हर किसी की अपनी ज़िंदगी होती है। उसमें किसी का हस्तक्षेप मंजूर नहीं होता। चाहे विकलांग हों या स्वस्थ और सामान्य लोग सभी की एक दिनचर्या होती है। उसमें जरा-सा ख़लल पूरे दिन के लिए मूड खराब कर जाता है लेकिन एकरसता से ऊबा जीवन भी नागवार होता है, इसलिए विकलांगजन हर मुमकिन विकल्प चुनते हैं कि वे इस बंधी-बंधाई दिनचर्या को एक दिन या एक घंटे भर के लिए ही टाल सकें। फिर चाहे उन्हें यात्रा की कठिनाई झेलनी पड़े, थकान हो जाए, पर वे तैयार रहते हैं… कि ईश्वर के लिखे को कुछ या कहीं से तो बदल सकें… कि कुछ तो ऐसा हो जीवन में जो उनके मन का हो। किस्मत का लिखा तो वे रोज़ जीते ही हैं। किस्मत तन को रोक सकती है लेकिन मन को, ख्यालों को, कल्पनाओं की उड़ान को नहीं थाम सकती। हो सकता है व्हीलचेयर पर बैठा हुआ शख्स मूनवॉक कर रहा हो, ख्यालों में। वो जो सुनने में अक्षम है, कोई धुन बनाने में लगा हो। जो देख नहीं सकता, देखना कहीं वह बाइक रेस में हिस्सा न ले रहा हो। जिसके सामने ब्लॉक्स बिखरे पड़े हैं और उन्हें जोड़ने में कठिनाई महसूस कर रहा हो। मगर हो सकता है वह गुकेश या आनंद के वजीर के पीछे पड़ा हो अपनी ढाई चाल के दम पर। जिसे सॉफ़्ट-सी गेंद पकड़ने में मुश्किल होती हो देखना कभी उसके ज़ेहन में उतर कर कि कहीं वार्न की सदी की बेहतरीन गेंद से भी अधिक स्पिन लेती गेंद न डाल चुका हो। क्या किस्मत इन ख्यालों को बाँध सकती है? ईश्वर से सजा पाए विकलांगों के मन की ऐसी शक्ति को कोई ईश्वरीय सजा रोक सकती है? फिर भी वे खुश रहते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें दुख नहीं होता बल्कि इसलिए कि वे किस्मत और ईश्वरीय सजा के आगे डटकर खड़े हैं और अपने ऐसे ख्याली पुलावों से ही सही, किस्मत और ईश्वरीय विधान को मुँह चिढ़ाने में सक्षम हैं।
अब अगर बात उनकी हो कि जो स्वस्थ और सामान्य लोग किसी चोट या बीमारी की वजह से कुछ समय के लिए व्हीलचेयर पर आ जाएँ तो कैसे परेशान हो जाते हैं। हालांकि उनके ठीक होने या बेहतर स्थिति में हो सकने की संभावनाएँ उच्च स्तर पर होती हैं लेकिन वे ऐसे पेश आते हैं कि जीवन समाप्त हो गया हो। नहीं जीवन इतना सरल नहीं कि आसानी से खत्म हो जाए। कोमा में पड़े लोग भी किसी के स्नेह के सहारे जी ही रहे होते हैं न! फिर अचानक विकलांग हुए स्वस्थ और सामान्य लोग जिनके ठीक होने या बेहतर स्थितियों में पहुँचने की अधिक संभावनाएँ हैं; उन्हें ऐसी निराशा? निकलस पूरन जिन्हें बचपन में हुए एक हादसे के बाद डॉक्टरों ने यह कह दिया था कि अब शायद ही कभी अपने पैरों पर चल सकेंगे वे निराश हो जाते तो आज दुनिया के सबसे विस्फोटक बल्लेबाजों में उनका नाम नहीं होता और वेस्टइंडीज टीम के कप्तान नहीं बन पाते। फर्क केवल इतना है कि सामान्य और स्वस्थ लोग अपनी मेहनत और प्रयासों से अपनी कल्पनाओं को जी सकते हैं लेकिन विकलांग जन नहीं। स्वस्थ और सामान्य व्यक्ति का अचानक किसी हादसे या बीमारी के बाद विकलांग होना इनका अपनी दिनचर्या से टूटना है, जो एक तरह से इन्हें निराश और जीवन से विरक्त कर देता है। ठहरी हुई-सी दिनचर्या की आदत नहीं होती और अचानक से तेज रफ्तार ज़िंदगी का थमना आसान नहीं होता न। बात बस दिनचर्या के साथ सोच भी बदलने की है।
100%सत्य वचन..जिस पर गुजर रहीं वो ही जानता..शुभकामनाएं..बन्धु..keep going ♥️
सुंदर विचार लिखे है
I really admire your write up.You handle the stress very well. I appreciate your writing skills.Keep up the good work.God bless you
हाँ यह 100 फीसद सही है कि एक ठीक-ठाक इंसान किसी भी कारण से अपाहिज हो जाता है कारण भले ही कुछ भी हो लेकिन हर किसी में संभलने की या विकलांगता को स्वीकार करने की शक्ति नहीं होती।
Great article
Excellent write up dear Pardeep. Your writing skills is extraordinary. Keep up the good work.
DR.U.S.PAHWA BHIWANI
HARYANA
सच कहा। ‘ विकलांगता कोई रुकावट नहीं बनती यदि जीवन के संघर्षों की आंख में आंख डालकर अपने हिस्से का सुकून छीन सकें ‘ मुझे लगता है यह आसान है कहना।बनिस्बत उस स्थिति के जिसमें वह है नहीं। किंतु यह भी एक सत्य है, कई बार हाथ पैरों वाला देह से पूर्ण व्यक्ति को भी परिस्थितियां विकलांग बना देती हैं। तो यह सोचना मेरे ख़्याल से सही होगा कि हरेक के जीवन में संघर्ष है और अपने स्तर पर सब संघर्षरत हैं। हार नी माननी 😊। बढ़िया लिखा।हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।