दोपहर का पहर था और पटरी पर दौड़ती यह पाँचवी रेलगाड़ी थी। रेल की पटरियों के समीप बने टीले पर बैठे मुकेश का दिल हर गुज़रती ट्रेन के साथ ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता पर वह हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
अभी उम्र ही कितनी है मुकेश की – महज अठारह का हुआ है। मुकेश मन का चंचल और शरीर से दुबला-पतला था। कद सामान्य, बाल हल्के घुंघराले, पिचके हुए गाल, आँखे थोड़ी-सी धसी हुईं, कानों का आकार सामान्य से थोड़ा बड़ा, पहनावा अक्सर लम्बी कमीज़ और आगे की क्रीज़ वाली ढीला-ढाला पेंट। गुज़रे अठारह सावन में उसने दुनियादारी की अच्छी-खासी समझ हासिल कर ली थी। अठारह साल का मुकेश अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ा हो गया था। पढ़ने में वह सामान्य था लेकिन नौकरी पाने के लिए मेहनत बहुत करता था। अभी कुछ समय पहले ही एक एग्जाम दिया था।
“बेटा बहुत देर से यहाँ बैठे हो, क्या बात है?”, पास में बने मंदिर से निकलकर एक आदमी ने बड़ी ही नम्रता से मुकेश से पूछा। मुकेश एकदम चौंक-सा गया। उसने पीछे मुड़कर देखा तो एक आदमी पीले वस्त्र पहने, चौड़े माथे पर चन्दन का लेप लगाये, लम्बी दाढ़ी, मोटा-सा पेट, लाल टमाटर से गाल, आँखों पर चश्मा लगाये उससे सवाल पूछ रहा था। मुकेश ने उनका हुलिया देखकर अंदाजा तो लगा लिया था कि यह आदमी इस मंदिर का पुजारी होगा। उसने पहचान पूछने की जरूरत भी नहीं समझी। मुकेश ने कुछ नहीं कहा, वह बस वहाँ से उठा और आगे ट्रैक की तरफ चला गया। उत्तर न पाकर वह आदमी भी मंदिर के अंदर चला गया।
गाँव में हलचल तेज हो गई थी। मुकेश के घर के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा था। मुकेश की माँ का रो-रोकर बुरा हाल था। वह कहे जा रही थी “ऐसा तो मुकेश ने कभी नहीं किया, जब भी कहीं गया है साँझ होते-होते घर आ जाता था। थोड़ा ज़िद्दी है लेकिन मुझे बिना बताये ऐसे कहीं नहीं जाता था।”
लोगों ने मनगढंत किस्से बनाने शुरू कर दिए।
रामू: “अरे वो पहले भी ऐसा काम कर चुका है, देखना रात होते ही आ जायेगा।”
कुल्लू: “मैंने तो पहले ही कहा था, ज्यादा पढ़ने से आदमी पागल हो जाता है।”
बिरजू: “कुछ सनकी तो था, एक दिन अचानक मुझसे लड़ने लगा था। मैंने बस इतना ही तो कहा था कि जाओ कहीं अपना इलाज कराओ।”
दूर लगे एक जमावड़े में खड़े सरपंच जी ने ज़ोर देकर पूछा, “किसी ने मुकेश को कहीं आते-जाते देखा क्या?”
