वहाँ सबने मेरी सुविधा का ख़्याल रखा

woman on crutches at a picnic

लेखक: शिवानी • प्रयागराज, उत्तर प्रदेश की निवासी शिवानी पोलियो के कारण चलन सम्बंधी विकलांगता (लोकोमोटर डिसेबिलिटी) से प्रभावित हैं। आप चलने के लिये कैलिपर का प्रयोग करती हैं और पेशे से एक पोषण विशेषज्ञ है।

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बचपन से ही मुझे घूमना फिरना बहुत पसंद था। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मेरी विकलांगता मेरे घूमने-फिरने में बड़ी बाधा बनने लगी। धीरे-धीरे कब मैं घर में ही सिमट कर रह गई पता ही नही चला। अपना भविष्य बनाने के लिए पढ़ाई में यूँ डूबी की स्वास्थ्य ही दाँव पर लगा बैठी। समाज से भी दूरी बनती गई, लेकिन यू.पी.एस.सी. की तैयारी के दौरान कला व संस्कृति जैसे विषयों में जब मुझे अलग-अलग जगहों के बारे में जानकारी हुई तो मन में घूमने-फिरने की इच्छा फिर जगी। विशेष कर दक्षिण भारत के मंदिरों के बारे में जानकारी पा कर मैं बड़ी उत्साहित हुई। उसी उत्साह में मैंने कहा कि जब मैं कभी घूमने जाऊँगी तो दक्षिण भारत जाऊँगी, वहाँ के मंदिरों के दर्शन करूँगी। तभी मेरे परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य ने कहा कि ज़्यादा बाहर आने-जाने की सोच मत रखो क्योंकि मंदिरों में भीड़-भाड़ होती है जो विकलांगजन की सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं।

बात सही थी मगर उस समय मुझे बहुत बुरी लगी। मुझे लग रहा था कि यह तो मुझे पता है की सुरक्षा की दृष्टि से मेरे लिए ठीक नहीं है और मैं अभी जा भी नहीं सकती लेकिन मैं जाने की कल्पना भी ना करूँ, या कभी सोचूँ भी नहीं, यह मुझे मंज़ूर नहीं था।

घर पर कोई रिश्तेदार आता है और उनके यहाँ कोई शादी-विवाह जैसा कार्यक्रम होता है तो वे घर के सभी सदस्यों से कहते कि आइएगा। मैं भी वहीं रहती लेकिन फिर भी मुझसे नहीं कहा जाता कि तुम भी आना। लोग पहले ही कह देते थे कि “अरे तुम कैसे आओगी तुम्हें दिक्कत होगी” – तो जाने की इच्छा वहीं दब जाती। तब मेरे मन में ऐसी इच्छा होती कि काश मैं भी इस काबिल होती कि ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों में जा पाती। मैं स्कूल कॉलेज तो जाती थी मगर घूमने की मंशा से सामाजिक कार्यक्रमों में नहीं जाती थी। अगर घर का कोई कार्यक्रम होता था तो वहाँ मेरे घर वाले मेरी सुविधा का ख़्याल रखते थे मगर सभी तो ऐसा नहीं करेंगे। मेरे पापा मुझे ऐसी जगह नहीं भेजना चाहते थे जहाँ मुझे थोड़ी भी दिक्कत हो या मुझे बुरा महसूस हो। अगर किसी ख़ास जगह अगर जाना भी होता था तो मैं वहाँ अपने आपको बहुत अलग-अलग महसूस करती थी क्योंकि मैं सबके साथ ज़मीन पर नहीं बैठी पाती थी। मनुष्य के लिए सामाजिकता भी एक बहुत ज़रूरी चीज है और धीरे-धीरे मुझे भी इसकी कमी अपने जीवन में महसूस होने लगी थी। ज़्यादातर लोगों के मुँह से यही सुना था “यह दुनिया बड़ी ज़ालिम है, यह दुनिया बुरे लोगों से भरी पड़ी है।”

लेकिन यह बात सच है कि जहाँ बुराई है तो वहीं अच्छाई की भी कमी नहीं। अंधेरा तभी तक होता है जब तक रोशनी की किरण न हो।

मेरी शादी के बाद मैंने देखा मेरे पति की मित्रता व संगत बहुत अच्छे लोगो से है। शादी से पहले और शादी के बाद भी मेरी कोई सच्ची सहेली नहीं थी। मैं अपने पति से इस बारे में चर्चा भी करती थी। उन्होंने मुझे कुछ अच्छे लोगों से मिलाया और एक अच्छा संगठन मुझे मिला। इससे मेरी ज़िंदगी में और मेरे व्यक्तित्व में बहुत बड़ा बदलाव आया। यहाँ एक बहुत अच्छा ख़ुशनुमा माहौल था मैंने बहुत सारे पढ़े-लिखे लोगों को देखा है लेकिन यहाँ जिस तरह के लोग और माहौल मिला ये कुछ अलग ही है।

