वृद्धावस्था में विकलांगता का एक प्रमुख कारण : पार्किन्संस

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वरिष्ठ नागरिकों को अक्सर सेहत से जुड़ी हुई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उनमें कुछ बीमारियाँ ऐसी होती हैं जो उनमें विकलांगता का कारण भी बन सकती हैं। पार्किन्संस ऐसी ही एक बीमारी है। पार्किन्संस से मिलते जुलते लक्षणों का उल्लेख काफ़ी प्राचीन ग्रंथों में भी है लेकिन इस बीमारी का नाम जेम्स पार्किन्संस के नाम पर रखा गया जिन्होंने 1817 में पहली बार इसे स्नायु तंत्र की एक बीमारी के रूप में प्रस्तुत किया। आंकड़ों के मुताबिक 2016 में भारत में पार्किन्संस के लगभग 5,80,000 मरीज थे। उसके बाद से मरीजों की संख्या में काफी वृद्धि हो चुकी होगी और सही आंकड़े भी हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं।

पार्किन्संस रोग क्या है

पार्किन्संस मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र की एक बीमारी है जिसमें मस्तिष्क की बेसल गैन्ग्लिया में स्थित कोशिकाओं या न्यूरॉन में गड़बड़ी हो जाती है या वह नष्ट हो जाती हैं। ये कोशिकाएँ डोपामिन नामक न्यूरोट्रांसमीटर बना कर स्रावित करती हैं। डोपामिन की कमी होने से शरीर को गति करने, मांसपेशियों के संचालन में कठिनाई होने लगती है और कई तरह के मानसिक और शारीरिक लक्षण पैदा होने लगते हैं। यह बीमारी समय के साथ बढ़ने वाली है, यानी जैसे-जैसे समय बीतता जाता है बीमारी के लक्षण और गंभीर होते जाते हैं।

पार्किन्संस के लक्षण

  • कंपन – यह पार्किन्संस का सबसे जाना-पहचाना लक्षण है। यह किसी भी अंग में हो सकता है, यहाँ तक कि सिर्फ एक ऊँगली में भी हो सकता। लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि यह सभी मरीजों में हो।
  • धीमा हो जाना – काम करने, चलने, कुर्सी से उठने या कोई और गतिविधि करने की गति में कमी आना या थकावट का अनुभव होना एक आम लक्षण है। यह कई बार यह शुरू में ही नोटिस होता है और कई बार यह बाद में बढ़ता है।
  • मांसपेशियों की लचक में कमी – शरीर के किसी भी भाग की मांसपेशी में कड़ापन आ जाना, उसका स्वाभाविक लोच कम हो जाना। यह दर्द के साथ भी हो सकता और दर्द के बग़ैर भी।
  • स्वचालित रूप से होने वाली गतिविधियों में कमी – शरीर की अनैच्छिक क्रियाओं में कमी आ जाती है, जैसे पलकें झपकाना, चलते हुए बाहें हिलना या अनायास मुस्कराना।
  • मुद्रा और संतुलन में गड़बड़ी – शरीर की मुद्रा में गड़बड़ी आ जाती और शरीर आगे की ओर झुक-सा जाता है। संतुलन बनाने में कठिनाई होती और व्यक्ति गिरने भी लगता।
  • चेहरे के भावों में बदलाव – चेहरे के भावों में बदलाव आ सकता है, चेहरा भावहीन हो सकता है।
  • बोलने में बदलाव – बोलने का तरीका बदल सकता है, बोलने में हिचकिचाहट हो सकती है, बातचीत में सामान्य उतार-चढ़ाव की बजाय एक ही टोन में हो जाता है, लोगों को बात समझने में दिक्कत आ सकती है या आवाज अजीब ढंग से सॉफ़्ट भी हो सकती।
  • लिखने में बदलाव – लिखने में परेशानी हो सकती और हस्तलिपि में बदलाव आ सकता।
  • मानसिक लक्षण – उपरोक्त लक्षणों के साथ कुछ मानसिक लक्षण भी हो सकते जैसे याददाश्त में कमी (डिमेंशिया), विभ्रम (हेल्युसिनेशन), अवसाद (डिप्रेशन), अनावश्यक भय, दुश्चिंता (एंग्जायटी), प्रेरणा का अभाव आदि।

