एक दिन में कुछ नहीं होता लेकिन…

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कौन है वह? क्या कोई सुपरहीरो? नहीं! नहीं तो कोई देवदूत? नहीं! कोई विशिष्ट व्यक्ति? नहीं! फिर? वह तो किसी कहानी का कोई अकल्पनीय किरदार है जो मूर्त रूप धारण कर गया है। कहानी आपकी, मेरी, हम सबकी। वह हमारे बीच से उठकर इंसानियत के शिखरों को नए आयाम दे रहा है। वह इंसानियत के जिन शिखरों को अपनी व्हीलचेयर से लांघ गया है उसकी कल्पना भी आम आदमी की कूवत में नहीं।

‘एक दिन में कुछ नहीं होता लेकिन एक दिन सब हो जाता है।’ अपनी पत्नी की कही इस बात को जीवन दर्शन बना लेने वाले सिरसा के गुरविंदर सिंह जी को हमेशा लगता था कि वह कुछ बड़ा करेंगे। रोज़ी-रोटी, परिवार और कारोबार संभालते उनके मन में हमेशा आता कि उनका जन्म इस सब के साथ-साथ कुछ ऐसा अलग-सा करने के लिए हुआ है जिसके बारे आम इंसान सोच भी नहीं सकता। मगर एक आम आदमी की मसरूफियत और मजबूरियाँ इस आम आदमी के जीवन में भी थी और बार-बार उन्हें अपनी तरफ खींच ही लेती थी। कुछ अलग करने की चाहत और ज़िंदगी की व्यस्तताओं के बीच जीवन चलता रहा।

एक दिन ज़िंदगी उस आम इंसान, गुरविंदर, को ऐसे पड़ाव पर ले आई कि जहाँ से बड़े-बड़ों की हिम्मत हवा हो जाती है और वे आहिस्ता-आहिस्ता अपनी मौत की तरफ बढ़ने लगते हैं। गुरविंदर जी एक दिन अपनी मोपेड पर किसी काम से जा रहे थे, रास्ते में एक ट्रक ने टक्कर मार दी। आस-पास जमा भीड़ ने गुरविंदर जी को लहूलुहान अवस्था में सरकारी हस्पताल पहुँचाया जहाँ उनकी गंभीर हालत को देखते हुए उन्हें लुधियाना रेफर कर दिया गया। जहाँ डॉक्टर्स ने परिवार को बताया कि उन्हें स्पाइनल इंजरी हुई है। वे अब जीवन भर चल नहीं सकेंगे। यकीनन यह बात जितनी आसानी से लिखी पढ़ी जा सकती है उससे लाख गुणा कठिन होता है अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए ऐसा कुछ सुनना और सहना। कुछ बड़ा करने का मन अब जैसे कुछ भी नहीं करना चाहता था। बेहोशी में कई तरह के ऑपरेशन हुए। दो दिन तक सब उनके पैरों की तरह सुन्न-सा था। कुछ दिन बाद उन्हें वार्ड में शिफ्ट किया गया। शाम को उन्हें दूध दिया गया तो उन्होंने नोटिस किया सभी मरीजों को दूध दिया जा रहा है। अस्पताल में ऐसा प्रबंध देखकर उन्हें संतोष हुआ कि आज़ादी के इतने सालों बाद ही सही किसी अस्पताल प्रबंधन को मरीजों के डाइट की फिक्र तो हुई लेकिन यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यह दूध अस्पताल प्रबंधन नहीं बल्कि एक स्वयंसेवी संस्था वितरित कर रही है।

अगले दिन सुबह फिर ट्राली में दूध, दलिया और मरीजों के अटेंडेंट के लिए नाश्ता आया तो गुरविंदर जी के मन ने जैसे मन ही से कहा यह लोग तो कमाल कर रहे हैं। हमें भी अपने शहर में ऐसा कुछ करना चाहिए। मगर सुन्न पड़ चुके पैरों ने जैसे मन की बात को अनसुना करते हुए जैसे डाँटा हो कि बिना पैरों के सपने न देख। अब इतने पैसे भी नहीं हैं। साथी नहीं हैं इस सब के लिए। खुद बीमार है, अपाहिज हो गया है। इलाज करवा और घर चल। अमूमन बाहरी चुनौतियां मन को ही मार देती हैं। गुरविंदर जी का मन एक बार तो चुप हो गया लेकिन उनके मन को हार भी मंजूर नहीं थी।

