सुन-बोल न सकना, देख न सकना, चल-फिर न पाना और वह सब न कर सकना जो सामान्य लोग सरलता से कर पाते हैं यह सब विकलांगता की सामान्य-से प्रकार हैं जो शरीर पर या शारीरिक रूप से दिखाई देते हैं। कुछ अक्षमताएँ सहज रूप से दिखाई नहीं देती, इन्हें मनोरोग कहा जाता है। शायद ऐसा ही एक हल्का-सा मनोरोग है ‘आदत’। आदत को मनोरोग कहना थोड़ा मुश्किल भी है क्योंकि सामान्य रूप से हर व्यक्ति इससे ग्रसित है और ज्यादातर मामलों में किसी की आदत किसी दूसरे के लिए कम मुश्किलें पेश करती तो इसे विकलांगता नहीं कहा जा सकता। किसी भी चीज की आदत होना सहज और स्वाभाविक है। यह भी एक कारण है कि आदत को सामान्य माना जाता है लेकिन यह भी एक तरह से किसी चीज पर आश्रित होना ही है। चाहे वह गाने सुनना, फ़िल्म देखना, सास-बहु टाइप नाटक देखना, भजन-भक्ति करना या किसी भी सामान्य चीज के बिना व्यवहारिक रूप से असमान्य महसूस करना यह दर्शाता है कि हम उस सामान्य सी चीज पर आश्रित होते जा रहे हैं। इस तरह से होने वाली परेशानी का प्रतिशत ही यह बताता है कि हम किसी चीज पर कितने आश्रित हैं या आदी हैं। हमारा किसी चीज का आदी होने का प्रतिशत ही सामान्य-सी आदत को मनोरोग बना देता है। यह तब और भी जटिल बन जाता है जब आदत लत बन जाती है। नशा आदत का ही जटिल रूप है जिसे आमतौर पर नशे की लत लगना कहते हैं। यह नशे की आदत लत बनने के बाद जान तक ले सकती है और शारीरिक व मानसिक विकलांगता का कारण भी बन सकती है। नशा तो बेहद आम उदाहरण है कि आदत लत बनने के बाद कितनी खतरनाक हो सकती है।
विकलांग व्यक्तियों को आदत बहुत परेशान करती है। उदाहरण के लिए मैं अपनी माँ पर पूर्णतः आश्रित हूँ वे ही मेरे सभी काम करती हैं। उनके बिना मेरा काम कोई उनसे भी अच्छा कर भी देता है तो भी मन को तसल्ली नहीं मिलती। ऐसा लगता है कि यह काम भी उन्हें ही इतना अच्छा करना चाहिए। इसलिए उन्हें कहीं जाना हो या वे बीमार हो जाएँ तो बहुत परेशानी होती है। ऐसी बहुत सी आदतें हम विकलांगों को और अधिक विकलांग बनाती हैं।
आदतों से अलहदा न होना पड़े इसलिए हमारे पास कितने ही बहाने तैयार मिलते हैं। विकलांग तो विकलांगता और मजबूरी बता कर छूट जाते हैं। सामान्य लोग भी अपनी आदत आसानी से नहीं छोड़ते। आजकल तो स्क्रीन्स की आदत हर किसी को है। 1 साल के बच्चे से लेकर बुजुर्गों तक को स्क्रीन्स की आदत हो गई है। कुछ जॉब स्क्रीन्स के बिना असंभव हैं मगर पूरा दिन स्क्रीन पर नजरें गड़ाने वाली जॉब करने के बाद भी फोन पर घँटों रील्स देखते रहना हमारा स्क्रीन्स का आदी होना ही है। धीरे-धीरे यह स्क्रीन्स की आदत लत बनती जा रही है जो जटिल नेत्र विकार उत्पन्न कर रही है।
यह आदत रूपी विकलांगता बहुत व्यापक असर रखती है। अक्सर इसका निदान अपने ही पास होता है जैसे कि समय-समय खुद ही खुद को जाँचते रहना कि कहीं हमारी आदतें लत तो नहीं बन रही।
बहुत सही कहा प्रदीप भाई, और सच में आदत को लत में ना बदलने देना संपूर्णतः अपने हाथ में ही होता है।
बहुत गहरी बात…कुछ लोग गलत आदतों के शिकार होकर मानसिक रूप से मंद हो जाते हैं..और दूसरों का जीवन खराब कर देते हैं..
बहुत हीं सुंदर लिखा हैं किसी भी कार्य को अपनी आदत नही बनाना चाहीये कार्य को अपने उपर हावी नही होने देना चाहिए बल्कि अपने आप को कार्य के उप्पर हावी बनाना होगा 🙏🙏
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आदत का, *आदत अच्छी चीज की भी बुरी होती है*
Bahut sundar
Excellent write up dear Pardeep. You have nicely explained your views how a simple aadat makes one dependent on screen habit which is increasing day by day from infancy to old age there by making a lot of bad impact on personal health and social health. Congratulations for such a beautiful write up written in a lucid manner to make our society to ponder on these points which you have touched.keep up the good work.
With Best Wishes
Dr.U .S.Pahwa
DERMATOLOGIST
BHIWANI