कहते हैं कि हर ताले की कोई न कोई चाबी ज़रूर होती है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि बिन चाबी का कोई ताला हो! मुझे लगता है ताले-चाबी का यह सिद्धान्त सवाल और जवाब पर भी सटीक बैठता है। हर ताले की चाबी के समान, हर सवाल का जवाब होना भी निश्चित है। इन दोनों में फर्क बस इतना-भर है कि हर ताले की अपनी एक निश्चित चाबी होती है और हर ताला-चाबी हमेशा रहते भी साथ ही है। जबकि हर सवाल के एक से ज़्यादा संभावित जवाब हो सकते हैं। वैसे तो यह अच्छी बात है; लेकिन बदकिस्मती से सवाल के जवाब उससे बिछड़ कर कहीं खो जाते हैं।
ऐसे में सवालों के जवाब खोज लाने का ज़िम्मा हमारे कंधों पर आ जाता है। जैसा-जवाब, वैसा उसका असर! जब-जब जिन सवालों के जवाब हम ख़ोज लाते हैं तब-तब उनके जवाब हमारी ज़िन्दगी को पहले से आसान और बेहतर बना देते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन सवालों के जवाब हम ख़ोज नहीं पाते या ख़ोजने की कोशिश ही नहीं करते तब उन सवालों की गिरफ़्त में न सिर्फ़ हमारी बल्कि हमारे अपनों की ज़िन्दगी भी क़ैद होकर रह जाती है।
आपकी-हमारी ज़िन्दगी में ऐसे बे-शुमार अनसुलझे सवाल होंगे। उन्हीं बे-शुमार अनसुलझे सवालों में से एक सवाल है-“हमारे बाद इसका क्या होगा?”…
यह सवाल कुछ सुना-सुना सा लग रहा होगा…? जी हाँ! किसी विकलांग बच्चे के माता-पिता के मुँह से अपने बच्चे के भविष्य की चिंता में यह सवाल करते, आपने ज़रूर सुना होगा। अधिकांश विकलांग बच्चों के माता-पिता को पूरी ज़िन्दगी यही डर सताता रहता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके विकलांग बच्चे का क्या होगा…? वे अपनी पूरी ज़िन्दगी इसी सवाल से उपजे डर के साये में बिता देते हैं।
ऐसे में विकलांग बच्चा जब अपने माता-पिता को उसके भविष्य की फिक्र में डरते देखता है तो वह भी उनके बिना अपने भविष्य की कल्पना करने से डरने लगता है। वह मासूम बच्चा जाने कितनी बार अपने माता-पिता को यह सवाल दोहराते हुए सुनता है; कभी रिश्तेदारों के आगे, कभी मित्रों के आगे तो कभी अकेले में। कोई ख़ुशकिस्मत बच्चा ही होता है जो अपने माता-पिता के मुँह से सवाल के साथ इसका जवाब भी सुन पाता है। कभी-कभी तो माता-पिता उस मासूम बच्चे से ही यह सवाल कर बैठते हैं कि उनके बाद उसका क्या होगा…?
अफसोस! अधिकांश विकलांग बच्चों के माता-पिता इस सवाल से घबराकर चिंता तो करने लगते हैं; लेकिन इसके बेहतर और सटीक जवाब खोजने के लिए चिंतन नहीं कर पाते।
मेरा दावा है कि यदि हर विकलांग बच्चे के माता-पिता चिंता के बजाय जवाब के लिए चिंतन करने लगे तो यक़ीनन उन्हें एक नहीं बल्कि कई बेहतरीन जवाब मिल जाएँगे। जो न सिर्फ़ उन्हें भय-मुक्त जीवन देंगे बल्कि उनके बच्चे को भी एक खुशहाल और सफल जीवन दे पाएँगे।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि जब किसी के जीवन में विकलांगता की स्थिति आती है तो वह कभी भी अकेली नहीं आती बल्कि अपने साथ असीमित संघर्ष लेकर आती है। जीवन की अन्य स्थितियों-परिस्थितियों के उलट विकलांगता की स्थिति कुछ दिन, महीनों या कुछ सालों के लिए नहीं बल्कि स्थायित्व लिए आती है और किसी के सीधे-सरल जीवन को हमेशा के लिए “संघर्ष के रण” में बदल देती है।
यह भी सच है कि विकलांगता और उससे जन्मे संघर्षों से विकलांग बच्चे से पहले उसके माता-पिता प्रभावित होते हैं। वे जान जाते हैं कि उनके मासूम बच्चे का पूरा जीवन ही एक संघर्ष होने वाला है ऐसे में उन संघर्षों की कल्पना करके माता-पिता का डर जाना स्वाभाविक है; लेकिन इस डर से माता-पिता को आख़िर कब तक डरना चाहिए? कुछ महीने…!, कुछ साल…! या फिर पूरी ज़िन्दगी…!
