लेखक: अभिषेक कुमावत। राजस्थान के रहने वाले अभिषेक को अल्प दृष्टि (low vision) के कारण विकलांगता है। वे अपने जीवन की कहानी विकलांगता डॉट कॉम के पर साझा करना चाहते हैं।
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आज पहली बार मैं मेरे जीवन की कहानी बताना चाहता हूं। मुझे किसी भाषा का ज्यादा ज्ञान नहीं है। मैं आसपास के वातावरण में जो भाषा आम बोल चाल में बोली जाती है उसी को अपनी बात कहने का एक माध्यम बना कर बोल रहा हूं।
मेरे पिताजी 10–20 रूपए प्रति दिन में सड़कों के निर्माण में सिर पर तगारी रख कर पत्थर डालने का काम करते थे। वे कभी भी अपने शरीर के स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित नहीं हो पाए क्योंकि वे जो कमाते उससे मेरी मम्मी की दवाई और पेट भरने के लिए राशन लाते। मम्मी को बांझ बोल जाता था और घरेलू हिंसा की जाती थी एक दिन मम्मी-पापा को घर से निकाल दिया गया।
कई हॉस्पिटल के चक्कर लगाने के बाद घर में किलकारी गूंजी, एक बेटा हुआ। फिर एक लक्ष्मी की उम्मीद से एक बार फिर किलकारी गूंजी लेकिन इस बार भी बेटा हुआ। दूसरा भी बेटा होने पर उसको प्यार क्या मिलता है आप सभी जानते हो। बड़े बेटे को निजी विद्यालय में पढ़ाना लिखाना और छोटे बेटे को सरकारी विद्यालय में। लेकिन मैंने कभी शिकायत नहीं की क्योंकि पापा का चेहरा रोज शाम को देखा करता था। पापा ने किसी तरह रहने के लिए दो कमरे बनाए। धीरे-धीरे समय बीतता गया। छोटा बेटा मैं हूं।
मुझे बचपन से ही पैसे की कीमत पापा मम्मी समझा रहे थे। पेंसिल के लिए 1 रूपया मांगने पर बड़ी मुश्किल से मिलता था। पापा घर जोड़ने में लगे थे लेकिन उन्होनें कभी खुद के स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया। सर्दी गर्मी बरसात सब उनके लिये समान थी। जैसे-जैसे पैसे बचते मकान को थोड़ा ठीक करने में लगा देते।
एक दिन वे साइकिल पर सीमेंट की बोरी ला रहे थे मैं साइकिल के धक्का लगा रहा था। अचानक उनकी तबियत बिगड़ी और सांस फूलने लगी। उन्होनें पास ही नीम के पेड़ की छाँव में बैठ कर आराम किया। पापा मुझे साइकिल के आगे डंडे पर बिठा कर जहां जाते वहां ले जाते थे। मैं पापा के बहुत करीब था।
मैं पहले पढ़ाई में इतना ध्यान नहीं देता था। इतना पता भी नहीं था कि मेरी आँखों में कोई दिक्कत भी है क्योंकि इतना ध्यान कभी किसी ने नहीं दिया था। जैसे-जैसे समझदारी आई पापा को मेहनत करते देखा करता था तो मेहनत से पढ़ने की बात सोची। जब मैं 9th क्लास में था तब मैंने ठीक से पढ़ाई करना शुरू किया।
स्कूल से आने के बाद बकरियां चराने जाता था। वहीं अकेला पढ़ता बाकी और सभी साथी क्रिकेट खेलते। गणित पढ़ने में इतनी रूचि हो गई कि गणित के कालांश में श्यामपट्ट पर देखने की जरूरत नहीं पड़ती केवल सुनकर किताब से प्रश्न देख कर हल करके बताने लगा था लेकिन English और अन्य विषयों में मुझे दिक्कत आने लगी। पास में बैठा साथी श्यामपट्ट पर लिखा उतार लेता तब में उसकी नोटबुक से उतारता। लेकिन एक बार English के अध्यापक ने मुझे बहुत डांटा लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई घर पर कहने की मेरी आंखों की जांच करवाओ।
