photograph of dr. jonas salk injecting polio vaccine in a girl child's arm.

डॉ. जोनास सॉक का जादू

मैं जब दस महीने की थी, तब मुझे निष्क्रिय करने वाली एक बीमारी हो गई थी। जो कब, क्यों और कैसे हुई? मेरे घरवालों को कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें सिर्फ़ इतना ही मालूम था कि मैं बहुत रो रही थी और कुछ भी खा-पी नहीं रही थी, खेल नहीं रही थी और खड़ी नहीं हो पा रही थी। मेरे घरवालों ने मुझे कानपुर में डॉक्टर को दिखाया, जहाँ डॉक्टर ने बताया कि इसे पोलियो हुआ है। पोलियो? ये क्या होता है? गाँव में रहने वाले मेरे भोले-भाले घरवालों को इसकी कोई जानकारी नहीं थी कि ये पोलियो क्या बला है? फिर डॉक्टर ने विस्तार से इस बीमारी के विषय में बताया, कि ये एक महामारी है जो पूरे विश्व में फैली हुई है और अधिकतर बच्चों पर ही आक्रमण कर रही है। मेरे घरवालों ने पहली बार इसका नाम सुना था और वो इस बात पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि ऐसी भी कोई बीमारी होती है। मैं थोड़ी समझदार हुई, तो मुझे भी कहाँ पता था कि मेरे साथ क्या हुआ? और न ही मैंने कभी घरवालों से इस विषय में कोई चर्चा की। हाँ लेकिन, अपने स्तर से जानकारी और सूचनाएं ज़रूर इकट्ठी करती रही। मैंने कई पुस्तकों और अखबारों में इसके विषय में पढ़ा। और आजकल तो गूगल भी है किसी विषय की पूरी जानकारी देने के लिए।

हमारे बचपन में, हमारे गाँव में, हमारे जैसे लोगों के प्रति आज जितना सकारात्मक माहौल नहीं था। मेरे साथ-साथ मैंने अपने जैसे अन्य बच्चों को भी देखा जिनके प्रति परिवार या समाज बहुत ज्यादा ज़िम्मेदार नहीं था, कि हम किस तरह से इन शारीरिक कमजोर बच्चों को हाशिए पर धकेलने के बजाए अपने साथ लेकर चलें। ऐसे में, जो बच्चे स्वप्रेरित होते थे, सिर्फ़ वही आगे बढ़ पाते थे अन्यथा पिछड़ जाते थे।

अपनी शारीरिक व्याधियों और सामाजिक तानों से जूझते हुए किन्तु, स्वप्रेरणा से आगे बढ़ने वाले ऐसे ही एक व्यक्ति के विषय में मैंने सोशल मीडिया के द्वारा जाना, जिनका नाम है श्री ललित कुमार जी। ललित कुमार जी भी पोलियो के शिकार हैं और कठिनाइयों की सुनामी में भी उन्होंने अपनी ज़िन्दगी की नाव इतनी अच्छी तैराई, कि क्या ही कहने। उन्होंने अपनी आत्म-कथा लिखी है, जिसका नाम है ‘विटामिन ज़िन्दगी’। जिसमें ज़िन्दगी की सभी विटामिन भरी हुई है लेकिन उससे भी महान हैं स्वयम् ललित जी। क्योंकि वो सकारात्मकता का विश्वकोष लगते हैं। मेरा सपना है कि मैं कभी उनसे मिलूँ, और उस सूरज की जुगनू भर भी ऊर्जा अपने अन्दर समेट सकूँ तो स्वयम् को भाग्यशाली समझूँ।

जैसे मैं, मेरे घरवाले पोलियो के विषय में कुछ नहीं जानते थे, वैसे ही और भी कई लोग हैं जो नहीं जानते कि ये क्या बीमारी है और कैसे होती है। मैंने इसके विषय में विभिन्न अखबारों, पत्रिकाओं और ‘विटामिन ज़िन्दगी’ में जो पढ़ा वो यहाँ साझा कर रही हूँ।

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पोलियोमेलाइटिस एक विषाणुजनित संक्रामक रोग है, जो आमतौर पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित खाना-पानी के माध्यम से फैलता है। यह रोग मुख्य रूप से शिशुओं में फैलता है। इस रोग को ज्यादातर पोलियो के नाम से जाना जाता है।

पोलियो के 90 से 95 प्रतिशत मामलों में वायरस का इंसान के शरीर में कोई असर नहीं होता। 5 से 10 प्रतिशत मामलों में हल्का बुखार, उल्टी और दर्द होकर रह जाता है। केवल 0.5 प्रतिशत मामलों में वायरस तंत्रिका तंत्र पर हमला करता है और इससे माँसपेशियाँ बेकार हो जाती हैं।

नॉन पैरालिटिक पोलियो के लक्षण हल्के फ्लू जैसे होते हैं, जो 1 से 10 दिन तक ही नज़र आते हैं। लक्षण – बुखार, गले में खराश, सिर दर्द, उल्टी, थकान, मेनिनजाइटिस, पीठ, गर्दन, बाँहों और पैरों में दर्द व ऐंठन, माँसपेशियों में कमज़ोरी आदि।

दुनिया भर में पोलियो का मुक़ाबला करने के लिए दो वैक्सीन का प्रयोग किया जाता है। पहला वैक्सीन डॉ. जोनास सॉक द्वारा विकसित किया गया, जिसका परीक्षण 1952 में सबसे पहले एक बंदर में किया गया था| 12 अप्रैल 1955 को डॉ. सॉक द्वारा दुनिया में इसकी घोषणा की गई कि उन्होनें पोलियो का टीका बना लिया है।

