बाबा सिद्धाये: देश के पैंथर पहले मूक-बधिर क्रिकेटर

photograph of baba sidhaye with his family

एक ज़माने में हमारे देश में एक प्रमुख व्यक्ति थे, जिनका नाम था यशवंत प्रभाकर सिद्धाये। क्या आप जानते हैं कौन हैं यशवंत प्रभाकर सिद्धाये? वही, जिन्हें लोग बाबा सिद्धाये के नाम से जानते हैं। सिद्धाये का जन्म 10 अप्रैल 1931 को ईरान के अहवाज़-अबेदान में एक बहुत ही सामान्य परिवार में हुआ था। वे थोड़े बड़े हुए तो उनमें विभिन्न प्रकार के खेलों के प्रति रुचि जगी, विशेषतः क्रिकेट में। लेकिन, क्योंकि वह एक मूक-बधिर बच्चे थे तो राहें उनके लिए इतनी आसान तो न थीं। इसलिए यशवंत के पिता, जो कि ईरान में एक कंपनी में महाप्रबंधक थे, अपने बेटे को एक बेहतर भविष्य देने के लिए उसे अपनी मातृभूमि भारत ले आये और पुणे में बस गए। सिद्धाये बमुश्किल 5 वर्ष की उम्र से ही जिमखाना में क्रिकेट खेलने लगे। यहीं पर टेस्ट क्रिकेट के लेग स्पिनर सदाशिव गणपत राव शिंदे (साडू शिंदे) ने सिद्धाये की प्रतिभा को पहचाना। उन्हीं के मार्गदर्शन में सिद्धाये ने क्रिकेट को गंभीरता से खेलना शुरू किया तथा 1949 को 18 वर्ष की उम्र में उन्हें रणजी ट्रॉफी के लिए महाराष्ट्र की टीम में चुन लिया गया। सिद्धाये के माता-पिता तथा तीन बड़े भाई-बहनों ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया।

दायें हाथ के मध्यक्रम के बल्लेबाज सिद्धाये ने, क्रिकेट के अपने 57 वर्ष के पेशे में कुल 51 मैच खेले, जिनमें 42 रणजी मैच थे। 27.79 की औसत से 1862 रन बनाए, जिनमें 1 शतक, 10 अर्ध शतक शामिल थे और शीर्ष स्कोर 135 का था। उन्होनें 13 विकेट लिए तथा 37.61 कि औसत से 772 गेंदे फेंकी और 36 कैच पकड़े। सिद्धाये ने 1949-54 तक महाराष्ट्र के साथ, 1954-55 तक बॉम्बे के विश्वविद्यालयों तथा बॉम्बे पश्चिम की ओर से भी खेला। फिर 1955-60 के दौरान फिर से महाराष्ट्र के लिए और अंत में 1960 से 66 तक रेलवे के लिए। उन्होंने 1956-57 में नासिक में बापू नाडकर्णी कि कप्तानी में महाराष्ट्र की ओर से बड़ौदा के खिलाफ खेलते हुए 238 रनों की साझेदारी की थी तथा 1972 में उन्होंने मात्र 59 मिनट में शतक लगाया, जो उस समय एक विश्व रिकार्ड था। इसके अलावा बाबा सिद्धाये ने महाराष्ट्र की ओर से दलीप ट्रॉफी के लिए भी खेला। न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज के खिलाफ अपने राज्य का नेतृत्व किया। वह बल्लेबाज के साथ-साथ उपकप्तान व कप्तान भी रहे। साथ ही वे बॉम्बे क्रिकेट एसोसिएशन के कोच भी थे और उन्होनें 50 से अधिक क्रिकेटरों को प्रशिक्षित किया।