मेरी 10th की बोर्ड परीक्षा थी तभी पापा की तबियत फिर से बिगड़ी लेकिन इस बार बहुत ज्यादा। डॉक्टर भर्ती करने से मना कर रहे थे। मम्मी और भैया पापा के साथ थे; और मैं अकेला घर पर। आज भी याद है वो 5 मार्च 2014 का दिन। पापा को हॉस्पिटल में भर्ती किया गया काफ़ी फ़ायदा भी हुआ लेकिन डॉक्टर ने उन्हें काम करने से मना कर दिया। इसीलिये आर्थिक संकट और भी बढ़ गया। भैया ने 12th पास करके काम करने का निश्चय किया।
दसवीं में मेरी अच्छी प्रतिशत बनने पर मुझे आगे पढ़ने के लिए कहा गया। मेरी रुचि गणित में थी लेकिन आस-पास में सरकारी विद्यालय में गणित संकाय नहीं होने के कारण मैंने विज्ञान संकाय में एडमिशन लिया। 10th पास करने के बाद गर्मी की छुट्टियों में मेरे दोस्त ने RS–CIT करने के लिए कहा। मैं उसके साथ गया लेकिन क्लास में कुछ नहीं दिखा रहा था श्कि यामपट्ट पर क्या पढ़ा रहे हैं। कंप्यूटर चलाने लगा तो डेस्कटॉप पर क्या है कुछ नहीं दिखा। इसलिये मैंने RS–CIT करने से मना कर दिया। लेकिन घर पर सभी ने पूछा कि क्यों मना कर रहे हो – तब बताना पड़ा की मुझे दिखता नहीं है।
जब हॉस्पिटल में आँखो की जाँच करवाई तब डॉक्टर ने बोला तुम चल कैसे लेते हो? आँखे तो बहुत खराब हो चुकी है और ये ठीक भी नहीं होगी लेकिन जितनी खराब हुई है उतनी ही रहें इसके लिए चश्मा बनवा लो। आगे भी खराब तो होंगी लेकिन इतनी जल्दी नहीं। तब से चश्मा लगा रहा हूँ। मैं फिर से पढ़ाई करने में लग गया ताकि पढ़ कर अच्छी जॉब पा कर आर्थिक स्थिति को थोड़ा बहुत सुधार सकूँ। लेकिन किस्मत तो किस्मत होती है।
12th की वही बोर्ड परीक्षा और पापा की तबीयत फिर खराब हो गई। इस बार साँस की दिक्कत न हो कर लकवा की बीमारी हुई। पापा के चेहरे और हाथ में लकवा आ गया। काफ़ी जगह पापा को दिखाने के लिए ले कर गए। लेकिन इस बार साथ में पीलिया भी हो गया जिससे खाने-पीने भी मुश्किल बढ़ गई। 2016 में 12th पास करके मैंने भी काम करने की सोची लेकिन पढ़ाई भी चालू रखनी थी और 15 साल की उम्र में कहीं बाहर भी नहीं जा सकता था और पापा का भी ख्याल रखना था। इसलिये घर पर ही बच्चों को ट्यूशन देने लगा। 4–5 बच्चे आ जाते थे जिससे मेरी कॉलेज की पढ़ाई हो रही थी। 2017 में किसी ने बताया था कि पापा के लकवा हो गया तो इनका फॉर्म लगा दो सरकार से सहायता मिल जाएगी। मैं पापा के लिए फॉर्म लगाने गया तो डॉक्टर ने मेरा भी साथ में लगवा दिया। लेकिन उस दिन पापा का चेकअप नहीं हो सका और मेरा हो गया था। मुझे कोई जानकारी नहीं थी क्योंकि मैं disability certificate के बारे में इतना जानता नहीं था।
पापा की तबीयत इस बार ठीक नहीं हो रही थी। लकवा में सुधार था लेकिन पीलिया से कमज़ोरी आ गई थी जिससे साँस की दिक्कत फिर से होने लगी। आखिरकार 4 साल बीमारी से लड़ते हुए 24 oct 2018 हॉस्पिटल में पापा हिम्मत हार गए। अब जिम्मेदारियाँ और बढ़ गई। कॉलेज से मेरी B.Sc 2019 में हो गई। मेरी रुचि पढ़ाने में लग गई थी तो B.Ed करने का सोचा। तभी UDID कार्ड डाक द्वारा घर पर आया। हमारे आस-पास में किसी ने ऐसा कार्ड नहीं देखा था किसी को कुछ नही पता था कि इसका उपयोग क्या है? ऑनलाइन चेक करने की कोशिश किए तब थोड़ा बहुत समझ में आया कि ये केंद्र सरकार का disability certificate हैं। लेकिन ये certificate 40% का था तो B.ed प्रवेश परीक्षा में कोई लाभ नहीं मिला लेकिन मेरे अंक अच्छे थे इसलिये कॉलेज मिल गई थी।