अगले दिन ट्राली के सेवादार को बुलाकर पूछ ही लिया इतना सब कैसे मैनेज कर लेते हो तब उस सेवादार ने उन्हें मुख्य-सेवादार का नंबर दिया। मुख्य-सेवादार ने बताया कि शुरुआत में बहुत मुश्किलें आई घर-घर दुकान-दुकान जाकर चंदा, दूध और अन्य सामग्री जमा करते। फिर पहले हमने सिर्फ एक ही वार्ड में दूध वितरण करना शुरू किया। लोगों ने काम देखा तो अपने आप ही जुड़ने लगे और आज हम कई जगह दूध, दवाईयां और लंगर बांटते हैं। बाबा नानक के बंदे हैं सरदार जी घर में भी लंगर लगा सकते हैं। मुख्य सेवादार की बात ने गुरविंदर जी की बुझती उम्मीद को जैसे कोई नया ईंधन दिया।

बहुत दिनों तक हस्पताल में रहे गुरविंदर सिंह जी सेवा कार्य देख भावुक होते रहे। मरीजों के सेवादारों के प्रति जो भाव उन्होंने देखे वो तो किसी रसूखदार के लिए भी नहीं देखे थे। ऐसी सकारत्मकता मिलती उन्हें सेवादारों को देखकर कि उनके अंदर की नकारात्मकता जाती रही। लंबे समय के बाद घर लौटे। घर, रोजी-रोटी, कारोबार आमदन सब ठप्प हो गया था। सब नए सिरे शुरू करना था। अंतर मन से उठती सेवा की भावना को भी दिशा देनी थी। मोपेड ठीक कराई गई उसे मोडिफाई कराया गया और अपने मित्रों से मिलना जुलना शुरू किया, उन्हें अपने सेवा के आईडिया से अवगत कराने लगे। काम-काज संभालने लगे। एक दिन अपने सर्विस स्टेशन के पास घूमती लावारिस और मानसिक रूप से अक्षम महिला को देखकर उनका सेवाभाव जोर देने लगा। उन्होंने ऐसे लावारिस लोगों की मदद के लिए ज्ञात संस्था पिंगलवाड़ा अमृतसर से संपर्क किया तो उन्होंने कहा अपने शहर की पुलिस से डी.डी.आर. कटवा कर उस महिला को ले आएं। डी.डी.आर. बनवाने पुलिस के पास गए तो पुलिस ने यह कह कर मना कर दिया ऐसे कैसे कागज बना दें क्या पता कौन है कहाँ की है।

पुलिस से न सुनने के बाद गुरविंदर जी ने जिला उपायुक्त से मिलकर उस मानसिक रूप से अस्वस्थ लावारिस महिला के बारे में उन्हें जानकारी दी कि वह इतनी ठंड में कैसे जीवित रह सकेगी। उपायुक्त के आदेश पर डी.डी.आर. मिल गया। अगली सुबह उन्हें लावारिस महिला को पिंगलवाड़ा अमृतसर लेकर जाना था लेकिन सुबह हुई और वह महिला ठंड से मर गई थी। पागल और लावारिस थी तो किसी को क्या फर्क पड़ता लेकिन उस रात गुरविंदर जी सो नहीं सके उन्हें जिला प्रशासन पर बहुत गुस्सा आया कि एक कागज के कारण एक जान चली गई। रात भर यही सोचते हुए बिता दी कि शहर में और न जाने कितने लावारिस होंगे जिनके पास ठंड से बचने कोई साधन नहीं होगा। अगली रात अपनी मोडिफाई मोपेड में लगी छोटी सी ट्राली में गर्म कपड़े भर कर शहर भर में जरूरतमंदों में बांटते रहे। मगर मन अब भी अशांत था। महसूस हुआ कि इतना भर काफी नहीं। इनके लिए कोई ठिकाना तो होना ही चाहिए। ठिकाना मतलब मकान, भोजन, कपड़े, लेकिन पैसा तो सब इलाज पर लग गया था। आगे कैसे बढ़ा जाए? खराब तबियत, विकलांगता और आर्थिक स्थिति सब तरफ से परेशानी ही नजर आती थी। पत्नी कहती बाबा नानक के बंदे हो हिम्मत नहीं हारनी। एक दिन में कुछ नहीं होता लेकिन एक दिन सब हो जाता है।

