समझौता तो करना ही होगा!

a vector image showing a woman thinking about good memories

अभी कुछ दिन पहले फ़ोन कॉल पर मेरी बात मेरी एक दोस्त से हुई। वैसे तो किसी भी दोस्त से मेरी बात एक लम्बे समय-अंतराल पर ही होती है; लेकिन जब भी होती है तो होती भी लम्बी ही है। समय का हिसाब दोनों ओर से ही नहीं रखा जाता। हम दोस्तों की फ़ोन कॉल तब तक बंद नहीं होती, जब तक कोई अन्य व्यक्ति या कोई स्थिति हम दोस्तों की बातचीत में व्यवधान न डाल दे। लम्बे समय तक हम दोस्तों की बात न होने पर हमारी बातों का जो मोटा गट्ठा बन जाता है, बस एक कॉल पर हम सारा का सारा गट्ठा खोल डालते हैं। अपने किस्सों से लेकर अन्य दोस्तों के— दोस्तों  के किस्सों तक, मस्ती मज़ाक से लेकर मन की अनकही उलझनों तक, होठों की हँसी से लेकर आँखों की नमीं तक सब कह डालते हैं।

ऐसा उस दिन भी हुआ। हम दोनों दोस्तों ने पूरे गप्प लगाएँ। जब बातों का गट्ठा लगभग ख़त्म होने को ही आया था कि मेरी दोस्त ने कहा, “ मेरे घर में मेरी शादी के लिए बातें होने लगी हैं, मेरी शादी के लिए लड़के देखने-दिखाने का दौर भी चल निकला है”। यह सुनते ही मैं तो खुशी से उझल पड़ी और उससे सबकुछ विस्तार में बताने को कहने लगी।

मेरे इतने ख़ुश होने की वजह पता है, क्या थी…? वो थी—मेरी दोस्त निशु, जो एक ज़िंदादिल, हँसमुख स्वभाव वाली लड़की है। जो जीवन की चुनौतियों से लड़कर जीतने वाली एक बहादुर लड़की है। वह जीवन के प्रति इतनी आशावादी है कि अपने दोस्तों को भी उनके कठिन समय में से हाथ पकड़कर बाहर निकाल लाती है। उसने अपनी विकलांगता को कभी भी अपनी कमज़ोरी नहीं समझा, न ही विकलांगता के कारण अपनी खुशियों से समझोता ही किया। बल्कि अपनी विकलांगता को स्वीकार कर हमेशा उसके साथ आगे बढ़ने के रास्ते तलाशे।

पिछले साल वह अपनी विकलांगता के कारण बढ़ रही समस्याओं को कम कराने के लिए जटिल और बहुत दर्द युक्त कुछ शल्य-प्रक्रियाओं से गुज़री; लेकिन उस कठिन समय में भी मैंने कभी भी उसकी हिम्मत को टूटते या असहनीय दर्द में उसे विचलित होते नहीं देखा। हालाँकि, इलाज के बाद अभी भी विकलांगता के कारण निशु के जीवन में काफ़ी समस्याएँ हैं; लेकिन फिर भी अब  कुछ हद तक निशु का जीवन सामान्य हो गया है। अब तो वह नौकरी  भी करने लगी है और आत्मनिर्भरता का जीवन जी रही है।

निशु के माता-पिता और रिश्तेदारों को लगने लगा है कि अब निशु की शादी के विषय में सोचा जा सकता है। इसलिए अब वे  निशु के लिए लड़के देखने लगे हैं। (मैं यहाँ विशेष रूप से बताना चाहूँगी कि अन्य कुछ विकलांगजन की तरह निशु शादी के प्रति कभी भी उदासीन या हतोत्साहित नहीं रही बल्कि उसने शादी को हमेशा जीवन का अहम हिस्सा माना है)। इसलिए बहुत लंबे समय के सोच-विचार और अपनी इच्छाओं-अनिच्छाओं को समझने के बाद निशु ने अब पूरे खुले दिल से शादी करने का फैसला लिया है।

इसलिए जब निशु ने बताया कि उसके माता-पिता उसके रिश्ते के लिए किसी लड़के को देखकर आयें हैं तो मैं बहुत खुश हुई; लेकिन मेरी यह खुशी ज़्यादा देर टिक नहीं सकी। निशु ने बताया कि—“उसको वह लड़का पसन्द नहीं आया”। निशु की ना-पसन्द का कारण लड़के की विकलांगता बिल्कुल नहीं थी, बल्कि लड़के का व्यक्तित्व और स्वभाव था। जिससे निशु बिल्कुल भी प्रभावित नहीं थी। इसलिए उसने इस लड़के से रिश्ते के लिए मना कर दिया।