डर कर पूरी ज़िन्दगी एक ही सवाल करते रहना “ हमारे बाद हमारे बच्चे का क्या होगा”? क्या सही है…!? हरगिज़ नहीं!
अपितु सही तो यह है कि जितना जल्दी हो माता-पिता अपने बच्चे के विकलांगता से प्रभावित जीवन को स्वीकार कर लें और विकलांगता के कारण आने वाले संघर्षों का सामना करने के लिए ख़ुद को व अपने बच्चे को तैयार करें। उसे संघर्षों से डरना नहीं जूझना और जीतना सिखाएँ।
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कुछ समय पहले मुझे लेखिका गीता पंडित जी द्वारा लिखित उपन्यास “इनबॉक्स” पढ़ने का अवसर मिला जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह उपन्यास छ: साल की उम्र में पोलियो से प्रभावित हुए एक बच्चे और उसकी माँ के जीवन पर आधारित है या यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस उपन्यास में विकलांगता और उससे जुड़ें हर संघर्ष से जूझकर आगे निकल जाने वाले एक बहादुर बच्चे और मज़बूत इरादों व सकारात्मक सोच रखने वाली माँ की कहानी है। जिसने कभी भी विकलांगता के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि हर विकट परिस्थिति में अपनी सकारात्मक सोच और सूझ-बुझ से उनसे निकल आने के रास्ते ख़ोज निकाले। जिसने अपने बच्चे को एक उज्ज्वल भविष्य दिया।
जब विकलांगता ने छ: साल की उम्र में उस नन्हें-से मासूम बच्चे के जीवन को अपने चंगुल में जकड़ा तब उसकी माँ को भी अपने बच्चे के भविष्य की चिंता ज़रूर सताई। उसने भी ख़ुद से सवाल किया—मेरे बाद मेरे बच्चे का क्या होगा? लेकिन उस माँ ने सवाल को सवाल नहीं रहने दिया बल्कि एक बेहतरीन जवाब में बदल दिया। उस माँ में संकल्प लिया कि वह अपने बच्चे को डर, दुख, अकेलेपन, असफलता, बेचारगी के साये में सिसकते भविष्य की कल्पना नहीं करने देगी बल्कि अपने बच्चे को ख़ुद उसके भविष्य का निर्माता बनाऐगी। उसे आशाओं, उम्मीदों, साहस की रोशनी में संघर्षों में से होकर आगे बढ़ना और जीतना सिखाऐगी। उसके जीवन को खुशहाल और अनेक सफलताओं से चमकता-जगमगाता जीवन बनाऐगी। अंतत: वह माँ अपने संकल्प को पूरा करने में सफल रही। उस माँ की यह “सफलता” निरंतर जवाब ख़ोजते रहने का ही परिणाम थी।
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मैं हर उस विकलांग बच्चे के माता-पिता से यह उपन्यास पढ़ने का अनुरोध करूँगी –(जो अपने बच्चे के भविष्य की चिंता में परेशान रहते हैं और बस सोचते रहते हैं कि आख़िर उनके बाद उनके बच्चे का क्या होगा?) क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि यह उपन्यास आपके सवालों के जवाब ख़ोजने में आपकी मदद ज़रूर करेगा। साथ ही विकलांगता से जूझने में आपके बच्चे व आपका संबल बनेगा।
सवाल पूछ कर वो बस समाज को संतुष्ट करते हैं…. हमारी स्थितियों के बारे में अगर पहले ही हमारे माँ पिता जी ने सिद्दत से संज्ञान लिया होता तो परिस्थितियों दूसरी होती