दूसरा वैक्सीन जो मुँह के ज़रिये दिया जाता है डॉ. अल्बर्ट साबिन द्वारा कमज़ोर पोलियो वायरस का उपयोग करके विकसित किया गया। डॉ. साबिन के टीके का मानव परीक्षण वर्ष 1957 में शुरू किया गया और इसने वर्ष 1962 में लाइसेंस प्राप्त किया।

इन दोनों से पहले अमेरिकी वैज्ञानिक हेलेरी क्रोपोव्स्की ने क्षीण विषाणुओं से प्रारंभिक पोलियो टीका बनाया। उन्होंने जनवरी 1948 में सबसे पहले स्वयम् को टीका लगाया और फिर 27 फरवरी 1950 को रॉकलैंड काउंटी, न्यूयॉर्क में 20 बच्चों को यह टीका लगाया। इन बच्चों में से 17 ने पोलियो वायरस के प्रति एंटीबॉडी विकसित की, बाकी अन्य तीन में पहले से ही एंटीबॉडी मौजूद थे।

डॉक्टर अल्बर्ट साबिन का क्षीण जीवित वायरस मौखिक टीका, उसी क्षीण पोलियो वायरस से विकसित किया गया था जो कि साबिन को क्रोपोव्स्की से ही प्राप्त हुआ था।

डॉ. सॉक का पूरा नाम ‘डॉ. जोनास एडवर्ड सॉक’ था। उनका जन्म 28 अक्टूबर 1914 को न्यू यॉर्क शहर में हुआ था। डॉक्टर सॉक ने पोलियो के टीके का पेटेंट कराने से इंकार कर दिया था। यदि वह इस टीके को पेटेंट करा लेते तो अभी तक उन्हें इसका कुल मुनाफ़ा क़रीब 40,000 करोड़ रुपए तक हो सकता था। लेकिन यदि वह इस टीके को पेटेंट करा लेते तो दुनिया से पोलियो को मिटाना बेहद मुश्किल हो जाता। डॉक्टर सॉक से जब पूछा गया कि इस दवा का पेटेंट किसके पास है, तब उन्होंने कहा था, “इसका कोई पेटेंट नहीं है। क्या आप सूरज को पेटेंट करा सकते हैं?”

कहा जाता है कि उस समय अमेरिका में लोगों को बस दो चीज़ों का डर था – एक एटम बम और दूसरा पोलियो। 1952 में अमेरिका में पोलियो के 58,000 मामले सामने आये थे। डॉक्टर सॉक और उनकी टीम ने परीक्षणों के दौरान क़रीब 18,00,000 स्कूली बच्चों पर पोलियो के टीके को आज़माया। आखिरकार 12 अप्रैल 1955 को जब यह घोषणा हुई कि डॉक्टर सॉक की दवा सुरक्षित और असरदार है तो पूरे अमेरिका में खुशी की लहर दौड़ गई। पोलियो से बेहद ख़ौफ़ज़दा लोग सड़कों पर निकल आए, गिरिजाघरों में विशेष प्रार्थना सभाएँ की गईं, लोग एक-दूसरे से गले मिले, बधाइयाँ दीं, मिठाइयाँ बाँटीं… लोगों ने अपने घरों पर, दुकानों पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा – “धन्यवाद डॉ. सॉक!” 12 अप्रैल 1955 को पूरे अमेरिका में छुट्टी और जश्न का माहौल रहा। डॉ. सॉक को मसीहा माना जाने लगा और हर कोई उन्हें सम्मानित करने के लिए उतावला हो गया। इस तरह से हम मान सकते हैं कि डॉ. सॉक कोई जादूगर थे जिन्होंने अपने जादू से, उस वक़्त के पोलियो महामारी के रूप में जन्मे विश्व के सबसे बड़े राक्षस का अंत किया था। वरना तो लोग इसे हवा-पानी, फेर-फार या भूत-प्रेत का प्रकोप ही समझ रहे थे। कुछ लोगों का तो ये भी मानना था कि ये बीमारी पिछले जन्मों के कर्मों के कारण है

भारत में पल्स पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम 1978 में शुरू किया गया था और 1984 तक केवल 40 प्रतिशत बच्चों को ही दवा पिलाई जा सकी थी। पोलियो को रोक पाना बहुत मुश्किल काम था, फिर भी भारत सरकार द्वारा लगातार चलाये गये पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम के कारण अब भारत में पोलियो के बहुत कम केस पाये जाते हैं। मार्च 2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दक्षिण एशिया (भारत) को आधिकारिक रूप से पोलियो-मुक्त भी घोषित कर चुका है।

भारत में पोलियो का अंतिम केस 13 जनवरी 2011 को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में पाया गया। 24 अक्टूबर को पोलियो दिवस मनाया जाता है।

फिलहाल, अभी समाज बदल चुका है। अब अधिकतर लोग हमारे जैसे लोगों पर दया नहीं दिखाते हैं, मजाक नहीं उड़ाते हैं बल्कि बहुत ही सहयोगात्मक रवैया अपनाते हैं। और हमारे जैसे शारीरिक अक्षमता के कारण पिछड़े लोगों का हाथ पकड़ कर अपने साथ लेकर चलते हैं। अभी का समाज सुन्दर है। अपवाद अलग हैं।

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