विकलांगता अगर स्वीकार कर ली जाए तो ज़िंदगी उतनी कठिन नहीं रहती। स्वीकार करने वाले व्यक्ति विशेष के साथ उसके परिजन को भी यह जल्द से जल्द स्वीकार कर लेना चाहिए कि प्रिय-जन अब उन पर आश्रित हो गया है। किसी न किसी प्रकार से मन तो समझ ही जाता है, लेकिन सबकी अपनी ज़िंदगी है। अपने-अपने रिश्ते हैं, मित्र हैं। कभी किसी नाते-रिश्तेदार के यहाँ शादी है तो कोई अपने बच्चे का फंक्शन कर रहा है, कोई बीमार है तो कहीं कोई मृत्यु हो जाती है। संसार है, अपने तरीके से चलता है। आम मनुष्य को हर तरह के कार्यक्रमों में शामिल होना ही पड़ता है (चाहते या न चाहते हुए भी)। यह आम मानसिक प्रवृत्ति है। कार्यक्रमों में आना-जाना पड़ता है और इसी से संबंध घनिष्ठ होते हैं और नए संबंध भी बनते हैं। मनुष्य जैसे समाजिक प्राणी के लिए यह अति-महत्वपूर्ण है कि उसकी कार्यक्रमों में शिरकत बनी रहे ताकि ज़िंदगी की दिनचर्या उतनी उबाऊ और नीरस न रहे जोकि वास्तव में है।
अब सवाल उठता है कि दुनिया भर के कार्यकर्मों में शामिल होने वाला वह मनुष्य क्या करे, जिस पर किसी अन्य मनुष्य की विकलांगता का भी भार है? क्या उसकी सामाजिक ज़िंदगी उस व्यक्ति विशेष की विकलांगता के भार तले दब कर रह जाती है? इसका मतलब विकलांगता से सिर्फ विकलांग व्यक्ति ही नहीं उनके उन परिजन का जीवन भी प्रभावित होता है, खासकर वे, जिन पर विकलांगजन आश्रित होते हैं। उन्हें समाज, नाते-रिश्तेदारों, दोस्तों और अपने पर आश्रित व्यक्ति की सुविधाओं के मध्य सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। अब हर जगह या हर प्रकार के कार्यकर्मों में विकलांग व्यक्तियों का जाना या उन्हें ले जाना संभव नहीं। चलो, कार्यक्रमों को अगर एक तरफ रख भी दें तो आजकल एक तरह की बात सुनने को मिलती है – ‘फलां के घर हम नहीं जाते क्योंकि वे हमारे यहाँ नहीं आते।’ अरे ये कैसी मज़बूरी? विकलांग व्यक्ति जिस पर आश्रित हो उनके प्रति ऐसी सोच? जाने किन परिस्थितियों में उन्होंने अपने पर आश्रित व्यक्ति को घर में जाने किन के सहारे छोड़कर, जाने कैसी भागदौड़ के उन्होंने उस ज़रूरी रिश्ते या फर्ज़ का निर्वहन किया होगा। ध्यान तो उनका घर पर अटका रहा होगा कि जिसके सहारे उन्हें छोड़ा है उन्होंने ठीक से ध्यान तो रखा होगा। यही सोच, न उन्हें (जहाँ गए होते हैं) वहाँ का रहने देती है और न घर का ही रहने देती है। क्योंकि घर से तो वे निकल ही चुके होते हैं।
सब कुछ जानते हुए भी बात बेबात यह कहे जाना कि ‘आ जाओ, मिल जाओ’ एक प्रकार से उस व्यक्ति के दर्द को छेड़ना है जो अपने विकलांग आश्रित को लेकर संवेदनशील है। अरे आप, जो कि अपने आप को संभाल रहे हैं आप ही क्यों नहीं मिल आते अपने प्रियजन से? जब आपको अपने आप से ही फुर्सत नहीं तो वह जिसको खुद को संभालने के साथ एक और ज़िंदगी को केवल संभालना ही नहीं संवारना भी है और यह काम उसे प्रतिदिन करना है। हर क्षण करना है। वो आपसे मिलने आए?
समाज को विकलांग व्यक्तियों के प्रति ही नहीं उन लोगों के प्रति भी जागरूक होना होगा जो विकलांगजन को अपने जीवन का अंग मानते हैं। फिर वह किसी भी रूप में हो सकते हैं। जैसे कि विकलांग व्यक्ति के माता-पिता, बहन, भाई, पति, पत्नी।
हम विकलांगता पर बात करते हैं मगर लोग इन बेकसूर नींव की ईंटों को भूल जाते हैं जिनके दम पर विकलांगजन मजबूती से टिके होते हैं।
वेस्वित्विक जीवन पर आधारित एक सुंदर रचना लिखी है पर्दीप सिंह ने सुंदर विचार वाक्यों का सुमेल है की सभी देशवासियों को सोच बदलने की आवस्क्ट्टा है जो विकलांग के साथ किसी न किसी रूप मे संबंध रखते है 🙏🙏
हर किसी को एक जेसे हालात नहीं मिलते..बंधु
Proud of U Pradeep, M admire Ur courage 👍👍👍👍👍🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉🎉