आपने सुना ही होगा कि आवाज़ में बहुत ताक़त होती है। यह बात सही भी है लेकिन हम इस बात को भी झुठला नहीं सकते कि हमारे चारों तरफ इतनी आवाज़ें होने के बावज़ूद भी हमारा ध्यान उन पर नहीं जा पाता और वे आवाज़ें केवल शोर बनकर ही रह जाती हैं। मेरे कहने का आशय है कि हमारा ध्यान केवल उन्हीं आवाज़ों पर केन्द्रित होता हैं जो सही समय, सही जगह और सही विषय पर उठायी गई हों।
मैं आज आपके साथ अपने जीवन के दो अनुभव साझा करना चाहती हूँ। इन अनुभवों ने मेरी सोच को न सिर्फ़ बदला बल्कि सही दिशा भी दी है। मेरे इन अनुभवों से आप भी जान सकतें हैं कि आपकी सोच सही दिशा में है या उसको परिवर्तित करने कि जरुरत हैं।
पहला अनुभव
मेरा पहला अनुभव अपने घर से बैंक के बाहर तक और फिर बैंक के अन्दर तक जाने का है। आप सोच रहे होंगे कि मैं सीधा यह भी कह सकती थी कि मेरा अनुभव एक बैंक जाने का है। लेकिन, मैंने इसको दो हिस्सों में बाँटा है। पहला घर से बैंक के बाहर तक जाना और दूसरा बैंक के बाहर से बैंक के अन्दर तक जाना। पहला हिस्सा सामान्य है जिसमें मैं एक ऑटो में बैठी, ऑटो वाले भैया से अपनी व्हीलचेयर को ऑटो में रखवाया और बड़ी आसानी से बैंक के बाहर तक पहुँच गयी।
यह पहला हिस्सा जितना आसान था, दूसरा हिस्सा उतना ही उलझन भरा था। कारण यह कि बैंक के अन्दर जाने के लिए पाँच सीढ़ियों पर चढ़कर जाना था। इन सीढ़ियों को व्हीलचेयर के साथ चढ़ पाना मेरे लिए मुमकीन नहीं था। चूँकि बैंक में व्हीलचेयर यूजर्स के लिए रैंप कि सुविधा नहीं थी तो मैंने नीचे ज़मीन पर उतरकर जाना तय किया। इसके अलावा अन्य कोई रास्ता भी तो नहीं था। मैंने पहले ऑटो को बिल्कुल सीढ़ियों के पास लगवाया और फिर पहली सीढ़ी पर एक कपड़ा बिछाकर ऑटो से नीचे उतरी। सीढियाँ आने-जाने वालों के जूते-चप्पलों की वजह से इतनी गंदी थी कि बिना कपड़ा बिछाए सीढियों पर बैठ पाना संभव नहीं था।
वहाँ लोग इतनी जल्दी में थे कि मेरे बिछाए कपड़े पर भी जूते-चप्पल रख कर जा रहें थे। वे लोग इतना भी सब्र नहीं रख पा रहे थे कि पहले मैं अन्दर चली जाऊँ और अपनी व्हीलचेयर पर बैठ जाऊँ। मुझे इस तरह जाते देख कुछ लोग आपस में फुसफुसा रहे थे तो कुछ मुझे घूरे जा रहे थे। मुझे लग रहा था कि मानो इस तरह जाकर या तो मैं कोई तमाशा दिखा रही हूँ जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ लग रही हैं या फिर मैं कोई गुनाह कर रही हूँ। यह सब मुझे बहुत बुरा लग रहा था। पर मैं आँखें नीचीं कर चुप्पी साधे, सब बर्दाश्त करते हुए वे पाँच सीढियाँ चढ़ गयी और व्हीलचेयर पर बैठ कर बैंक में अपना काम कराया। वापसी में फिर सीढ़ियों पर बैठ-बैठ कर उतरने की प्रक्रिया से गुज़री। लोगों की जल्दबाज़ी, घूरती नज़रें, उनकी फुसफुसाहट; सब चुपचाप बर्दाश्त किया। लोगों के ऐसे असभ्य व्यवहार के खिलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाई और सोचा कि अगर हमें (विकलांगजन) को अपने काम करने हैं तो ये सब हमें बर्दाश्त करना ही होगा। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
अधिकतर विकलांगजन की यही सोच होती है कि आवाज़ उठाने से कुछ नहीं होगा। न तो सभी इमारतों, संस्थानों में रैंप ही बन पायेगा और ना ही समाज का विकलांगजन के प्रति नज़रिया ही बदल पायेगा। हम विकलांगजन की यह सोच बिल्कुल गलत है। विकलांगजन “सही समय और सही जगह” पर आवाज़ नहीं उठाते और अपनी बुरी परिस्थितियों का अफ़सोस करते रहते हैं। विकलांगजन को यह समझना ही होगा कि कोई भी परिवर्तन जल्दी और आसानी से नहीं होता। छोटे से परिवर्तन के लिए भी आवाज़ उठानी ही पड़ती हैं। जब तक हम आवाज़ उठाकर अपनी ज़रूरतों और हम किस तरह के व्यवहार कि अपेक्षा समाज से करते है यह नहीं बताएंगे, तब तक हम समाज से किसी भी तरह के परिवर्तन कि उम्मीद भी नहीं कर सकते।
दूसरा अनुभव