देवू: “हाँ काका, दोपहर को बस स्टैंड से शहर को जाने वाली बस में बैठा था। मुझसे कह रहा था कि आ.. आ..आ.. आज रिजल्ट आ रहा है उसे ही देखने जा रहा हूँ।”
देवू ने जिस तरह मुकेश के बोलने की नकल की थी वहाँ खड़े उसके हमउम्र के बच्चों के होंठ थोड़े फैल जरूर गए थे लेकिन माहौल की गंभीरता को देखकर कोई हँस न सका।
पूरा गाँव जानता था कि मुकेश को हकलाने की दिक्कत थी। साथ ही जब वह जल्दबाजी में बोलता था तो उसके शब्द आपस में चिपटकर मुँह के अंदर ही लड़कर थक जाते थे और जब बाहर निकलते तो कुछ अलग ही उच्चारण कर देते थे इसीलिए वह अक्सर बोलते समय बड़े ही सावधानी और ठहराव के साथ बोलता था ताकि लोग उसका मज़ाक न उड़ायें।
मुकेश बड़ा अफ़सर बनकर अपनी इस कमी को पूरा करना चाहता था। गाँव के बच्चों के साथ उसका उठना बैठना थोड़ा कम ही रहता था। वह या तो अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहता था या फिर अपने सबसे अच्छे गुरु सुरेश मास्साब के साथ।
सुरेश मास्साब यू. पी. के रहने वाले थे। नौकरी लगने के बाद उन्हें मुकेश के गाँव में पोस्टिंग मिल गई थी। मास्साब मुकेश के गाँव के सबसे अधिक पढ़े लिखें आदमी थे। उन्होंने शहर में रह कर पढ़ाई की थी और वर्तमान में वे विद्यालय में विज्ञान के शिक्षक हैं। जिज्ञासु बच्चों के लिए मास्साब एक आदर्श शिक्षक है। गाँव में वे ऐसे रच-बस गए है कि अब उनका कहीं और जाने का मन नहीं होता।
मुकेश जब कभी भी दुखी रहता, वह अक्सर अपनी भावनाओं को साझा करने मास्साब के पास पहुँच जाता था। गाँव में अकेले मास्साब ही थे जो बड़े इत्मीनान से मुकेश की बातें सुनते और उसे उचित सलाह देते थे। जब उन्होंने मुकेश के बारे में सुना तो तुरन्त अपना बैग हाथ में लेकर जल्दी से मुकेश के घर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। मास्साब कहीं-न-कहीं मुकेश की मानसिक दशा को समझने लगे थे, उनको पता था मुकेश संवेदनशील है और उन्हें डर था कि कहीं मुकेश कुछ अनहोनी न कर बैठे।
मुकेश के पिता, चाचा व भाई किसान थे और वे मुकेश से उम्मीदें बांधे रहते थे कि बस इसकी नौकरी लग जाये तो घर का हाल कुछ दुरुस्त हो। जब खबर सुनी कि मुकेश सुबह से घर नहीं आया तो खेतो को मजदूरों के हवाले करके भाग-भागे घर आये। जब भीड़ देखी तो वे और अधिक डर गए। मुकेश का भाई उसका हमउम्र ही था,अक्सर मुकेश को उसके हकलाने पर टोकता रहता था। उसे मुकेश की चिंता थी। एक बार डॉक्टर ने कहा था कि निरंतर अभ्यास से मुकेश का हकलाना बंद हो सकता है लेकिन उसे बहुत मेहनत और अभ्यास करना होगा। लेकिन मुकेश को हकलाने की आदत पड़ गई थी और उसके भाई को उसे टोकने की। अक्सर दोनों इस बात पर लड़ भी जाते थे।
शाम हो चुकी थी। मंदिर में संध्या आरती शुरू हो गई थी। ज़ोर-ज़ोर से घंटियों की, ढ़ोल- नागाड़ो की, तालियों की, भजन-कीर्तन की आवाजें स्पष्ट मुकेश के कानों में सुनाई दे रही थी। वह टीले से उठ कर मंदिर के ठीक सामने बनी एक चाय की गुमटी के पास आकर खड़ा हो गया था। भक्तिरस के प्रभाव में उसके दोनों हाथ सहसा ही आपस में जुड़ गए और वह भी भक्तों की भक्ति में रम गया और वहीं खड़े-खड़े संकीर्तन में शामिल हो गया। थोड़ी देर में सब शांत हो गया। मुकेश ने एक चाय पी और फिर से ट्रैक की तरफ़ चल दिया।