ख़ैर शादी के लिए लड़के-लड़कियों का देखना-दिखाना, पसन्द-नापसंद होना एक सामान्य प्रक्रिया है। इसमें ज़्यादा सोचने या परेशान होने वाली कोई बात नहीं है; लेकिन निशु परेशान थी। उसका अपने माता-पिता से सवाल था कि— जिन लड़कों से उसकी सोच न मिले या जिनके व्यक्तित्व से वह प्रभावित ही न हो, उसके रिश्ते के लिए ऐसे लड़कों का चयन ही क्यों करना?

इस पर उसकी माँ का जवाब था कि तुम्हें तुम्हारी विकलांगता के कारण कोई सामान्य लड़का तो मिलेगा नहीं!, तुम्हें कहीं-न-कहीं कोई तो समझौता करना ही होगा”।  उसकी माँ के इन शब्दों ने न सिर्फ़ निशु बल्कि मेरे मन में भी सवाल खड़े  कर दिए कि क्या विकलांगजन के लिए शादी का आधार दो लोगों की आपसी समझ न होकर कोई समझौता होना चाहिए…!? क्योंकि वे विकलांग हैं!? और यह कहाँ लिखा है कि— विकलांगजन को विकलांगजन से ही शादी करनी चाहिए, वे  किसी गैर-विकलांगजन से शादी नहीं कर सकते!? या कोई गैर-विकलांगजन किसी विकलांगजन से शादी नहीं करेगा!?

हालाँकि जहाँ तक निशु को मैं जानती हूँ, उसकी सोच कभी भी ऐसी नहीं है कि वह अपने जीवनसाथी का चुनाव विकलांगता और गैर-विकलांगता के पैमानों पर करे। बल्कि उसका व्यक्तित्व ऐसा है कि वह हमेशा व्यक्ति की सोच, उसके व्यक्तित्व, जीवन के प्रति उसके नज़रिये को ही महत्त्व देती है।

फिर क्या उसकी माँ अपनी बेटी को नहीं जानती थी!? आख़िर “समझौते” शब्द से उनका क्या आशय था…!? क्या यह सवाल करके उन्होनें अपनी बेटी को इस हीनभावना का अहसास नहीं करा दिया कि “तुम कमतर हो”!?  उसे यह नहीं जता दिया था कि तुम चाहे अपने व्यक्तित्व को कितना भी निखार लो, अपनी सोच को कितनी भी विकसित क्यों न कर लो; लेकिन यह समाज तुममें सबसे पहले तुम्हारी विकलांगता को ही देखेगा। यह कभी भी तुम्हें तुम्हारी योग्यताओं के आधार पर अपने लिए किसी को चुनने का अधिकार नहीं देगा। जब भी तुम ऐसा करने की कोशिश करोगी तो यह तुम्हें याद दिलाएगा कि— तुम विकलांग हो और इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं।

निशु जो कि ज़िंदादिल और सकारात्मक सोच वाली लड़की है और शादी के प्रति जिसकी सोच हमेशा आशावादी रही, उस दिन उसने मुझसे कहा कि— “शादी करने के अपने फैसले पर मुझको दोबारा सोचना होगा”।

शायद उस दिन निशु के इन शब्दों के पीछे छिपी उसकी उलझन और उन सभी विकलांगजन के मन की तकलीफ़ को मैं महसूस कर रही थी, जो शादी के प्रति उदासीन हो जाते हैं और जो शादी करने से मना कर देते हैं और जीवन भर अकेले रहने का फैसला कर लेते हैं। क्योंकि वे भी निशु की ही तरह अपनी शादी का आधार आपसी समझ को बनाना चाहते हैं न कि किसी समझौते की खोखली ज़मीन को।

यह कैसी विड़म्बना है कि एक विकलांगजन चाहे लाख कोशिशें कर अपने व्यक्तित्व को निखार ले; लेकिन उनकी योग्यता का पर्याय उनकी विकलांगता को ही माना जाता है। शादी के लिए उनके जीवनसाथी का चुनाव उनकी योग्यता, उनकी सोच को ध्यान में रखकर नहीं, उनकी विकलांगता को ध्यान में रखकर किया जाता है।

Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest
Inline Feedbacks
View all comments
0
आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा है!x
()
x