किसी मरीज में उपरोक्त सभी लक्षण हो सकते और किसी में कोई एक या एक से ज्यादा।

पार्किन्संस के प्रकार

पार्किन्संस का सबसे आम प्रकार है इडियोपेथिक पार्किन्संस। यहाँ इडियोपेथिक का अर्थ है जिसका कारण अज्ञात हो। इसके अतिरिक्त वेसक्युलर पार्किन्संस, किसी दवा से होने वाला ड्रग इंड्यूस्ड पार्किन्संस,  जुवेनाइल पार्किन्संस और यंग ऑनसेट पार्किन्संस आदि भी होते हैं। कुछ ऐसी बीमारियाँ भी हैं जिनमें पार्किन्संस के लक्षण भी पैदा हो सकते हैं जैसे मल्टीपल सिस्टम एट्रोफी, प्रोग्रेसिव सुप्रान्युकलर पाल्सी या डिमेंशिया विद ल्यू बॉडीज़ आदि।

पार्किन्संस की स्टेज या अवस्था

  1. प्रथम अवस्था – यह बीमारी की पहली स्टेज होती है जिसमें व्यक्ति को बीमारी का पता चलता है।
  2. द्वितीय अवस्था – यह पार्किन्संस की दूसरी स्टेज होती है। इसमें सही चिकित्सा मिल जाने पर लक्षणों में आराम आने लगता है और समस्याएँ इतनी गंभीर नहीं होती कि मरीज उनको संभाल न सके।
  3. तृतीय अवस्था – यह बीमारी की तीसरी स्टेज होती है। इसमें लक्षण थोड़े बढ़ने लगते हैं और अक्सर असंतुलन की समस्या इसी स्टेज में शुरू होती है।
  4. चतुर्थ अवस्था – यह पार्किन्संस की चौथी स्टेज है। इसमें लक्षणों में वृद्धि होने लगती है और कई तरह की समस्याएँ आने लगती है जैसे बोलने में कठिनाई, चलने में दिक्कत, कमज़ोरी, संतुलन बिगड़ जाना, विभ्रम, याददाश्त में गड़बड़ी आदि — लेकिन इस सब के बावजूद व्यक्ति पूरी तरह दूसरों पर आश्रित नहीं होता।
  5. पंचम अवस्था – यह बीमारी की पांचवी और अंतिम स्टेज है। इस अवस्था में मरीज के लक्षण काफी अधिक बढ़ जाते हैं और बिना सहायक के वह अपना कोई भी काम नहीं कर पाता है। व्यक्ति पूरी तरह बिस्तर पर भी आ सकता है। ज़रूरी नहीं है कि हर मरीज इस अवस्था तक पहुँचे और कई बार मरीज़ पिछली तीन या चार अवस्थाओं में ही लम्बे समय तक रह सकता है।

पार्किन्संस के कारण

पार्किन्संस के कारणों के बारे में अभी तक कोई भी ठोस जानकारी नहीं है। विशेषज्ञों का मानना है कि हमारे कुछ जीन्स के कारण या कुछ टॉक्सिक तत्वों के संपर्क में आने से पार्किन्संस का ख़तरा बढ़ जाता है।

पार्किन्संस के रिस्क फैक्टर

किसे पार्किन्संस होगा इसकी भविष्यवाणी करना असंभव है। फिर भी कुछ रिस्क फैक्टर इस प्रकार हैं:

  • आयु – आयु बढ़ने के साथ पार्किन्संस होने का ख़तरा बढ़ता जाता है। आमतौर पर यह 60 साल की आयु के बाद ही होता है।
  • लिंग – पुरुषों को पार्किन्संस होने का ख़तरा महिलाओं से ज्यादा होता है।
  • आनुवांशिक – यदि आपके किसी नज़दीकी परिवारजन को पार्किन्संस है तो आपको इसे होने का ख़तरा थोड़ा बढ़ जाता है। यह ख़तरा सीमित ही होता है जब तक पार्किन्संस आपके परिवार या रिश्तेदारी में अनेक लोगों को न हो जाए।
  • टॉक्सिक तत्वों के साथ संपर्क – कुछ ज़हरीले तत्वों जैसे कीटनाशक, खरपतवारनाशक रसायनों के लगातार संपर्क में आने से पार्किन्संस होने का खतरा थोड़ा बढ़ जाता है। हालाँकि इसका प्रभाव भी सीमित ही है।

