स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी या स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर, तंत्रिका विकास सम्बंधी विकारों का एक समूह है जो व्यक्ति के सीखने की क्षमता को प्रभावित करता है। इनमें पढ़ना, लिखना, अभिव्यक्ति और गणित जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बौद्धिक क्षमता में कमी पायी जाती है। अधिकतर मामलों में इनकी पहचान बच्चों के विद्यालय जाने की उम्र में हो जाती है। हालाँकि कभी-कभी वयस्क होने तक भी इन क्षमताओं की कमी का पता नहीं चल पाता।
स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी को यदि सही वक़्त पर पहचाना न जाये और इसे प्रबंधित न किया जाये तो ये विकलांगताएँ व्यक्ति की ज़िन्दगी में कम शैक्षणिक उपलब्धि के अलावा भी कई परेशानियाँ लेकर आती हैं। इन समस्याओं में बेरोज़गारी, ग़रीबी, मानसिक अस्वस्थता और मनोवैज्ञानिक संकटों का अतिरिक्त जोखिम जैसी कई समस्याएँ शामिल है।
स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 में सूचीबद्ध 21 प्रकार की विकलांगताओं में शामिल है। आइये इन्हें और विस्तार में समझते हैं।
स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर की पहचान
किसी भी बच्चे में स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर की पहचान के लिए चीज़ों को विभिन्न दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की जाती है जिसमें बच्चों का व्यवहार, उनके माता-पिता और शिक्षकों द्वारा दी गयी जानकारी, पारिवारिक इतिहास जैसी सूचनाएँ सहायक होती हैं।
किसी बच्चे को कोई लर्निंग डिसऑर्डर है या नहीं इसकी पुष्टि के लिए मुख्यतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान दिया जाता है:
- कम-से-कम छः महीने तक निम्नलिखित में से किन्हीं एक या अधिक क्षेत्र में परेशानी:
- पढ़ने में कठिनाई (उदाहरण के लिए धीमी गति से पढ़ पाना, ग़लत पढ़ना या बहुत मेहनत करने पर पढ़ पाना)
- जो पढ़ा उसे समझने में कठिनाई
- स्पेलिंग पढ़ने, समझने में कठिनाई
- लिखने में परेशानी (व्याकरण या विराम चिन्ह आदि में परेशानी)
- संख्याओं से जुड़ी अवधारणाओं, तथ्यों और गणना आदि को समझ पाने में कठिनाई
- गणितीय तर्कों का इस्तेमाल कर पाने में कठिनाई
- उम्र के हिसाब से अपेक्षित शैक्षणिक कौशल में अत्यधिक कमी
- उपरोक्त सीखने की परेशानियों का कारण अन्य प्रकार की बौद्धिक विकलांगता, देखने, बोलने या सुनने में परेशानी
स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर और विकलांगता प्रमाण पत्र
स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर की तीव्रता अलग-अलग बच्चों में अलग हो सकती है और अधिक तीव्रता की स्थिति में यह विकलांगता का भी रूप ले सकती है। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम इसे विकलांगता की श्रेणी में रखता है और इसे प्रमाणित करने के नियम भी बताता है।
प्रथम स्क्रीनिंग
प्रत्येक सार्वजनिक और निजी विद्यालय की यह ज़िम्मेदारी है कि वे स्क्रीनिंग कमेटी बनाए। तीसरी कक्षा या आठ वर्ष की आयु में हर बच्चे की स्क्रीनिंग होनी चाहिए। इस स्तर पर यदि यह लगता है कि बच्चे को कोई स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर हो सकता है तो माता-पिता से बात करने के बाद उसे आगे के मूल्यांकन के लिए बाल-चिकित्सक के पास भेजा जाना चाहिए। बाल-चिकित्सक के मूल्यांकन के आधार पर यदि बच्चे को स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर हो तो उसे विकलांगता प्रमाण-पत्र के लिए मेडिकल अथॉरिटी के पास भेजा जाना चाहिए।
प्रामाणीकरण
चिकित्सा अधीक्षक या मुख्य चिकित्सा अधिकारी या सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित कोई अन्य समकक्ष प्राधिकारी प्रामाणीकरण प्राधिकरण का अध्यक्ष होता है। इनके अलावा निम्नलिखित व्यक्ति इसका हिस्सा होंगे:
- चिकित्सा अधीक्षक या मुख्य चिकित्सा अधिकारी या सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित कोई अन्य समकक्ष प्राधिकारी
- बाल-चिकित्सक या बाल स्नायु-विशेषज्ञ
- क्लिनिकल या पुनर्वास मनोवैज्ञानिक
- स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर के मूल्यांकन के लिए प्रशिक्षित व्यावसायिक चिकित्सक या विशेष शिक्षक
विकलांगता प्रमाण पत्र की वैधता
स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी के लिए किसी भी बच्चे का प्रमाण पत्र 8 वर्ष की आयु के बाद ही बन सकता है। इसके बाद बच्चे को 14 और फिर 18 वर्ष की आयु में दोबारा प्रमाणपत्र बनवाने की आवश्यकता होती है। 18 वर्ष की आयु में बना विकलांगता प्रमाण पत्र पूरी ज़िन्दगी वैध रहता है।
Mere bache ko bhi yahi problem h samjh me nh ata ki kis ko dikhau kahan lekar jaun