अभी तो इसकी ज़िन्दगी में सब सुख हैं… लेकिन जब माँ-बाप न होंगे, तब?

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मैंने जब से होश सँभाला है, अपने लिए अक्सर ही एक बात सुनती आ रही हूँ, जहाँ लोग कहते हैं “अभी तो इसकी ज़िन्दगी में सब सुख हैं…लेकिन जब माँ-बाप न होंगे, तब…???” वे बात को अधूरा छोड़ देते। उनके अधूरे वाक्य को मैं अपने मन में पूरा करने की कोशिश करती। बचपन से ही मैं सोचती रही ‘जब माँ-बाप न होंगे तब क्या?’ और मैं डर जाती। मैंने बचपन से ही ये मान लिया कि जितने भी विकलांग व्यक्ति होते हैं, उनकी ज़िन्दगी तभी तक ‘ज़िन्दगी’ होती है, जब तक उनके माँ-पिता होते हैं। माँ-पिता के नहीं रहने के बाद उस विकलांग व्यक्ति के पास न तो ज़िन्दगी होती है, न सुख होता है, न सुकून और न ही कोई अपना।

मैंने अनुमान लगाया कि माँ-पिता के बाद विकलांग व्यक्ति जंगल में किसी अनाथ और छोटे बच्चे की तरह दर-दर भटकता होगा, किसी अपने, खुशियों और ज़िन्दगी की तलाश में। किन्तु, अंततः उसे कुछ हासिल नहीं होता होगा और फिर एक दिन वह परिस्थिति-रूपी दानव के चंगुल में फँसकर समाप्त हो जाता होगा। कितना डरावना है न ये सब? और ये डर हमें देता है — हमारा समाज। वही समाज, जो विकलांग व्यक्ति के घर रिश्ता जोड़ना नहीं चाहते, उसके शिक्षक बनना नहीं चाहते, उसके प्रेमी, मित्र, सहेली बनना नहीं चाहते। किन्तु वे विकलांग व्यक्तियों के लिए चिंतन और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। और अपनी उन ज्ञान-भरी बड़ी बातों से किसी विकलांग व्यक्ति को डराते रहते हैं कि ‘बहुत जल्दी तुम्हें विकृत भविष्य-रूपी एक राक्षस मिलेगा, जिससे तुम लड़ भी नहीं पाओगे और वो तुम्हें खा जायेगा।’ बेचारा विकलांग व्यक्ति सुनहरे वर्तमान में भी उस अदृश्य राक्षस के डर से डर-डर कर जीता है।

यह डर मेरे मन में भी हमेशा बना रहा। और इतना ज़्यादा बना रहा कि जब से माँ को सी.ओ.पी.डी. नामक बीमारी हुई, मुझे लगने लगा कि उस काले राक्षस को आने में अब देर नहीं। बस! कल ही आने वाला है। और मैं आधी रात को गहरी नींद से भी एकदम चौंक कर उठ जाती और सोती हुई माँ का चेहरा देखती। सब कुछ सामान्य होते हुए भी न जाने मेरे अंदर क्या होने लगता। ऐसा लगता कि छाती में कुछ खाली हो गया, कभी लगता कि छाती के नीचे कुछ चल रहा है। और कभी पेट में कंपन होता। मैं सोचती ‘यदि एक सुबह ऐसी हो, जिस सुबह माँ न हों, तब?’ तब मुझे ये दुनिया ही एक जंगल लगने लगती और अपने आस-पास के सब लोग भेड़िये। और मैं इतना डर जाती कि आँख बंद कर लेती और फिर एक झटके में उस सोच से बाहर आती। और सोचती कि उस डरावने दृश्य को अब नहीं सोचना है।

माँ पाँच वर्ष सी.ओ.पी.डी. से पीड़ित रहीं। दिन-रात उनके साथ रहने के कारण मैं ये समझ पाई कि बहुत खतरनाक बीमारी है सी.ओ.पी.डी.। माँ को मर-मर के जीते देखा, एक-एक साँस का संघर्ष देखा। ये सब देखने के बाद मेरा अपना डर कहीं दूर खो गया था। अब दिन-रात सिर्फ माँ की चिंता रहती कि ऐसा क्या करूँ कि वो सुकून से रहें, फिर भी कुछ नहीं कर सकती थी। मेरे वश में कुछ नहीं था।