पार्किन्संस से होने वाली जटिलताएँ

पार्किन्संस के कारण अनेक प्रकार की जटिलताएँ पैदा होती हैं। मरीज को चबाने और निगलने में कठिनाई आ सकती है। वह ठीक से चल नहीं पाता और गिर जाता है। अनेक मानसिक समस्याएँ भी पैदा हो जाती है जैसे याददाश्त कमजोर होना, तरह-तरह के विभ्रम (लोगों, घटनाओं आदि से सम्बंधित वहम) होना, भावनाओं में असंतुलन होना और ठीक से सोचने में कठिनाई होना आदि। पाचन तंत्र की समस्याएँ होने लगती हैं। मूत्र त्यागने में कठिनाई हो सकती या मूत्र को रोकना मुश्किल हो जाता है। कमज़ोरी का अनुभव होती है जो धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। कई मरीजों में यौन इच्छा में कमी आ जाती है या उनको यौन सम्बंध बनाने में कठिनाई आने लगती है। अचानक ब्लड प्रेशर में कमी आने से कई तरह की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। मरीज़ को किसी खास हिस्से या पूरे शरीर में दर्द का एहसास हो सकता है।

पार्किन्संस का निदान / डायग्नोसिस

कोई भी ऐसा परीक्षण, टेस्ट या उपकरण नहीं है जिससे पार्किन्संस का सटीक पता लगाया जा सके। लक्षणों के आधार पर न्यूरोलॉजिस्ट इसका निर्धारण करता है। कई रोग इससे मिलते-जुलते लक्षणों के भी हो सकते जिनमें एक न्यूरोलॉजिस्ट ही भेद कर सकता है। इसलिए सबसे जरूरी है कि पार्किन्संस का कोई भी लक्षण या लक्षणों के समूह का हल्का-सा भी अंदेशा होने पर तत्काल न्यूरोलॉजिस्ट से मिल कर रोग का निदान किया जाए। कभी-कभी न्यूरोलॉजिस्ट स्थिति को बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ ब्लड टेस्ट, एम.आर.आई. आदि की सलाह दे सकते हैं। इसके अलावा पार्किन्संस के उपचार के लिए दी जाने वाली दवाओं से मरीज के लक्षणों में कमी आना भी डायग्नोसिस को सही साबित करता है।

पार्किन्संस का उपचार

अभी तक पार्किन्संस को पूरी तरह ठीक करने वाला कोई उपचार नहीं मिल पाया है। दवाओं से लक्षणों में कमी आ जाती है और मरीज़ लम्बे समय तक अपने रोग को मैनेज कर सकता है। इसके अलावा कई सहायक उपायों जैसे फ़िजियोथेरेपी, व्यायाम, ऑक्यूपेशनल थेरेपी, काउन्सलिंग, पौष्टिक भोजन आदि को भी साथ में अपनाया जाता है।

इस बीमारी को ठीक से मैनेज करने, जहाँ तक संभव हो जीवन की गुणवत्ता को बनाए रखने और बीमारी के लक्षणों को गंभीर होने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय सहायक सिद्ध होते हैं:

