कृष्णा: बचपन का एक संस्मरण

silhouette of a girl sitting in wheelchair

बीती यादें हमारी धरोहर होती हैं। हम उन्हें कभी नहीं भूलते। जब भी फुर्सत में होते हैं और इत्तेफाक से अकेले होते हैं तो हमारा मन अतीत के गलियारों में भटकना शुरु कर देता है और किसी न किसी याद के साथ हम मुलाक़ात कर ही लेते हैं। ऐसा ही एक संस्मरण याद आ गया तो आपके साथ साझा करने चली आई।

देश की आज़ादी के बाद प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत नारी-शिक्षा के ऊपर अधिक ज़ोर दिया जा रहा था। कॉर्पोरेशन की ओर से लड़कियों के लिए अलग जगह जगह स्कूल खोले गए जिनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी ताकि अधिक से अधिक और खासतौर पर गरीब तबके की लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर सकें।

पर गरीब तबके में कहाँ थी इतनी जागरूकता कि वह अपनी बेटियों को स्कूल भेजें। लिहाज़ा, इन स्कूलों में संपन्न घरों की लड़कियाँ दाखिला लेने लगीं। चतुर्थ श्रेणी की बस कुछ ही लड़कियाँ थीं।

वर्ष 1955 में मैं ऐसे ही एक स्कूल में सातवीं कक्षा की छात्रा थी।

सौभाग्य से पढ़ाई में काफ़ी अच्छी थी। हर शिक्षिका मुझसे खुश रहती और समय समय पर क्लास में मेरी प्रशंसा करतीं थी। कमज़ोर बच्चों को मेरी मिसाल दिया करती थीं।

लंच आवर में मैं क्लास में ही बैठी रहती, क्योंकि मैं लंच नहीं लाती थी। सारी लड़कियाँ क्लास के बाहर चली जातीं। इस आधे घंटे में मैं क्लास में पढ़ाए गए पाठों को दोहराया करती। मेरे अलावा क्लास में सबसे पीछे वाली बेन्च पर कृष्णा बैठी होती। शायद वह भी लंच नहीं लाती थी।

कृष्णा पूरी बेन्च पर अकेली बैठती थी। मैने किसी को उससे बातें करते नहीं देखा। कभी किसी लड़की से वह कुछ पूछती तो उसे जवाब नहीं मिलता। सब उसे नीची नज़रों से देखतीं। उसके कपड़े अक्सर कुछ गंदे और बेतरतीब होते। उस पर, दुर्भाग्यवश एक पाँव पोलियो से ग्रस्त था। उन दिनों पोलियो नई बीमारी थी, कोई ख़ास इलाज़ नहीं था। बहुत दूर से किसी तरह पैदल चलकर स्कूल आती थी। पढ़ाई में लगभग शून्य थी। कभी टीचर के पूछे गए सवाल का जवाब न देकर सिर झुका लेती तो सारी क्लास ज़ोर से हँस पड़ती, कभी कभी टीचर भी।

मुझे उसपर तरस तो बहुत आता था पर, मेरे पास इतनी समझ कहाँ थी कि उसके विषय में सोचूँ। बस तरस खाकर रह जाती।

एकदिन लंच आवर में अचानक मैं अपनी सीट से उठी और उसके पास जाकर बैठ गई। उसके चेहरे पर उभरी बेइन्तहाँ ख़ुशी मैने महसूस की। मैने मुस्कुराकर उससे बातें शुरु कीं। उसने बताया — उसके बाबूजी पटना सेक्रेटेरिएट में चपरासी हैं। माँ कोठियों में काम करती है। उसे पढ़ाई का शौक है पर पढ़ाने वाला कोई नहीं है। ट्यूशन के पैसे नहीं हैं।

मैने सहानुभूति पूर्वक कहा — कोई बात नहीं। कोई मुश्किल हो तो मुझसे बेझिझक पूछ लेना। ये उस ग़रीब लाचार साथी की मदद के लिए मेरी ओर से एक छोटा-सा प्रयास था। तभी घंटी बज गई और मैं अगली बेन्च पर अपनी जगह आकर बैठ गई।

हिन्दी की शिक्षिका ने एक नया पाठ पढ़ाया — “समदर्शी अशोक”। टीचर क्लास से चली गई तो सबने देखा — कृष्णा ने अपनी सीट से उठकर पहली बार अगली सीट तक आने की हिम्मत की और मेरे पास आकर एक पाँव के सहारे खड़ी हो गई। उसके आते ही जानकी और कमलेश उठकर एक ओर खड़ी हो गई।

मैने उसकी ओर देखा तो उसने मुझसे “समदर्शी” का अर्थ पूछा। मैने समझाया– “जो सबको एक समान समझे उसे समदर्शी कहते हैं।” वह संतुष्ट होकर चली गई।

अगले दिन, टीचर ने वही पाठ फिर दोहराया और बोर्ड पर पाँच नए शब्द लिखकर हमसे वाक्य बनाने के लिए कहा। उठे हुए हाथों में उसका हाथ भी देखा तो टीचर ने उसी से वाक्य बनाने को कहा। पहला शब्द था- “समदर्शी”

कृष्णा सीट से उठकर खड़ी हो गई, कुछ अधिक फुर्ती से और बड़े आत्मविश्वास के साथ बोली — “मेरी सहेली छाया समदर्शी है।” एक मिनट को पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया जैसे सभी अचंभित हों, पर अगले ही पल क्लासरूम सबके सम्मिलित ठहाकों से गूँज उठा। पूरी क्लास मेरी ओर देखने लगी।

और मैं, झूठ नहीं बोलूँगी, इसबार मैं भी हँसी ज़ोर से, लेकिन मेरी हँसी में व्यंग्य नहीं प्रशंसा के भाव थे। थोड़ा प्यार भी था।

सातवीं कक्षा के बाद वह कभी नहीं मिली। हमारा स्कूल सातवीं तक ही था। फिर हमारा दाखिला एक गर्ल्स हाई स्कूल में हो गया। वह कहाँ गई पता नहीं चला। शायद पढ़ाई छोड़ दी हो।

पर मेरी यादों में, वह पोलियो की मरीज़, पढ़ाई की शौकीन, ग़रीबी से लाचार कृष्णा आज भी मौज़ूद है।

आज भी सोचती हूँ — मेरा पाँच मिनट उसके पास बैठना, दो शब्द बोलना और मदद की एक छोटी-सी आस दिलाना जब उसे इतना आत्मविश्वास दे गया, तो अगर मैं हमेशा उसी के पास बैठती तो?…हमेशा उसकी मदद करती तो?…शिक्षिका उसपर विशेष ध्यान देतीं तो?

तब तो उसकी ज़िन्दगी ही बदल जाती न! कितना अच्छा होता अगर हम सब उसकी थोड़ी थोड़ी मदद करते।

तो आज वह कुछ और होती। काश!

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