और फिर एक सुबह… माँ सच में चली गईं, मेरी आँखों के सामने ही। मेरे देखते-देखते ही। मैं रोक नहीं पाई। ज़ाहिर है उनके जाने से मुझे खुशी तो नहीं हुई, लेकिन ज़्यादा दुःख भी नहीं हुआ। क्योंकि उनके जिस दर्द को हम सिर्फ़ देखकर सिहर जाते थे, उसे वो पाँच वर्ष से जी रही थीं, वो उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा था, कैसे जी लेती थीं माँ इतने दर्द के साथ? अब बस यही सुकून है कि अब माँ दर्द में नहीं हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वो जहाँ भी हों, कृपा कर उन्हें सुकून से रखना क्योंकि वे बहुत सुंदर आत्मा हैं।

अब माँ के जाने के बाद वो डरावना राक्षस? पता नहीं कहाँ है। कहीं छुपा होगा। हो सकता है वो एक दिन अचानक मुझ पर हमला करे और खा जाये। किन्तु जब तक नज़र नहीं आ रहा, मैं उससे डर भी नहीं रही। अब बैठकर डरने में समय बर्बाद नहीं करती, बल्कि दिन-रात इस योजना में बीत रहे कि हैं यदि वो अचानक कहीं मिल जाये और मैं अकेली होऊँ, तो क्या करूँगी? उससे कैसे लड़ूँगी? हारुँगी या जीतूँगी? यदि हार गई तो? तो कोई बात नहीं, शह-सवार ही गिरा करते हैं, ज़मीन पर रेंगने वाले नहीं। कमज़ोर सिर्फ़ मैं नहीं हूँ।

मैं जानती हूँ कि ये कमी सिर्फ़ मेरे ही जीवन में तो नहीं है, सबके जीवन में है। कितने ऐसे लोग हैं जो कमी के साथ जी रहे हैं। किसी के पास परिवार नहीं है, किसी के पास स्वास्थ्य, किसी के पास पैसा, किसी के पास शिक्षा और किसी के साथ समाज नहीं है। सिर्फ़ मैं ही संघर्ष में नहीं हूँ, अस्पताल में, थाने में, कचहरी में, गरीबी में, अखबार में पढ़ो, देखो कितने जीवन संघर्ष कर रहे हैं। अखबार वाले, दूध वाले, फेरी वाले, दिहाड़ी मजदूर, कुछ और भी लोग ऐसे हैं जिनके जीवन में कोई त्योहारी छुट्टी, कोई रविवार नहीं है। कितना संघर्षरत जीवन है उनका। जो लोग अपने आस-पास की दुनिया देखते हुए जीते हैं न! वो अपने जीवन से कभी निराश नहीं होते हैं, मैं भी नहीं हूँ। मुझे इतना पता है जीवन एक नदी की तरह अविराम चलता रहता है। फिर संघर्ष हो या कोई भी मुसीबत, एक दिन सबको गुजर जाना है, कुछ भी ठहरना नहीं है। बस! थोड़े धैर्य और खुद को व्यस्त रखने की ज़रूरत होती है। तब इस जीवन की नदी को जंगल-पहाड़ के अलावा उपलब्धि और सफलता के तौर पर कुछ सुंदर घाट भी मिलते हैं। मुझे भी मिले हैं — और इन्हें पाना मैं अपना सौभाग्य मानती हूँ।

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Mohammad Arif
Mohammad Arif
1 year ago

मैं बहुत समय से ललित जी को हर प्लेटफॉर्म पर फॉलो करता हूं।
आप लोगो का ये लेख लिखना बहुत शानदार पहल है।
बस जरूरत है इन बातो को आम जनों तक पहुंचने की।

Rachana singh
Rachana singh
1 year ago

ऐसी ही बातों से हमें भी आए दिन दो चार होना पड़ता है। लोग बस सलाह देते हैं कि शादी कर लो, लेकिन करना कोई नहीं चाहता।

Rashi
Rashi
1 year ago

बहुत ही भावुक कर गया ये लेख 🥹

Sarita
Sarita
4 months ago

Hello dosto, me bhi viklang hu dono peero se. me apni es vikalangta se bilkul dukhi nhi hun, balki khus hu ki bhagwaan ki marji thi isliye aesi huyi. me main padi likhi bhi hu himmat abi tak nhi hari hun. bas apno ne mjboor kar dia hai ki jivan ko khatam kr du pr sochti hu ki mar kar bhi koi fayda nhi hai. sab jeeyenge apne moj me kisi ko koi parvah nhi hogi. isliye man ko mna liya ki ladungi apne es kathin samay se or sayad jeet bhi jau esi umeed m hu… insaan ko jeena chahiye kitni bhi muskil samay kiu na ho… khus rho mast raho 🤗🤗

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