दूसरा अनुभव एक अन्य इमारत के अन्दर जाने का है। वहाँ कहने को तो विकलांगजन के लिए एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल पर जाने के लिए लिफ़्ट की सुविधा थी; लेकिन उस लिफ़्ट तक या इमारत के अन्दर तक जाने का रास्ता भी वैसा ही था जिसे एक व्हीलचेयर यूजर आसानी से पार नहीं कर सकता था।
इमारत में अंदर जाने के रास्ते पर लोगों की ज्यादा भीड़ ना हो इस विचार से उस रास्ते पर लोहे के मोटे पाइपों से एक बैरियर बनाया गया था। इन पाइपों के बीच सिर्फ़ इतना रास्ता ही खुला छोड़ा गया था जिसमें से केवल एक सामान्य व्यक्ति ही खड़ा होकर निकल सके। व्हीलचेयर पर बैठे किसी व्यक्ति के लिये इतने संकीर्ण रास्ते से निकल पाना संभव नहीं था। तब कुछ लोगों ने मुझे मेरी व्हीलचेयर के साथ उठाकर उन पाइपों के ऊपर से अन्दर किया। अंदर जाने का यह तरीका मुझे बहुत बुरा लगा और मैंने अपने अटेंडेंट के सामने रास्ते की अगमता पर अपना गुस्सा ज़ाहिर कर दिया। गुस्सा ज़ाहिर करने से रास्ता तो सुगम नहीं हुआ; यह संभव भी नहीं था; लेकिन, संयोग से वहाँ किसी ने मेरी गुस्से से भरी आवाज़ को सुना और आकर मेरे गुस्से की वजह के बारे में पूछा।
सही समय और सही जगह अपनी आवाज़ उठाकर मैं ज़्यादा नहीं तो कम-से-कम एक व्यक्ति को समझा सकी थी कि रास्ते की अगमता के कारण विकलांगजन को कितनी असुविधा का सामना करना पड़ता है। मेरे “सही समय और सही जगह” पर आवाज़ उठाने पर उस व्यक्ति ने मेरी तारीफ़ की और कहा कि मैं संस्थान की मैनजमेंट तक अपनी शिकायत पहुँचाऊँ। वास्तव में मैं भी चाहती थी कि मैनजमेंट तक व्हीलचेयर यूजर्स की यह समस्या जाये ताकि वे इस समस्या के समाधान पर विचार करें और कोई कदम उठायें।
समय की कमी के कारण मैं उस दिन मैनजमेंट से नहीं मिल पायी। लेकिन, खुद से वादा किया कि आने वाले समय में अपनी आवाज़ आगे लेकर ज़रूर जाऊँगी। ताकि परिस्थितियों में छोटा ही सही पर बदलाव आने की उम्मीद ज़रूर जगे।
अपने इन दोनों अनुभवों से मैंने यही सीखा कि जब हम परिस्थितियों के आगे घुटने टेक सब कुछ सहन करते जाते हैं तो परिस्थितियों में सुधार की उम्मीद खो देते हैं और हर परिस्थिति से ना चाहते हुए भी समझौता करने को विवश हो जाते हैं। यही मेरे साथ मेरे पहले अनुभव में हुआ। वहाँ बैंक में मैंने सही समय पर आवाज़ नहीं उठायी। अगर मैं आवाज़ उठाती तो निश्चित ही कुछ परिवर्तन ज़रूर होता। हो सकता है कि मेरे विरोध करने पर लोग मुझे देख कर बातें न बनाते, मुझे घूरना बंद कर देते या हो सकता था कि मुझे पहले अन्दर जाने देते। मैंने सही समय पर आवाज़ नहीं उठाई तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
वही दूसरी ओर जहाँ गुस्से में मैंने अपनी आवाज़ उठाई — किसी ने उस आवाज़ को सुना, समझा और मेरा समर्थन भी किया। यदि हम “सही समय और सही जगह” पर अपनी आवाज़ उठाएँगे तो छोटे ही सही लेकिन परिस्थितियों में परिवर्तन भी ज़रूर होंगे।
Nupur ji bahut adbhut rup se vivran kiya…..nyc..
Bahut bahadur he aap best of luck Nupur Sharma
बहुत सादगी से आपने उन भाव को शब्दों में पिरो दिया जो अक्सर हम हर रोज कहीं ना कहीं महसूस करते हैं।
नूपुर जी आपने बहुत ही सुंदर अनुभव साझा किया है सभी के साथ और इस अनुभव के माध्यम से हमारे विकलांग समाज को एक बहुत बड़ा संदेश भी प्रदान किया है
इसी तरह का एक अनुभव मेरे पास भी है जो कि मेरे साथ मेरे महाविद्यालय में घटित हुआ मैं भी लिखना चाहता हूं परंतु हर किसी के पास बेहतर लेखन क्षमता नहीं होती इसलिए शायद मैं अपने अनुभव को इस तरह के शब्द नहीं प्रदान कर पा रहा हूं यदि आप मेरा अनुभव सुनकर उसे अपने शब्द प्रदान करें तो अति कृपा होगी
प्रिय नमन, लिखने के लिये जो भी योग्यता चाहिये वह सब तुम्हारे पास है। मैं चाहूँगा कि तुम ख़ुद ही अपना अनुभव अपने शब्दों में लिखो और मुझे भेजो।
नमन जी, ललित सर ने बिल्कुल सही कहा हैं| आप अपना अनुभव अपने शब्दों में ही लिखकर सर के पास ज़रूर भेजियें| ताकि आपके अनुभव से हमें भी बहुत कुछ सीखने को मिलें|