मास्साब मुकेश के घर पहुँच गए थे। उनका सबसे पहला सवाल था, “कुछ खबर मिली?” सभी ने ना में गर्दन हिला दी। मास्साब अचानक से तीव्र स्वर में बोले, “तो यहाँ खड़े-खड़े क्या कर रहे हो, चलो उसे शहर में ढूँढते है”। सभी की जैसे मूर्छा टूट गई अभी तक जो बात सामान्य लग रही थी अचानक गाँव में अफरा-तफरी का माहौल बन गया। कोई अपनी मोटरसाइकिल लेने भागा, किसी ने कहा कि बड़ी गाड़ी की जरूरत पड़ेगी तो कुछ लोग पटवारी के घर की तरफ लपके। पूरे गाँव में पटवारी के घर ही चार पहिये वाली गाड़ी थी। थोड़ी ही देर में गाड़ी मुकेश के घर के सामने थी। मुकेश के पिताजी, चाचाजी, सरपंच, मास्साब, पटवारी, और गाँव के एक-दो प्रभावशाली व्यक्ति गाड़ी में बैठकर शहर की तरफ रवाना हो गए। कुछ लोग पैदल चलकर गाँव के बाहर तक गाड़ी को छोड़कर वापस मुकेश के घर के सामने आकर बैठ गए। घर की महिलाओ का रो-रोकर बुरा हाल था। मुकेश का भाई गाँव के लोगों से चाय पानी की पूछ रहा था और महिलाओ को ढाँढस बंधा रहा था।
संध्या आरती के बाद मंदिर के बाहर असहाय, गरीब, बेसहारा, अपंग लोगो का जमावड़ा लग जाता था। पुजारी जी प्रसादी बाँटने मंदिर के बाहर आये। प्रसादी बाँटकर मंदिर के अंदर प्रवेश करने ही वाले थे कि तभी टीले पर उन्हें मुकेश दिख गया जो अपनी नज़रे रेल की पटरियों की तरफ लगाये हुए था। पुजारी जी समझ गए बात कुछ गंभीर है तुरन्त भोग लेकर मुकेश के पास पहुँच गए।
“बेटा प्रसाद ले लो”, पुजारी जी ने मुकेश की तरफ भोग देते हुए कहा। मुकेश ने कुछ उत्तर नहीं दिया। पुजारी जी ने इस बार थोड़ी तेज़ आवाज़ में बोला तो मुकेश जैसे किसी शून्य से बाहर निकलकर पुजारी कि ओर देखने लगा।
पुजारी जी: “क्या हुआ बेटा, दोपहर से यहाँ बैठे हो, कुछ दिक्कत हो तो मुझसे कहो शायद मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूँ।”
मुकेश: “आप मुझे बस अकेला छोड़ दो।”
पुजारी जी: “दोपहर से अकेले ही बैठे हो अगर निष्कर्ष निकलना होता तो निकल जाता। मुझे बताओ क्या दुविधा है तुम्हे?”
मुकेश शांत हो गया। थोड़ी ही देर में उसके अंदर उबल रहा लावा फूट गया जो आँखों के रास्ते झर-झर कर बहने लगा। पुजारी जी मुकेश के पास आकर उसी टीले पर बैठ गए जहाँ मुकेश दोपहर से बैठा था। पुजारी जी ने मुकेश का हाथ पकड़ा और उससे बड़े प्यार से फिर वही सवाल किया, “क्या हुआ बताओ?”
मुकेश:”मुझे कोई नहीं समझता। मैं हकलाता हूँ इसमें मेरी क्या गलती है? ईश्वर ने जैसा मुझे बनाया है जब मैंने उसे स्वीकार कर लिया तो लोगो को क्या दिक्कत है? लोग मुझे पागल समझते है क्योंकि मैं उनके जैसा नहीं हूँ। जब वो मुझसे हकला, तोतला, बोलते है तो मैं उनसे बहस करने लग जाता हूँ इसलिए पागल हो गया। जल्दी चीज़ें नहीं समझ पाता समय लगता है मुझे, ये कोई क्यों नहीं समझता। मुझे पता है घरवालों को मुझसे बहुत आशा है और मैं कोशिश भी कर रहा हूँ लेकिन ये दवाव मैं नहीं झेल पर रहा हूँ। सबको मेरा बाहरी रूप दिख रहा है मेरे अंदर क्या चल रहा है कैसे बताऊ। और बता भी दूँ तो क्या कोई समझ भी पाएंगा ? मुझे बाहर के लोग कुछ कहते तो उनसे लड़ जाता हूँ अपनी भड़ास निकाल लेता हूँ लेकिन जब अपने ही मुझे बोलते है वहाँ मैं हार जाता हूँ। सोचा था एग्जाम पास करके नौकरी पा लूँगा तो सब सही हो जायेगा लेकिन आज उसमें भी असफल हो गया। दोपहर से सोच रहा हूँ किसी ट्रेन के आगे आकर अपने प्राण दे दूँ लेकिन हिम्मत नहीं कर पर रहा हूँ। अब बताओ कर पाओगे मेरी मदद।”, मुकेश की आवाज़ में गुस्सा था, दर्द था।
पुजारी जी ने शान्ति से सब सुना फिर मुकेश से कहा, “चलो”
मुकेश: “कहाँ?”
