आज विकलांगता से सम्बंधित दो अलग अलग प्रकार की फ़िल्म देखी। एक थी फ़िल्म “स्पर्श” जिसके मुख्य किरदार थे नसीरुद्दीन शाह और शबाना आज़मी, निर्देशन और लेखन किया गया साईं परंजपये द्वारा। और दूसरी फ़िल्म थी “मार्गरीटा विथ अ स्ट्रा” जिसकी मुख्य कलाकारा थी कल्कि कोचिन और निर्देशका एवं लेखिका थी शोनाली बोस।
जहाँ एक फ़िल्म 20वीं सदी में बनी, जो विकलांग सम्बन्धी समस्याओं को बड़ी सजगता, सरलता, सौम्यता और एक मर्यादा के अंदर रहकर उजागर करती है जबकि कल्कि ने 21वीं सदी का किरदार निभाया है जो थोड़ा बोल्ड है, इसमें विचारों की स्वतंत्रता है, चुनाव करने का विकल्प मौजूद है। दोनों फ़िल्म आपको एक तरफ हिम्मत देगी, जीने का जज़्बा देगी, जीवन में आने वाले आंधी – तूफानों के थपेड़ो से रु-बरु करायेगी तो दूसरी तरफ देगी आँखों में बेतहाशा आंसू।
स्पर्श
स्पर्श फ़िल्म में आप देखेंगे कि नसीरुद्दीन शाह स्वयं दृष्टिहीन व्यक्ति है और एक अंध बिद्यालय के प्रिंसिपल है और इस स्कूल में लगभग 200 दृष्टिबाधित बच्चे अध्ययन करते है और बिद्यालय को संभालाने का पूरा ज़िम्मा नसीरुद्दीन शाह के कंधो पर ही होता है। नसीरुद्दीन शाह और शबाना आज़मी के बीच का सम्वाद दिल को सकून देने वाला होता है। प्रेम-संवादको बड़ी सादगी से दिखाया गया है और जब बात बिरोध करने की आती है तो उसे भी एक मर्यादा के अंदर रखकर दिखाया गया है।
नसीरुद्दीन शाह अपने बनाये हुए उसूलों पर चलने वाले व्यक्ति है कोई उनके ऊपर सहानुभूति दिखाये ये उनका बिल्कुल भी बर्दास्त नहीं और अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो अचानक उनका रवैया सख्त हो जाता है हालांकि अपने सख्त व्यवहार के लिए बाद में माफ़ी भी मांग लेते है। इनका यह अंदाज ही उनकी पूँजी है जिसे उन्होंने बड़े जतन करके अपनाया है। वो अपने सारे काम स्वयं करने की कोशिश करते है और बहुत कम मौको पर किसी दूसरे की मदद लेते है। पिक्चर में आप नसीरुद्दीन सहाब की एक्टिंग के कायल हो जाएंगे। नसीरुद्दीन शाह अपने डायलॉग फ़िल्म में इतने ठहराव के साथ बोलते है कि जैसे वो स्वयं विकलांग व्यक्ति की देह में घुसकर बोल रहे रहे हो। उन्होंने विकलांग व्यक्ति की भावनाओं को समझकर केवल अभिनय नहीं किया अपितु स्वयं उस किरदार को जिया है।
शबाना आज़मी का अभिनय भी काबिले- तारीफ रहा। अपने खालीपन को उन्हीने दृष्टि बाधित बच्चों से प्रेम पाकर भर लिया था।उन्हें जीवन जीने का एक उदेश्य मिल गया था। फिर जैसे-जैसे शबाना आज़मी नसीरुद्दीन शाह के साथ समय बिताती है उनको उनसे प्यार हो जाता है। आप शबाना जी की सरलता के मुरीद हो जाएंगे। जिस तरह उन्होंने नसीरुद्दीन शाह की विकलांगता को समझकर उनकी पसन्द-नापसन्द को अपना लिया था वो ह्रदयस्पर्शी है। आपको उनके अभिनय को देखकर यही लगेगा कि काश मुझे भी इसी तरह का जीवन साथी मिल जाये जो हमारी विकलांगता को समझने वाला, हमारी भावनाओं को समझने वाला, हर परिस्थिति में हमारा साथ देने वाला हो।
मार्गरीटा विथ अ स्ट्रा
इस फ़िल्म में विकलांगता के साथ एक ऐसे मुद्दे को उठाया गया है जो आज भी भारतीय समाज के दिलो-दिमाग़ में जगह नहीं बना सका है। आज भी इस बिषय को लेकर खुलकर बात नहीं की जाती है और लोग इसको हीन भावना से देखते है। फ़िल्म के एक सीन में जब कल्कि अपनी माँ से इस बिषय में बात करती तो उसकी माँ भी एक बार छी: कहकर उधर से चली जाती है। वह मुद्दा है bisexual “उभयलैंगिक” या “द्विलिंगी”।
शुरू में फ़िल्म को देखने पर लगेगा कि इसमें विदेशी संस्कृति को अपनाया जा रहा है लेकिन जैसे जैसे फ़िल्म आगे बढ़ती जाती आप देखगे कि फ़िल्म में दिखाये गए सीन कितने आवश्यक थे और उनको समाज के सामने रखना कितना साहस का काम रहा होगा और आप पायेंगे विकलांगजन की इस समस्या को लेकर अभी भी जागरूकता कितनी कम है।
“सेरेब्रल पाल्सी” से पीड़ित कल्कि कोचीन ने फ़िल्म में दमदार अदाकारी से दिल जीत लिया। फ़िल्म में कल्कि को एक टैलेंटेड लड़की के रूप में दिखाया गया है जो गानों को कंपोज़ करती है, दिल्ली से लेकर विदेश तक का सफर करती है, अंग्रेजी बोलती है, क्लब में जाकर जीवन का आंनद उठाती है, अपने हक की बात रखती है और समय आने पर अपने परिवार का ख्याल रखना भी जानती है।
फ़िल्म के आखिरी सीन में कल्कि द्वारा किया गया अभिनय रोने को मजबूर कर देता है। परिस्थितियां कुछ हो कैसी भी हो, फ़िल्म हमें आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करना सिखाती है। खुद से प्यार करना सिखाती है। हर परिस्थिति में जीवन को हसकर जीने का साहस देती है।
फ़िल्म जरूर अलग अलग समय में बनी हो लेकिन विकलांग जन के लिए मूलभूत समस्याएं समान ही रही है और आज भी लगभग वही स्थिति है। आज हम 21वी सदी में जरूर है लेकिन आज भी विकलांग जन के लिए आवागमन की असुबिधा, शिक्षण सम्बन्धी जागरूकता का न होना , समाज की विकलांग जन के प्रति मानसिकता , नौकरियों का अभाव, जैसी समस्याएं जस की तस बनी हुईं है। और जो समस्या को “मार्गरीटा विथ अ स्ट्रा” फ़िल्म में उठाया गया है उस पर तो शायद विकलांगजन भी अपनी समस्या बताने से डरता होगा।
बेहतरीन लेख
बेहद खूबसूरत लेख, दोनों फिल्मों की एनालिसिस बहुत अच्छी तरह की आपने।