  1. इलाज की एक होलिस्टिक नीति बनाएँ और उसका दृढ़ता से पालन करें।
  2. मरीज़ और परिवार को आपस में ठीक से संवाद करके एक योजना बना लेनी चाहिए कि किस तरह पार्किन्संस से निबटना है। इस काम के लिए सभी का मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहना बहुत जरूरी इसलिए मरीज़ और उसके परिवारजन को किसी प्रशिक्षित सलाहकार की सहायता लेते रहना भी इसमें काफी उपयोगी होता है।
  3. कई बार मरीज़ को पहले से मानसिक समस्याएँ हो सकती हैं जो पार्किन्संस हो जाने पर बढ़ कर सामने आ जाती हैं। कुछ शोधों में यह भी देखा गया है कि अवसाद (डिप्रेशन) के मरीजों को आगे चल कर पार्किन्संस होने की संभावना थोड़ी बढ़ जाती है और कई बार अवसाद (डिप्रेशन) पार्किन्संस का शुरूआती लक्षण भी हो सकता है। इसलिए अच्छे मनोचिकित्सक से सलाह लेना आपकी समस्यायों को काफी कम कर सकता है।
  4. संतुलित आहार का भी बड़ा महत्व है। इसलिए विशेषज्ञों की सलाह के अनुसार भोजन चार्ट बनाएँ और उसका पालन करें।
  5. यदि मरीज के लिए सहायक की जरूरत हो तो सामर्थ्य होने पर उसमें बिलकुल न हिचकिचाएँ। किसी बाहरी सहायक का होना चीजों को बहुत आसान बना देता है और घर के लोग अपना जीवन भी बेहतर ढंग से जी सकते हैं और मरीज़ के लिए और भी सकारात्मक वातावरण बना सकते हैं।
  6. सोशल ग्रुप मरीज़ को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रेरित रखने में काफी मदद करते हैं, इसके लिए किसी एन.जी.ओ. से भी संपर्क किया जा सकता है।
  7. गिरने से बचाने के लिए कमरे, बाथरूम आदि में बनावट सम्बंधी बदलाव, ख़ास उपकरणों का इस्तेमाल और सहायक का होना काफी उपयोगी होता है।
  8. यदि आर्थिक संकट हो तो सरकारी हॉस्पिटल, एन.जी.ओ. या स्वयं सहायता समूह बना कर इलाज की व्यवस्था करें लेकिन मरीज़ को दवा नियमित रूप से दें।
  9. लोगों से जुड़ें, जागरुकता फैलाएँ, एक दूसरे की मदद करें, यदि आपने बीमारी से निबटते हुए कोई समझ विकसित की है तो दूसरे मरीज़ों तक भी उसे पहुँचाएँ।

पार्किन्संस से बचाव के उपाय

अभी तक कोई भी रिसर्च ऐसी नहीं हुई है जो हमको ठीक-ठीक यह बता दे कि क्या करने से हम पार्किन्संस से बचे रह सकते हैं — लेकिन कुछ सामान्य तरीके ऐसे हैं जिससे पार्किन्संस होने की संभावना को कुछ कम किया जा सकता है:

  • सही जीवन शैली अपनाएँ, सेहतमंद भोजन, योग-व्यायाम करें और यथासंभव प्रकृति से रिश्ता बनाए रखें।
  • मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें।
  • एक ही पैटर्न पर जीना दिमाग को कमज़ोर करता है। अपने को चैलेंज करें, नयी चीजें सीखें, नयी जगहों पर जाएँ, नयी चीजें खाएँ, जो मानसिक ढर्रे बन गए हैं उनको तोड़ें।
  • अपनी रुचि के अनुसार ऐसे कामों का अभ्यास करें जिसमें शरीर और दिमाग दोनों एक साथ मिल कर काम कर करते हैं, जैसे शारीरिक खेल, नाचना, अभिनय करना और शारीरिक संतुलन बनाने वाले व्यायाम आदि।
  • बागवानी, संगीत, गायन, हस्तकला, पेंटिंग, केलीग्राफी आदि हॉबी मन को ठीक रखने और मस्तिष्क को सक्रिय रखने में बहुत मदद करती हैं।
  • मस्तिष्क को चैलेंज करने वाले व्यायाम भी उपयोगी सिद्ध होते हैं, जैसे आँखे बंद करके चलना, दोनों हाथों से काम करना और दोनों हाथों से लिखने की कोशिश करना, रात में सोने से पहले दिन भर की घटनाओं को याद करना और सभी इन्द्रियों को अलग-अलग टास्क देकर उनको पूरा करना।
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