अब कोरोना महामारी आ गई जिसमें सब काम बंद हो गया। भैया भी घर बैठ गए। कोरोना लॉकडाउन के दौरान मैं सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। आर्थिक तंगी से बाहर निकला ही नहीं जा रहा था। ये परिस्थितियाँ मेरी आँखों की रोशनी से भी बड़ा दुख देने वाली थीं। मम्मी भी चिन्ता कर करके बीमार होती रहती थी। कभी-कभी तो खाना भी वक्त पर नहीं मिलता था। कभी-कभी खाना मैं भी बनाता था। मम्मी की तबीयत खराब रहने के कारण भैया की शादी करने की सोची लेकिन बिना बाप के लड़के को लड़की देने के लिए कोई राज़ी नहीं हो रहा था। ऊपर से आर्थिक तंगी। एक रिश्ता ऐसा आया जिनके दो लड़कियाँ थी और वे दोनों की शादी एक साथ करना चाहते थे। मुश्किलें और बढ़ गई क्योंकि मेरी उम्र 21 भी नहीं हुई थी तो दोनों की शादी सम्भव नहीं लग रही थी। लेकिन रिश्ता आया था तो ठुकरा भी नही सकते थे। दोनों की सगाई हुई और साल भर बाद 2021 में शादी हो गई। साथ ही मेरी B.Ed complete हो गईं।
मैंने काम करने का तरीका ऐसा बना रखा था जिससे दूसरो पर निर्भरता कम थी। किसी को अचानक देखने पर लगता नहीं था कि मुझे low vision की दिक्कत है। मेरे कम बोलने की आदत इस काम में साथ दे रही थी। मुझे जितना दिखता उस हिसाब से मैं मेरा काम करता रहता। मेरे दोस्त भी कम थे, बाहर घूमने की आदत भी नहीं थी। भैया ने मुझे एक फोन लाकर दे दिया। फोन में अनेक ऐसे फ़ीचर हैं जिससे मैं आसानी से पढ़ लेता। M.Sc में प्रवेश लिया लेकिन मैं घर से ही पढ़ता क्योंकि कॉलेज जाकर पढ़ने में परेशानी होती थी। B.Ed होने के कारण और पढ़ाने के रूचि के कारण REET का एग्जाम दिया लेकिन अच्छे अंक होने के बावजूद नौकरी नहीं मिल सकी — कारण पेपर आउट होने पर पेपर रद्द हो गया।
कोरोना के लॉकडाउन के दौरान सरकारी नौकरी की तैयारी भी कर रहा था और इस बीच मैं SSC के बहुत-से एग्जाम दे चुका था लेकिन 1–2 नंबर से पीछे रह रहा था। REET का पैटर्न बदला जिससे राजस्थान राज्य स्तर की नौकरी की तैयारी करने लगा। मेरा ग्राम विकास अधिकारी भर्ती–2021 में अंतिम रूप से चयन हुआ। उसके बाद REET मे चयन हुआ। RSET clear हुआ।
लेकिन किस्मत को तो कुछ और ही मंजूर था। ग्राम विकास अधिकारी के पद पर रहते हुए 8 माह के कार्यकाल के बाद विभाग द्वारा पुनः जाँच हुई जिसमें एक आँख को 6/24 और दूसरी को 6/18 बता कर मेरी विकलांगता 40% से घटाकर 10% कर दी गई और मुझे अपात्र घोषित करते हुए नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मेरी दोनों आँखों में बराबर दिक्कत है। मुझे मेरा पक्ष रखने का मौका भी नहीं दिया गया। नौकरी से बर्खास्त होने के बाद मैंने अलग अलग जगह से जाँच करवाया तो सभी जगह मुझे 40% बताया गया। इसके बाद मैंने जोधपुर उच्च न्यायालय ने न्याय के लिए केस दर्ज करवाया। लेकिन 5 माह बीत जाने के बाद भी केस की सुनवाई नहीं हुई है। जितनी तकलीफ आँखों की रोशनी न होने से नहीं हुई उससे ज्यादा अब समाज में हीन भावना से देखें जाने पर हो रही है। बचपन से तकलीफ देख कर बड़े हुए हैं तो अभी तक खुद को संभाल पा रहा हूँ लेकिन हिम्मत धीरे-धीरे टूट रही है।