अदृश्य विकलांगता के बारे में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है

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विकलांगता मतलब किसी के शरीर का अन्य या अधिकतर लोगों से अलग होना, यह बात अब सामान्य लोग भी बढ़ती हुई जागरूकता के कारण समझने लगे हैं। लेकिन क्या विकलांगता केवल शरीर तक ही सीमित होती है? क्या कुछ ऐसी विकलांगता भी होती है जो अदृश्य हो? ऐसे सवालों के जवाब में हमें अक्सर ग़लत जवाब ही मिलते हैं।

मानसिक विकलांगता, जिसे अब न्यूरोडाइवर्सिटी भी कहा जाने लगा है, अधिकतर लोगों को समझ नहीं आती क्योंकि यह दिखाई नहीं देती। लोग “पागलपन” कह कर कई तरह की बीमारियों को एक लेबल में छिपा देते हैं और उन्हें तिरस्कार से देखते हैं। “अरे पागल है क्या!” रोज़मर्रा में सहजता से बोले जाने वाला वाक्य ही नहीं है बल्कि मानसिक रोगियों और मानसिक रोगों के तिरस्कार का सामान्यीकरण है। इसमें न केवल अपमान और खीज भरी है बल्कि यह भावना भी कि जो पागल है वह ग़लत है, बुरा है और सामान्य नहीं है।

अंग्रेज़ी ने समय रहते कम-से-कम अपनी भाषा को मानसिक रोगों और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बढ़ाना शुरू किया और लोग मनोसामाजिक विकलांगताओं को थोड़ा समझने लगे हैं, लेकिन अभी भी ये एक ऐसी अँधेरी जगह है जहाँ जागरूकता की बेहद ज़रूरत है।

मानसिक रोग और रोगियों को अक्सर विकृतियों की तरह समझा जाता है और इसलिए समाज और परिवार इनसे दूरी बनाये रखना चाहते हैं। कोई परिवार नहीं बताना चाहता कि उनके यहाँ कोई सदस्य मानसिक रोगी है। जिस समाज में “मानसिक रोग” गाली की तरह इस्तेमाल होता हो और तिरस्कारसूचक शब्द हो वहाँ मानसिक रोगों और विकलांगताओं के प्रति संवेदनशीलता जगाना बेहद मुश्किल काम है।

सबसे पहली बड़ी बाधा है संवेदनशील भाषा की कमी, हिंदी में विभिन्न विकलांगताओं के लिए संवेदनशील शब्द या तो बहुत ही वैज्ञानिक और संस्कृतनिष्ठ हैं और या हैं ही नहीं। ऐसे में इन विषयों पर आम जनता से संवाद कठिन हो जाता है। मानसिक परिस्थितियों जैसे कि अवसाद या एंग्जायटी के लिए भी अगर आम शब्द खोजने निकलें तो हिंदी में ऐसे संवेदनशील शब्द मिलना लगभग असंभव है। फिर अगर बात लर्निंग डिसेबिलिटीज़ या बौद्धिक विकलांगता की हो तो इन्हें सामान्य भाषा में समझना या समझा पाना दूभर ही है।

विकलांगता विमर्श में मनोसामाजिक विकलांगताओं को शामिल करने में एक और बड़ी बाधा है इनका अदृश्य होना। दुनिया का एक बड़ा तबका अदृश्य विकलांगताओं (invisible disabilities) से जूझ रहा है। चूंकि इनका असर सीधे-सीधे मरीज़ के जिस्म पर दिखाई नहीं देता इसलिये इन्हें मन का या दिमागी फ़ितूर कह कर टाल दिए जाता है। हालाँकि सच तो यह है कि इनसे भी किसी भी व्यक्ति की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी उतनी ही प्रभावित होती है जितनी किसी शारीरिक विकलांगता के कारण प्रभावित होती है।

मनोसामाजिक विकलांगता को समझना जटिल भले ही हो लेकिन असंभव नहीं है। जब तक इन्हें लेकर जागरूकता को बढ़ाया नहीं जाएगा इनमें और दूसरों रोगों वाले सामाजिक और अन्य सुधारों के बीच की खाई को भरा जा सकेगा। स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई में, परिवारों और फिल्मों में मानसिक रोगों के बारे में किस तरह बात की जाती है इसे लेकर इनके बारे में अधिक से अधिक वैज्ञानिक जानकारी और शोध जब तक आम नहीं होगा ये खाई बनी ही रहेगी।

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