पिछले हफ़्ते एक घटना हुई जिसने मुझे एक नये दृष्टिकोण से सोचने के लिये मजबूर कर दिया।
हुआ यूँ कि फ़ेसबुक मित्र निधि मिश्रा जी ने मुझे एक नवयुवक के बारे में बताया जो UGC की NET JRF परीक्षा देना चाहता था। यह नवयुवक एक व्हीलचेयर यूज़र है और राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) ने उसे एक ऐसा परीक्षा केन्द्र आबंटित किया हुआ था जहाँ व्हीलचेयर जा ही नहीं सकती। सम्बंधित अधिकारियों से बहुत मिन्नतें की गई कि वे या तो परीक्षा केन्द्र को बदल दें या फिर ग्राउंड फ़्लोर पर ही परीक्षा देने की व्यवस्था करें — लेकिन किसी ने कोई सुनवाई नहीं की। परीक्षा में जब एक दिन शेष रह गया तब मुझे इस केस के बारे में पता चला। मैंने तुरंत कुछ अधिकारियों को टैग करते हुए ट्वीट किया — लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
विशेष आग्रह करने पर मेरे ट्वीट को 55 लोगों ने रीट्वीट किया… लेकिन शायद व्हीलचेयर पर बैठे एक नवयुवक का भविष्य और 55 लोगों का समर्थन प्रशासन को जगाने के लिये काफ़ी नहीं था। तभी मुझे अहसास हुआ कि आजकल आई.टी. सेल किस तरह से हमारे जीवन पर हावी हैं। ये आई.टी. किसी भी वाहियात बात को “वायरल” करा सकते हैं और जनता को भेड़ की तरह हाँक सकते हैं। इसके विपरीत हम विकलांगजन यदि अपने अधिकार के हनन की भी बात करें तो किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।
ऐसा क्यों?
ऐसा इसीलिये है कि हमारे पास अपना कोई आई.टी. सेल नहीं है — हमारे पास लोगों का समर्थन नहीं है। हमारे पास वह एकजुटता नहीं है कि हम किसी ज़रूरी ट्वीट के दस-बारह हज़ार रीट्वीट भी करा सकें। भारत के दस करोड़ के लगभग विकलांगजन में से एक करोड़ (या पचास लाख) तो सोशल मीडिया पर अवश्य होंगे — फिर भी हम किसी ज़रूरी काम के लिये कुछ हज़ार ट्वीट तक नहीं जुटा पाते। आलम ये है कि करोड़ों लोगों की भीड़ में बस वही चिल्लाता है जिसका पैर कुचला जाता है। बाकी को किसी के कष्ट से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इसलिये अब मैंने सोचा है कि सोशल मीडिया पर अपनी पहुँच को बढ़ाने के लिये मुझे कोशिश करनी होगी — मैंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। लेकिन अब लग रहा है कि मैंने ग़लत किया — मुझे ध्यान देना चाहिये था — मेरी आवाज़ की ताकत मात्र उतनी ही है जितने लोग मेरे पीछे खड़े हैं।
मेरे विचार में सोशल मीडिया कोई इतनी अधिक गंभीर चीज़ नहीं थी कि उस पर ध्यान दिया जाए — लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है — अब अधिकारों की लड़ाइयों के लिये भी सोशल मीडिया रणक्षेत्र का काम कर रहा है। ऐसे में लोगों ने अपने-अपने समूहों की “सोशल मीडिया सेनाएँ” बना ली हैं — और इन्हीं के बल पर चीज़े वायरल कराई जा रही हैं। यदि आप “ट्रेंडिंग” टॉपिक्स का अध्ययन करें तो अधिकांश टॉपिक्स का कोई जन-सरोकार नहीं होता। ट्रेंड होने वाले अधिकांश विषय फ़िज़ूल होते हैं।
केवल कानून बन जाने से अधिकार नहीं मिलते — दूसरे के अधिकारों का हनन हमारे समाज का एक शौक़ है। अधिकारों के हनन का जब तक उत्तरदायित्व तय नहीं होगा — जब तक सम्बंधित अधिकारियों की पहचान नहीं की जाएगी — जब तक उन अधिकारियों के समक्ष एकता का प्रदर्शन नहीं किया जाएगा — तब तक किसी अधिकारी को आपके दु:ख से कोई दु:ख नहीं होगा। कानून केवल काग़ज़ों पर धरे रह जाएँगे।
मुझे नहीं पता कि सोशल मीडिया का खेल कैसे खेला जाता है — मैंने सोशल मीडिया का अध्ययन काफ़ी किया है लेकिन वह अकादमिक / प्रोग्रामिंग के लिहाज से अधिक रहा है। सोशल मीडिया पर अपनी आवाज़ को बुलंद कैसे करना है यह मुझे नए सिरे से समझना होगा। इस बारे में यदि आप कोई मार्गदर्शन कर सकें तो कृपया अवश्य करें।
बिल्कुल सही कहा आपने कानून बन जाने से अधिकार नहीं मिलते,,,, कानून तो केवल कागज में बन जाते हैं उन्हें जमीन पर उतारने की जब तक कोशिश न की जाए तब तक ऐसे कानून का कोई फायदा नहीं,,,,,।
सोशल मीडिया के बारे में विशेष जानकारी तो मुझे भी नहीं है परंतु जहां तक मुझे लगता है सोशल मीडिया पर विकलांग जनों से संबंधित एक ग्रुप होना चाहिए।