पुजारी जी ने मुकेश का हाथ पकड़ा और हाथ को खीचते हुए उसे अपने साथ मंदिर के अंदर ले गए। उन्होंने प्रसाद की थाली वहाँ रखी और बिना कुछ बोले मुकेश का हाथ पकड़ कर मंदिर से बाहर निकल कर सामने जाती सीधी सड़क की ओर लम्बे-लम्बे कदम के साथ चलने लगे। मुकेश को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह बस पुजारी जी के साथ कदम-से-कदम मिला कर चला जा रहा था।
शहर के लगभग सभी पुलिस स्टेशनो पर पूछताछ कर ली गई थी लेकिन मुकेश का कुछ पता नहीं चला। मास्साब ने कुछ परचित लोगो को मदद के लिए बुलवा लिया था। इतने बड़े शहर में कैसे मुकेश को ढूँढ़े, ये कोताहल सभी के मन में था। गाड़ी एक सड़क से दूसरी सड़क तक घूमे जा रही थी। कभी किसी मॉल के बाहर देखते तो कभी किसी चौपाटी पर। कभी बस स्टैंड तो कभी रेलवे स्टेशन पर। जब मुकेश का कुछ पता नहीं चल पाया और जब रात गहरी हो गई तो निराश होकर सभी गाँव लौट गए। सभी के चेहरे पर एक उदासी थी।
पुजारी जी के कदम एक फिज़ियो सेंटर के सामने आकर ठहर गए। मुकेश ने ऊपर बोर्ड पढ़ा उस पर लिखा था “हीलिंग फिजियो सेंटर”। पुजारी जी मुकेश को अंदर ले गए ओर उसे अकेला छोड़ दिया। मुकेश वहाँ के दृश्य को देखकर शिथिल पड़ गया। छोटे-छोटे बच्चे व्हीलचेयर लेकर इधर से उधर रेस लगा रहे थे। एक व्यक्ति का आधा शरीर लकवाग्रस्त था, ना बोल पा रहा था ओर ना ही चल पा रहा था। किसी की खोपड़ी खुली थी तो किसी की रीड की हड्डी। कोई बैसाखी के सहारे चल रहा था तो कोई केलिपर लगाये ऐसे मौज में चल रहा था जैसे उसे गुमान हो कि मुझे तो कोई समस्या है ही नहीं। लेकिन सबमें एक बात समान थी – सब जीने की आशा में थे। उनके चेहरे पर एक चमक थी, एक आभा थी, जीवन को जीने की लालसा थी। मुकेश को अपनी समस्या इन लोगो के सामने ऐसे प्रतीत हो रही थी मानो काली घनी अँधेरी रात के सामने शाम का पहर।
मुकेश सब समझ गया कि क्यों पुजारी जी उसे यहाँ लेकर आये थे। वह दौड़कर पुजारी जी के पास पहुँचा और उन्हें गले से लगा लिया। वह समझ गया था कि जीवन का मूल्य क्या है। उसकी आँखों से प्रेम और ग्लानि के मिश्रित अश्रु बह रहे थे।
पुजारी जी बोले बेटा मैं समझ सकता हूँ तुम किस मनोदशा से गुजर रहे थे लेकिन ये संसार बहुत बड़ा है, यहाँ हर मोड़ पर कोई न कोई दुखी मिल जायेगा लेकिन इसका मतलब हार मानकर अपना जीवन खत्म कर देना ये तो कोई वीरता की निशानी नहीं है! अब रात होने को है अपने घर जाओ। मुकेश बोला मेरा घर तो गाँव में है और गाँव तो यहाँ से दूर है। रात को कोई साधन भी नहीं मिलेगा। पुजारी जी ने कहा ठीक है कोई बात नहीं आज मंदिर चलो कल सुबह तुम्हे गाँव वाली बस में बिठा दूँगा। मुकेश आज बहुत खुश था उसे जीने का उदेश्य मिल गया था। वह समझ चुका था वह अकेला नहीं है जो किसी विकलांगता से प्रभावित है। वह मन ही मन भगवान और पुजारी जी को धन्यवाद दे रहा था।