यहाँ हमारी मुलाकात अनुराग कपूर और नीलम कपूर जी से हुई। अनुराग सर रेलवे में जॉब करते हैं और नीलम जी एक टीचर है। उन्होंने हम पति-पत्नी को अपनी कम्युनिटी से मिलवाया। उस समूह के सभी लोग जब भी हमसे मिलते हमें कभी ये एहसास नहीं होने दिया जाता कि मैं अलग हूँ। सभी मेरे हिसाब से मेरे जैसे ही एडजस्ट हो जाते। एक बार की बात है जब अनुराग सर के घर पर एक पार्टी थी और यह पार्टी का कार्यक्रम उनके घर के द्वितीय तल पर पर होना था उन्होंने मुझे फ़ोन कर उस पार्टी के लिए निमंत्रण दिया और कहा – “शिवानी कार्यक्रम दूसरे तल पर है। तुम्हारे लिए भूतल पर भी व्यवस्था है मगर हम चाहते हैं कि तुम हम सबके साथ वहाँ कार्यक्रम का आनंद लो और हम सबके साथ सहभागी बनो। इसलिए हम कोशिश करेंगे कि तुम्हें भी दूसरे फ्लोर पर ले जाएँ। अगर तुम्हें सीढ़ी चढ़ने में असुविधा होगी तो कोई चिंता नहीं हम लोग कुर्सी सहित तुम्हें उठा कर ले जाएँगे” इस बात पर मुझे हँसी भी आई और अंदर ही अंदर यह ख़ुशी भी हुई कि आज तक किसी ने भी इतने प्यार से ऐसे निमंत्रित नहीं किया था और न ही किसी ने मेरी सुविधाओं और मेरी इच्छाओं का ख़्याल रखा था। इससे पहले हमारी बहुत छोटी-सी मुलाकात हुई थी और वह भी बहुत कम समय के लिए। फिर भी वहाँ जाकर इतना अपनापन मुझे महसूस हुआ और सबके साथ इतना घुल-मिल गई कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं पहली बार वहाँ आई थी।

इसी तरह प्रयागराज की कंपनी बाग में पिकनिक का एक कार्यक्रम था जहाँ मुझे भी जाना था। मैं भी अपने घर से सारी तैयारी करके गई थी लेकिन जब हम वहाँ पहुंचे तो देखा कि हम दोनों लोगों के लिए भी जो भी ज़रूरी सुविधाओं के समान थे (जैसे खाने-पीने की व्यवस्था, बैठने के लिए स्टूल और चेयर) वे अपने साथ लेकर आए है। एक नहीं कई लोगों ने इस बात का ख़्याल रखा और बैठने की व्यवस्था भी इस तरह से की गई कि हम चेयर पर बैठने के बावजूद काम में हाथ बँटा सकते थे और सबके साथ बैठ सकते थे। इन सब का यह प्यार मुझे बहुत भाया और मैं भी उस प्यारी-सी कम्युनिटी का हिस्सा बन गई।

एक बार स्टार अवॉर्ड फंक्शन के लिए लखनऊ जाना था। प्रयागराज से लेकर लखनऊ तक का सफर इतना व्यवस्थित था कि हमें कहीं भी कोई दिक्कत नहीं हुई। सब कुछ हमारी भी सुविधाओं को ध्यान में रखकर व्यवस्थित किया गया था। हमने बस में डांस भी किया, खूब मजे किए। अब तक हमारे जीवन में आनंद की जो कमी थी वह भी पूरी हो गई। अब तक मैं हर जगह ख़ुद को ही सामाजिक ताने-बाने में बुनने की कोशिश करती रही। लेकिन जब हम इस संगत में आए तो हमें इस बात का एहसास हुआ कि अगर दोनों हाथ से ताली बजाई जाए, यानि थोड़ा-सा हम एडजस्ट करने की कोशिश करें और थोड़ा-सा हमारा समाज हमारे हिसाब से अपनी सोच को व्यवस्थित करने की कोशिश करे तो हम भी जीवन का आनंद उठा सकते हैं। हम विकलांगों की भी ज़िंदगी कोई बुरी नहीं लेकिन यह बहुत खूबसूरत भी बन सकती है अगर समाज भी हमारा साथ दे। समाज अपनी सोच में थोड़ा बदलाव करे अपनी व्यवस्थाओं को थोड़ा-सा हमारे हिसाब से भी बदले तो पूरी दुनिया ही बहुत खूबसूरत हो सकती है और विकलांगों के संघर्ष बहुत हद तक कम किए जा सकते हैं।

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Rashi
Rashi
3 months ago

बेहतरीन लेख😇

Nupur Sharma
Nupur Sharma
3 months ago

आपका आलेख बहुत अच्छा है शिवानी जी। आपने सही कहा ताली दोनों हाथों से बजती है। यदि विकलांगजन थोड़ा एडजस्ट कर ले और सामान्यजन भी उनकी सुविधाओं का ध्यान रखने की कोशिश करे तो सब एक साथ आनन्दित हो सकते हैं।

AGNA
AGNA
3 months ago

विकलांगता हमारी कमजोरी नहीं है। हमारी कमजोरी नकारात्मकता अथवा नकारात्मक लोग हैं जो हमारे आस–पास नकारात्मक बातें बोलकर हमारे दिमाग में यह विचार भर देते हैं की हम कमजोर हैं। यद्यपि सकारात्मक बातें हमे ऊर्जा से भर देती हैं। सकारात्मक माहौल में व्यक्ति वो कार्य भी कर जाता है जो उससे पहले उसके लिए असंभव प्रतीत होता था।

Bharti
Bharti
3 months ago

शिवानी बहुत सही लिखा आपने कि विकलांग जन थोड़े कम सामाजिक होते हैं क्योंकि हमारा सामाजिक ताना – बाना इस तरीके का है जिसमें हमें सामंजस्य बिठाने में थोड़ी कठिनाई होती है। बड़ा अच्छा लगा पढ़कर कि आपको अच्छे लोगों का साथ मिला जो आपको अच्छा महसूस कराते है, जिनके बीच आप खुद को अलग महसूस नही करती। शारारिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य भी उतना ही जरुरी है और वह तभी संभव है जब विकलांग जन को अच्छे दोस्तों का साथ मिले।

Madhav Dubey
Madhav Dubey
1 month ago

शिवानी जी आपने बहुत बेहतरीन लेख लिखा है….

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