पत्नी की कही इस बात को मन रख वह सेवा कार्य में लग गए। कभी बीमार लावारिस लोगों को उठाने के लिए एम्बुलेंस का इंतजाम करते दिखते तो कभी तो कभी लोगों को जुटाने में कि आओ मिलकर कुछ अच्छा काम कर जाएँ। ऐसे कामों में धन की अत्यधिक आवश्यकता होती है लेकिन माँगने में हमेशा से संकोची रहे गुरविंदर सिंह जी कहते ‘काम पैसों की वजह से नहीं रुकते नियत की वजह से रुकते हैं। आप आगे तो आएँ।’ उनकी हिम्मत को देख लोग भी हिम्मत करने लगे। धीरे-धीरे उनके अथक और निस्वार्थ प्रयास रंग लाने लगे और एक-एक कर उनकी सेवा समिति की 6 एम्बुलेंस शहर भर में घूमने लगी हादसों में गिरे लोगों को तुरंत हस्पताल पहुँचाने के लिए। उनके द्वारा स्थापित भाई कन्हैया जी सेवा समिति (अब जो भाई कन्हैया जी मानव सेवा ट्रस्ट है) द्वारा आश्रम चला दिए जहाँ लावारिस बेसहाराओं को रिहायश, दवाएं, भोजन और कपड़े मुहैया कराए जाते। उन्होंने लावारिस बच्चों को स्कूल में डाला। उनके परिजन बन गए। अनाथ बच्चे उन्हें मामा कहने लगे। आज उनके 3 आश्रमों में तकरीबन 500 लावारिस, अनाथ व विकलांगजन शरण लिए हुए हैं। एक स्कूल 12वीं कक्षा तक की निशुल्क शिक्षा प्रदान कर रहा है और एम्बुलेंस सेवा तो चल ही रही है। यह सब मैनेज और मेंटेन करने में करीब 10 लाख महीना खर्च हो रहा है। यह सब दानवीरों के डोनेशन से संभव हो पा रहा है और दानवीरों को खोजने और उनके दिए दान को सही जगह लगाने का काम गुरविंदर सिंह जी अपनी इलेक्ट्रिक व्हीलचेयर और मोडिफाई करवाई गई कार में घूमते हुए बखूबी कर रहे हैं। उनके अथक परिश्रम और सार्थक पहल ने समाज को नई दिशा देने और फिर से अपने अंदर झाँकने पर मजबूर कर दिया है। उनकी निस्वार्थ सेवा को देखते हुए भारत सरकार ने गुरविंदर सिंह जी को पद्मश्री देने की घोषणा की है।

जिस मोड़ से अक्सर इंसान टूटकर बिखर जाते हैं वहीं से गुरविंदर सिंह जी जैसे लोग हर मजबूरी को मजबूर कर देने का साहस रखते हैं। वे खुद भी जुड़ते हैं और समाज को जोड़े रखने की महत्वपूर्ण कड़ी बन जाते हैं। ऐसे लोग बेहद खामोशी से अपना कार्य करते चले जाते हैं। इनके बारे में नाम मात्र जानकारी ही उपलब्ध है। उपरोक्त जानकारी भी उनके निजी मित्र द्वारा उपलब्ध हो सकी है। ‘एक हाथ से दो और दूसरे हाथ को पता न चले’ की कहावत ऐसे लोगों पर ही सही बैठती है।

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Manjit singh
Manjit singh
2 months ago

बहुत ही सुंदर कहानी लिखी है एक मरे हुए वयक्तिक मे दोबारा जीने की आस पैदा करती है कहानी यदि मन मे कुछ करने की इच्छा हो और पका ईरादा हो तो कोई भी काम करना मुश्किल नही है 🙏🙏

विजेंद्र
विजेंद्र
2 months ago

Zindaabaad

जीने को आरज़ू में इज़ाफ़ा है प्रदीप का कलाम और उसकी शख़्सियत

Madhubagga Bagga
Madhubagga Bagga
2 months ago

ऐसे लोगो के लिए तो हर शब्द बोना लगता है, माननीय श्री गुरविंदर सिंह जी को शत शत नमन🙏🙏

Dr Gurvinder banga
Dr Gurvinder banga
2 months ago

गुरविंदर जी के जज़्बे को सलाम । प्रदीप जी, ऐसी कहानियाँ समाज को प्रभावित करेंगी । एक दिन सब अच्छा होगा

Madhav Dubey
Madhav Dubey
2 months ago

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत |
मन में अगर कुछ बड़ा करने की इच्छा हो और आपका इरादा पक्का हो तो भगवान हर सम्भव आपकी मदद करते है |

Ninder Kaur
Ninder Kaur
2 months ago

आपका हर लेखन बहुत अच्छा होता है प्रदीप| बहुत कुछ सिखने और समझने को मिलता हैं|भाई गुरविंदर सिंह जी के जज्बे को सलाम है|🙏🏻🌱

चंद्रकला
चंद्रकला
2 months ago

आदरणीय गुरविंदर जी को दिल से सलाम, नमन। प्रदीप सिंह जी को हृदय से आभार लिखने के लिए

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