाने और इलाज की कोई प्रक्रिया पूरी करने के लिए इंतज़ार करना और धैर्य रखना बहुत ज़रूरी है लेकिन यदि डॉक्टर ही असंवेदनशील हो जाएं तो सारा इंतज़ार और धैर्य ही व्यर्थ हो जाता है। डॉक्टर को जितना अपने कार्य में निपुण होना ज़रूरी है उतना ही उन्हें संवेदनशील होना भी ज़रूरी है।
डॉक्टर को सब के साथ मानवता का व्यवहार करना चाहिए