क्षेत्ररक्षण में बाबा सिद्धाये इतने अच्छे थे कि टीम द्वारा उन्हें पैंथर नाम मिला था। यूँ तो उनके द्वारा मारे गए छक्कों का कोई आँकड़ा ज्ञात नहीं, किन्तु क्रिकेट के गलियारों में तो ऐसी भी खबरें हैं कि सिद्धाये एक ही मैच में कई-कई छक्के मार दिया करते थे। एक बार तो मरीन लाइन्स के, पी. जे. हिन्दू जिमखाना में एक गेंद को इतनी ज़ोर से मारा कि वह अरब सागर में जाकर गिरी और उनकी इसी उपलब्धि पर उस जिमखाना में उनका मैच स्मारक बनाया गया। बाबा सिद्धाये की महानता इस बात से भी साबित होती है कि उनका नाम लिमका बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में शामिल है। इसके अलावा उन्हें WHRPA (विश्व मानवाधिकार संरक्षण संघ) और UN द्वारा क्रिकेट के क्षेत्र में दुनिया के सबसे पहले और एकमात्र मूक-बधिर क्रिकेटर के रूप में उन्हें सम्मानित किया गया। क्रिकेट में उनका वेतन 8 से 15 रुपये तक था। एक खिलाड़ी के रूप में इतनी सफलता हासिल करने के बाद भी बाबा सिद्धाये विभिन्न क्लबों और विशेष प्रशिक्षण शिविरों में क्रिकेट की शिक्षा भी देते रहे। वे ग़रीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। ऐसे ही एक शिविर में बाबा सिद्धाये ने युवा बलविंदर सिंह संधू को देखा – जो 1983 के विश्व कप की टीम में एक प्रमुख सदस्य थे। इंग्लैंड के लंकाशायर में उनका एक क्रिकेट कार्यालय भी था, जहाँ उन्होंने स्टॉकपोर्ट क्रिकेट क्लब के लिए खेला था।

लेकिन, जाने उनके साथ भेदभाव हुआ या कुछ और बात थी कि इतनी विलक्षण प्रतिभा होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय टीम में कोई स्थान न मिल सका। जबकि उन्होंने क्रिकेट को सिर्फ़ खेला ही नहीं था बल्कि ज़िया भी था। 1975 में उनके शरीर में रक्त संचार की गंभीर समस्या हो गई, वे काफ़ी बीमार रहने लगे लेकिन इसके बावजूद वह प्रतिदिन मैदान पर जाते रहे। वर्ष 2002 में उनके तीन छात्रों का चयन भारतीय टीम में हुआ और उसी वर्ष 24 नवम्बर को उन्होंने इस सपने के साथ अपनी आखिरी साँस ली कि एक दिन उन्हें पुरस्कार के तौर पर भारतीय क्रिकेटर की सरकारी मान्यता अवश्य प्राप्त होगी। लेकिन उनके इस सपने पर न तो सरकार ने, न बी.सी.सी.आई. ने कोई ध्यान दिया और न ही संसद में मनोनीत सदस्य के रूप में किसी क्रिकेटर ने ही।

उनके पुत्र प्रवीण सिद्धाये कहते हैं कि “मैंने अपने पिता कि आखिरी इच्छा पूर्ण करने के लिए भारत सरकार को कई पत्र, आवेदन व न्यायिक आदेश भेजे किन्तु प्राधिकरण की ओर से रसीद पावती के अलावा कोई उत्तर नहीं आया। किन्तु मुझे उम्मीद है कि एक-न-एक दिन प्राधिकारी निश्चित रूप से क्रिकेट और समाज में उनके योगदान को समझेगें।”

सिद्धाये के परिवार में उनकी पत्नी प्रमोदिनी के अलावा एक पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं। 24 नवम्बर 2002 को सिद्धाये जी का निधन हुआ और 26 अगस्त 2005 को भारत में नागेश कुकुनूर द्वारा निर्देशित इकबाल नामक एक फ़िल्म रिलीज होती है। इस फ़िल्म के बारे में सिद्धाये जी के पुत्र प्रवीण के साथ ही कई और लोगों का कहना है कि फ़िल्म के पात्र इकबाल का चरित्र सिद्धाये जी से ही प्रेरित है। किन्तु, इस फ़िल्म के डिसक्लेमर में सिद्धाये या उनके परिवार को बिना किसी आभार के ये दावा किया गया है कि ये पात्र और घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं। सिद्धाये को देश का एकमात्र मूक-बधिर क्रिकेटर होने तथा क्रिकेट में उनके कीर्तिमानों को देखते हुए मैं भारत सरकार ये माँग करती हूँ कि सिद्धाये जी को पद्म पुरस्कार से सम्मानित करे। बाकी बी.सी.सी.आई. सहित अन्य बड़ी संस्थाओं के धन का समंदर तो, यूँ भी सूखा है। वे बेचारे क्या कर पाएँगे?

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