हम डिसेबल इसलिए हैं क्योंकि समाज हमारे लिए एक्सेसिबल नहीं है

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ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मुझे समय रहते पता नहीं चलीं या फिर समय बीत जाने पर पता चलीं। तब मुझे बहुत अफ़सोस होता है कि ये सब मुझे पहले पता क्यों नहीं चला? मैं स्वयम् को पिछड़ा महसूस करती हूँ। इसीलिए, जब मुझे कुछ ऐसा पता चलता है, जो मेरे लिए नया होता है, उसे मैं यहाँ शेयर ज़रूर करती हूँ कि वो चाहे एक ही इंसान क्यों न हो, वो स्वयम् को पिछड़ा न माने। उस एक को भी ये बात जाननी चाहिए।

सोशल मीडिया पर मैंने कुछ लोगों से पूछा था “आपके वैचारिक स्तर से विकलांगता (दिव्यांगता) क्या है?” लेकिन, मेरी उस बात किसी ने ज्यादा गौर नहीं किया। मैं सिर्फ़ यह जानना चाह रही थी कि इस मुद्दे पर कितने लोग ध्यान देते हैं?/ देंगे। खैर!

सबल (टीएसएफ की एक इकाई) की वर्कशॉप में दिल्ली NCPEDP से आये अक्षय सर कहते हैं कि “विकलांगता एनवायरनमेंट के कारण होती है।” अब जैसे कहीं पढ़ा या सुना तो होगा ही, कि भोपाल गैस त्रासदी के बाद वहाँ का परिवेश, वहाँ का जीवन और फिर उस हादसे से गुज़री पीढ़ी और उसके बाद जन्मी पीढ़ी। या फिर सारंडा के जंगल का खनन। झारखण्ड के जादूगोड़ा के बच्चे जो यूरेनियम के कारण विकलांगता के शिकार हो रहे हैं। या फिर आनुवंशिक, या फिर पोषण की कमी, या फिर गरीबी, या अज्ञानता या अशिक्षा।

बहुत बार ऐसा होता है कि हमें अज्ञानता और अशिक्षा के कारण ये पता ही नहीं चल पाता है कि जो समस्या है, उसका समाधान भी है। और बहुत बार पता तो होता है लेकिन गरीबी समाधान नहीं निकाल पाती।

अब इसमें क्या नया है? जो मैं आपको बता रही हूँ। नया इसलिए है कि हमारे समाज का एक तबका तो ऐसा भी है जो ये कहता था कि ये सब पिछले जन्मों का फल है। और इसमें अधिकतर महिलाएँ होती थीं। मेरी पीढ़ी की नहीं, मुझसे पहले वाली। अब ऐसा क्यों था? पता नहीं।

अक्षय सर ये भी कहते हैं कि “क्योंकि हमारे समाज का ढांचा विकलांगों को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है, इसलिए ही विकलांग व्यक्ति विकलांग है। अब सोचिये कि यदि हर सार्वजनिक स्थल जैसे – रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, एअरपोर्ट, स्कूल, कॉलेज, कोर्ट, जिम, पार्क, अस्पताल, सिनेमाघर, सभी धार्मिक स्थल, या सभी सरकारी कार्यालय में रैम्प बने हों, टेक्टाइल पेवर्स वाली फर्श हो। हर बस्ती/क्षेत्र/शहर में सांकेतिक भाषा व ब्रेललिपि वाले स्कूल/कॉलेज/युनिवर्सिटी हो, जो विकलांग व्यक्ति भी पढ़-लिख ले, आत्मनिर्भर बन जायें और उसे कहीं आने-जाने में कोई असुविधा न हो तो फिर विकलांग कौन है?/कहाँ है?”

मैं स्वयम् भी जब सबल जाती हूँ तो वहाँ क्लास से लेकर पूरा कैम्पस, वॉशरूम से लेकर सड़क पार कर गोलगप्पे खाने तक मैं सब आराम से कर लेती हूँ, जबकि अन्य जगहों पर ऐसा नहीं होता है।

अब जैसे वोटिंग रूम में सांकेतिक भाषा, ब्रेललिपि या रैम्प की सुविधा नहीं होती है। इवीएम मशीन की ऊँचाई व्हीलचेयर वालों के मेल से नहीं होती है। जैसे सारे कोर्ट में सांकेतिक भाषा और ब्रेललिपि की सुविधा नहीं होती है।

जैसे सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान तो चलाया लेकिन, स्कूल बहुत दूर हो, फिर उस स्कूल में ब्रेल लिपि या सांकेतिक भाषा के शिक्षक न हों। वहाँ रैम्प न हो, वहाँ की सीट-बेंचे विकलांगों को ध्यान में रखकर न बनाई गई हों। ऐसे मे ये सरकारी अभियान कितना सफल होगा?

इस प्रकार विकलांगों के लिए हर जगह एक बैरियर है, और ये बैरियर ही उनकी विकलांगता है।

अक्षय सर आगे कहते हैं कि “जिस परिवेश में आप सटीक नहीं बैठते, वहीं आप विकलांग हैं।” उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए बताया कि एक बार वे मुंबई में एक मूक-बधिर वाले स्कूल गये थे। जहाँ सभी छात्र, शिक्षक और कर्मचारी आपस में सांकेतिक भाषा में बात कर रहे थे। सभी आपस में बड़े सहज थे। जबकि सर को वहाँ कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो लोग आपस में क्या बात कर रहे हैं। सर को बातें समझ भी नहीं आ रही थीं और वो अपनी बात समझा भी नहीं पा रहे थे। क्योंकि वो अगर कुछ बोलते हैं तो वहाँ किसको सुनाई देना था? ऐसे में सर को असहजता हुई और उन्होंने स्वयम् को विकलांग-सा महसूस किया।

तो हम डिसेबल इसलिए हैं क्योंकि समाज हमारे लिए एक्सेसिबल नहीं है।

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